जब आँसू अपने हो जाते हैं

डॉ सत्यवान सौरभ

जीवन के इस सफ़र में,
हर मोड़ पर कोई न कोई साथ छोड़ देता है,
कभी उम्मीद, कभी लोग —
तो कभी ख़ुद अपनी ही परछाईं पीछे रह जाती है।

हर हार सिर्फ हार नहीं होती,
वो एक आईना होती है —
जिसमें हम देखते हैं अपना असली चेहरा,
बिना मुखौटे, बिना तालियों के शोर के।

जब आँखें भर आती हैं,
पर सामने कोई कंधा नहीं होता,
तो वही पल —
हमें भीतर से लौह बना देता है।

हम उसी दिन बड़े हो जाते हैं,
जिस दिन किसी और के नहीं,
अपने ही आँसू अपने हाथों से पोंछते हैं,
और कहते हैं —
“अब और नहीं, अब मैं रुकूँगा नहीं।”

क्योंकि आँसू जब बहते हैं,
तो या तो कमज़ोरी बनते हैं,
या बनते हैं प्रेरणा —
एक विराट ललकार की तरह!

जैसे मैदान पर
विराट कोहली गिरते हैं,
तो उठते भी हैं —
वो भी ऐसे कि गेंदबाज़ की साँसें थम जाती हैं।

वो सीख हैं —
कि हार में भी गरिमा हो सकती है,
और जीत — सिर झुकाकर भी मिल सकती है।

कोई स्टेडियम नहीं चीखता
जब आप चुपचाप दर्द सहते हैं,
पर जब आप फिर उठते हैं,
तो पूरी दुनिया आपको सलाम करती है।


“बचपन आँसुओं में डूबता है,
पर बड़प्पन वहीं जन्म लेता है —
जहाँ आँसू सुखाकर,
इंसान मुस्कुराकर कहता है — चलो फिर से!”

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress