कमलेश पांडेय
युवा हृदय सम्राट स्वामी विवेकानंद चाहते थे कि भारत के युवाओं में विशाल हृदय के साथ मातृभूमि और जनता की सेवा करने की दृढ़ इच्छा शक्ति हो। इसलिए राष्ट्रीय युवा दिवस के पावन अवसर पर समसामयिक वैश्विक परिस्थितियों के मद्देनजर देशवासियों के बहुमत की उत्कट आकांक्षाओं को समझते हुए ‘भारतीय युवाओं’ और ‘भारत सरकार’ दोनों से यह अपेक्षा रखता हूं कि “सनातन विश्व, अखंड भारत और रचनात्मक भविष्य” के दृष्टिगत हमलोग लामबंद हों और सत्य-अहिंसा-प्रेम से लबालब आधुनिक विश्व का नवनिर्माण करें।
दरअसल, स्वामी विवेकानंद ने युवाओं के लिए कहा था कि, ”उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए।” चूंकि वे युवाओं में आशा और उम्मीद देखते थे। उनके लिए युवा पीढ़ी परिवर्तन की अग्रदूत है। इसलिए उन्होंने कहा था- “युवाओं में लोहे जैसी मांसपेशियां और फौलादी नसें हैं, जिनका हृदय वज्र तुल्य संकल्पित है।”
वह चाहते थे कि युवाओं में विशाल हृदय के साथ मातृभूमि और जनता की सेवा करने की दृढ़ इच्छा शक्ति हो। उन्होंने युवाओं के लिए कहा था कि “जहां भी प्लेग या अकाल का प्रकोप है, या जहां भी लोग संकट में हैं, आप वहां जाएं और उनके दुखों को दूर करें। आप पर देश की भविष्य की उम्मीदें टिकी हैं।“
ऐसे में देश-दुनिया में युवा वर्ग की सोच और ऊर्जा का तभी सही उपयोग हो सकता है, जबकि उनके पास रचनात्मकता और स्वप्न से भरे कार्यक्रम के लिए स्पेस मौजूद हो। इस नजरिए से जब भी कोई युवा कुछ संकल्प-विकल्प लेकर सामने आता है, तो उन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उसे प्रेरित करने की जरूरत है। आप युवा पीढ़ी पर विश्वास करें और उसे प्रेरित करते रहें। युवा वर्ग में खतरा लेने की क्षमता होती है। जब रचनात्मकता को कुचला जाता है, तो कुछ भी नया नहीं हो सकता और यहीं से विकास की गति अवरूद्ध हो जाती है। लिहाजा, विकास की गति को बनाए रखने के लिए भी रचनात्मकता को प्रोत्साहित करना जरूरी है।
देश-दुनिया के समग्र व समावेशी विकास के लिए युवा वर्ग का रचनात्मकता कार्यों से जुड़ाव अतिआवश्यक है। खासकर भारत जैसे युवा देश के लिए यह और भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है। क्योंकि पूरे विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है, जहां साठ प्रतिशत से अधिक जनसंख्या 35 वर्ष के अंदर है। रचनात्मकता ही युवा वर्ग को दुर्व्यसन और तनाव से बचा सकती है। रचनात्मक कार्यों से जोड़े रखने के लिए केंद्रीय स्तर पर युवा रचनात्मकता इकाई गठित करने की आवश्यकता है। साथ ही प्रतिवर्ष राष्ट्रीय स्तर पर युवाओं के सम्मेलन और प्रतियोगिताओं का आयोजन होना चाहिए।
इस नजरिए से भी सनातन विश्व, अखंड भारत और समावेशी रचनात्मक भविष्य से बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता।
वैसे भी हमें यह याद रखना चाहिए कि जब भारत में 19 वहीं सदी में अंग्रेजी शासन का बोल-बाला था और दूनिया हमें हेय दृष्टि से देखती थी। उस समय भी भारत माता ने एक ऐसे लाल को 12 जनवरी 1863 में जन्म दिया, जिसने भारत के लोगों का ही नहीं बल्कि पूरी मानवता का गौरव अपने निर्भीक और जनोपयोगी विचारों से बढ़ाया। तब भले ही उनके माता-पिता ने अपने बालक का नाम नरेन्द्र रखा। लेकिन इसके बाद वे आध्यात्म से सरोबोर होकर अपने विवेक को इस कदर जागृत करके लोक प्रतिष्ठित हो लिए, कि समकालीन विश्व में स्वामी विवेकानंद कहलाए।
ऐसा इसलिए कि स्वामी विवेकानंद पश्चिमी दर्शन सहित विभिन्न विषयों के ज्ञाता होने के साथ-साथ एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वह भारत के पहले हिंदू सन्यासी थे, जिन्होंने हिंदू धर्म और सनातन धर्म का संदेश विश्व भर में फैलाया। उन्होंने विश्व में सनातन मूल्यों, हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति की सर्वाेच्चता स्थापित की। कहना न होगा कि अपने योगिक स्वभाव से परिपूर्ण, वे बचपन से ही ध्यान का अभ्यास करते थे। निज गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आने के बाद उनके जीवन में एक बड़ा बदलाव आया। इनका सम्बन्ध गुरु-शिष्य संबंध के रूप में विकसित हुआ। उन्होंने नवंबर 1881 में एक दिन श्री रामकृष्ण परमहंस से पूछा, सर, क्या आपने भगवान को देखा है? उन्होंने “हाँ“ में उत्तर दिया और कहा कि मैं उन्हें उतने ही स्पष्ट रूप से देखता हूं, जितना कि मैं आपको देख रहा हूं।
श्री रामकृष्ण परमहंस के दिव्य मार्गदर्शन में, स्वामी विवेकानंद ने आध्यात्मिक पथ पर अद्भुत प्रगति की।
कालप्रवाहवश 11 सितंबर, 1893 को शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में उनके भाषण ने दुनिया भर के धार्मिक और आध्यात्मिक सन्तों पर एक अमिट छाप छोड़ी। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत अमेरिकी बहनों और भाईयों के रूप में संबोधित करते हुए की, जिससे पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। उन्होंने कहा जिस गर्मजोशी और सौहार्दपूर्ण माहौल में मेरा स्वागत किया है, उससे मेरा हृदय गद-गद है। भारत भूमि के सभी समुदायों, वर्गों व लाखों-करोड़ों भारतीयों तथा धर्मभूमि की तरफ से मैं आपको कोटि-कोटि धन्यवाद देता हूं।
उन्होंने कहा था- “मुझे उस धर्म व राष्ट्र से संबंध रखने पर गर्व है जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिकता सिखाई है। हम न केवल सार्वभौमिक सहनशीलता में विश्वास रखते हैं बल्कि सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। मुझे भारतीय होने पर गर्व है, भारतीयता की पक्षधरता निज धर्म है, जिसमें विभिन्न राष्ट्रों के पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। स्वामी जी का दृढ़ मत था कि सभी मार्ग एक सच्चे ईश्वर की ओर ले जाते हैं, जैसा कि ऋग्वेद में भी उल्लेख किया गया है कि “एकम सत विप्र बहुदा वदन्ति“ अर्थात सत्य एक है; दार्शनिक इसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं।
उनके भारतीय धर्मनिरपेक्षता के विचार सभी धर्मों के लिए समान थे। उन्होंने सदैव सार्वजनिक संस्कृति के रूप में धार्मिक सहिष्णुता का समर्थन किया, क्योंकि वे सद्भाव और शांति चाहते थे। यह केवल एक सुझाव नहीं था, बल्कि जाति या धर्म के आधार पर बिना किसी भेदभाव के लोगों की सेवा करने का एक मजबूत इरादा था। उनके विचारों में धर्मनिरपेक्षता के संबंध में तुष्टिकरण के लिए कोई स्थान नहीं था। यह सर्व समावेशी था, जिसका उन्होंने अमेरिका में प्रचार किया और 1893 में विश्व धर्म संसद में ऐतिहासिक व्याख्यान देने के बाद यूरोप का भी व्यापक दौरा किया।
वहीं, जब वे चार साल बाद अमेरिका और ब्रिटेन की यात्रा कर भारत लौटे तो वेे मातृभूमि को नमन कर पवित्र भूमि में लेट कर लोट-पोट हुए। यह मातृभूमि के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा और मां भारती के प्रति प्रेम था। उन्होंने कहा कि “मातृभूमि का कण-कण पवित्र और प्रेरक है, इसलिए इस धूलि में रमा हूं।” उन्होंने माना कि पश्चिम भोग-लालसा में लिप्त है। इसके विपरीत आध्यात्मिक मूल्य और लोकाचार भारत के कण-कण में रचा बसा है।
निःसन्देह स्वामी विवेकानंद की दिव्यता, नैतिकता, पूर्व-पश्चिम का जुड़ाव व एकता की भावना ही विश्व के लिए वास्तविक संपत्ति है। उन्होंने हमारे देश की महान आध्यात्मिक विरासत को आगे बढ़ाते हुए एकता की भावना को परिभाषित किया। उनके बारे में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ठीक लिखा था कि, ‘‘स्वामीजी इसलिए महान हैं कि उन्होंने पूर्व और पश्चिम, धर्म और विज्ञान, अतीत और वर्तमान में सामंजस्य स्थापित किया है। देशवासियों ने उनकी शिक्षाओं से अभूतपूर्व आत्म-सम्मान, आत्मनिर्भरता और आत्म-विश्वास आत्मसात किया है।‘‘ शायद उनके इसी ऐतिहासिक संबोधन से प्रभावित होकर प्रख्यात ब्रिटिश इतिहासकार ए.एल. बाशम ने कहा था कि- “स्वामी विवेकानंद जी को भविष्य में आधुनिक दुनिया के प्रमुख निर्माता के रूप में याद किया जाएगा।”
कहना न होगा कि स्वामी विवेकानंद के आदर्शों से प्रेरित होकर, हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मेक इन इंडिया, मेक फ़ॉर द वर्ल्ड’, आत्म निर्भर भारत, स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत जैसा अनेक युगान्तकारी अभियान शुरू किया है। सरकार का यह कदम इस मंशा को दर्शाता है कि स्वच्छ, स्वस्थ और आत्मनिर्भर लोग ही मजबूत राष्ट्र और जीवंत समाज का निर्माण कर सकते हैं।
आपको याद दिला दें कि अपनी भारत यात्रा के दौरान, स्वामी विवेकानंद विशेष रूप से दलितों में भयानक गरीबी और पिछड़ेपन को देखकर बहुत प्रभावित हुए। वह भारत के पहले धार्मिक नेता थे, जिनका यह मानना था कि जनता ही जनार्दन है। जनता की उपेक्षा करने से देश पिछड़ जाएगा। सदियों से चले आ रहे दमन के कारण सामाजिक व्यवस्था को सुधारने की अपनी क्षमता पर उन्होंने प्रश्नचिन्ह लगाया। उन्होंने महसूस किया कि गरीबी के बावजूद, जनता धर्म से जुड़ी हुई है, क्योंकि जनता को यह नहीं सिखाया गया कि वेदांत के जीवनदायी सिद्धांतों और उन्हें व्यावहारिक जीवन में किस प्रकार से धारण किया जा सकता है। इसलिए वे देश की आर्थिक स्थिति में सुधार करने, आध्यात्मिक ज्ञान और नैतिक बल को मजबूत करने में शिक्षा को ही एकमात्र साधन मानते थे। उनके शब्दों में, “शिक्षा मनुष्य को जीवन में संघर्ष के लिए तैयार करने में मदद करती है। शिक्षा चरित्रवान, परोपकार और साहसी बनाती है।”
उनकी इसी सीख से उत्प्रेरित होकर भारत के प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 (एनईपी-2020) तैयार की गई है, जो स्वामी विवेकानंद के वैज्ञानिक दृष्टिकोण, नैतिक मूल्यों और नए भारत के निर्माण की दृष्टि के अनुरूप है। एनईपी-2020 में लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देना, शिक्षा में मातृभाषा को बढ़ावा देना और समावेशी शिक्षा के लिए प्रावधान करने के साथ-साथ व्यावसायिक शिक्षा सहित उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात को 2035 तक 50 प्रतिशत तक बढ़ाना है। इसके साथ-साथ साढ़े तीन करोड़ नए पद सृजित करना है। यह शिक्षा नीति दलितों, पिछड़ों के समग्र और समावेशी सशक्तिकरण को सुनिश्चित करने के लिए स्वामी जी के दृष्टिकोण को आत्मसात करने में एक गेम चेंजर साबित होगी। आज सभी सरकारें, विश्वविद्यालय और शिक्षण संस्थाएं 2030 तक एनईपी-2020 को लागू करने के लिए एकजुट होकर काम कर रही हैं।
देखा जाए तो दिव्यात्मा स्वामी विवेकानंद ने मनुष्य के जीवन को बेहतर बनाने में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भूमिका की परिकल्पना की। इसलिए जब वे एक जहाज में प्रसिद्ध उद्योगपति जमशेदजी टाटा से मिले थे, तो उन्होंने विज्ञान के विकास में उनकी मदद मांगी। स्वामी विवेकानंद से प्रेरित होकर जमशेदजी टाटा ने भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलुरु की स्थापना की।
दरअसल, स्वामी विवेकानंद भारतीय संस्कृति व पश्चिमी शिक्षा प्रणाली दोनों के सर्वाेत्तम पहलुओं को सामने लाना चाहते थे। इसलिए स्वामी जी का दर्शन और आदर्श भारतीय युवाओं के लिए प्रेरणा का एक बड़ा स्रोत हैं। वे महान विचारक, ओजस्वी वक्ता, दूरदर्शी कवि और युवा संरक्षक थे। स्वामी विवेकानंद के दिखाए रास्ते पर चलकर ही एक भारत-श्रेष्ठ भारत, आत्म निर्भर भारत, स्वस्थ भारत और भारत को विश्व गुरु बनाने का सपना साकार किया जा सकता है। यही सोच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सुशासन के केंद्र में भी हैं।
आज युवाओं को सही मार्गदर्शन की जरूरत है। इसलिए उनको समय-समय पर उचित मार्गदर्शन मिलते रहना चाहिए। युवाओं की रचनात्मक कार्यों के प्रति दिलचस्पी बढ़ाने के लिए जागरूकता कार्यक्रम भी आयोजित करने होंगे। विभिन्न कार्यक्रमों में युवा वर्ग को आमंत्रित करना चाहिए, ताकि युवा वर्ग भी अपनी सक्रिय भागीदारी निभा सके। इससे युवाओं को उचित मंच भी मिल सकेगा।
कहना न होगा कि वैसे तो आज का युवा वर्ग बहुत होशियार और मेहनती है। मौजूदा समय में युवाओं को इंटरनेट के माध्यम से ढेर सारी जानकारी उपलब्ध हो जाती है। चूंकि हर बच्चे की रुचि अलग-अलग होती है। इसलिए जरुरी नहीं है कि हर बच्चा पढ़ाई के साथ-साथ अन्य सभी गतिविधियों में भी अव्वल हो। ऐसे में अध्यापक और माता-पिता का फर्ज बनता है कि वे बच्चे की असली प्रतिभा को पहचानें और प्रारंभ से ही उसे रचनात्मक कार्य के लिए प्रेरित करें।
निर्विवाद रूप से हमारा जीवन असीमित संभावनाओं का क्षेत्र है। लिहाजा, इसे भेड़ चाल में तब्दील ना करें, बल्कि अपने मन की अभिरुचि के अनुरूप अपने भविष्य के सपनों को साकार करने की कोशिश करनी चाहिए। चूंकि शहर ही नहीं, अपितु गांवों में भी मोबाइल का अनुप्रयोग बढ़ गया है। इसलिए इस सूचना तकनीक का सकारात्मक प्रयोग करें। अपने-अपने छोटे-मोटे ऑनलाइन व्यवसाय विकसित करें। क्योंकि सिर्फ किताबी ज्ञान ही रचनात्मकता का आधार नहीं है, बल्कि युवा वर्ग में भी कौशल का विकास हो। इसमें माता-पिता तथा स्कूली स्तर के अध्यापकों की भी अहम भूमिका है, क्योंकि उन्हें बच्चों की प्रतिभा तथा उनकी क्षमता का अच्छे से पता है। इसलिए वे भी उन्हें सही दिशा देने का प्रयास करें। इस हेतु समय-समय पर बच्चों की काउंसलिंग की व्यवस्था भी की जाए, जिससे हम उनकी रचनात्मकता का पता लगा सकें।
वहीं, सार्वजनिक चिंता का विषय है कि वर्तमान समय में युवा वर्ग में नशे की लत बढ़ती जा रही है, जिससे उनका जीवन अंधकारमय बन रहा है। ऐसे लोगों पर ध्यान दिया जाए। अभिभावक उनको अकेला न छोड़ें। सभी सामाजिक और धार्मिक कार्यों में उनको अपने साथ लेकर जाएं। उनको भी तरह-तरह के रचनात्मक कार्यों से भी जोड़ा जाए। इसके निमित्त युवाओं को विविध प्रशिक्षण दिया जाए। इस हेतु कई तरह की सरकारी योजनाएं भी हैं, जिनके जरिए युवा वर्ग को रचनात्मक कार्यों से जोड़ा जा सकता है। इसके अलावा, जिला स्तर पर एथलीटों का चयन किया जाए। उन्हें प्रशिक्षण दिया जाए और उनको अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने का मौका मिले। इसके साथ ही स्किल इंडिया के कार्यक्रमों की सूची में अधिक से अधिक और विकल्प का चयन किया जाए ।
चूंकि भारत में युवा वर्ग अन्य देशों से ज्यादा है। इसलिए जब युवा वर्ग को रचनात्मक कार्यों में लगाया जाएगा, तो भारत को आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता है। इसके लिए युवा वर्ग को जागरूक करना चाहिए, उनके अन्दर सकारात्मक सोच पैदा करनी चाहिए। इस हेतु कॉलेजों में सेमीनार, विद्वानों के भाषण आदि का आयोजन किया जाए और महापुरुषों की रचनाएं आदि पढऩे को प्रेरित किया जाना चाहिए। इतना ही नहीं, उन्हें शोध कार्यों की तरफ भी मोड़ा जाए। क्योंकि रचनात्मकता स्वयं प्रेरित होती है। बस, आवश्यकता है युवाओं को अभिप्रेरित करने की, उनको प्रोत्साहित करने की। साथ ही युवा वर्ग को शोध कार्य की तरफ मोडऩा चाहिए। शोध ऐसा हो जो लोगों के जीवन को आसान बना दे।
वहीं, युवाओं की अपार शक्ति को रचनात्मक कार्यों में लगाने के लिए उनको कुशल उद्यमियों के साथ जोड़ना भी जरूरी है। क्योंकि युवा वर्ग देख कर,अपने हाथों से काम करना जल्द सीख जाता है। इसके दृष्टिगत भविष्य की जरूरत के हिसाब से स्कूल, कॉलेज और युवा केंद्रों पर विचार गोष्ठियों और कार्यशालाओं का नियमित आयोजन होना चाहिए।
आपको यह मानना पड़ेगा कि युवा वर्ग ही देश की रीढ़ हैं। इसलिए जब उनकी सोच विकृत होती है, तो देश की राष्ट्रीय एकता व अखंडता पर चोट पहुंचती है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि युवा वर्ग को समय का सदुपयोग करना चाहिए और अपने स्वर्णिम भविष्य के खातिर निष्ठा पूर्वक कार्य करने पर ध्यान देना चाहिए। इसके निमित्त उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार देकर, उनकी दक्षता और कौशल को एक नई दिशा दी जा सकती है।
चूंकि आज विज्ञान व कम्प्यूटर का युग है। इसलिए इनके माध्यम से भी युवाओं में देश-सेवा, समाज-सेवा व जनसेवा भाव विकसित करने की जरूरत है। इस वास्ते थोड़ी सी शिक्षा व उचित वातावरण के द्वारा युवा वर्ग को रचनात्मकता कार्य से जोड़ा जा कसता है। इस प्रकार भारत के युवा विश्व के लिए आदर्श बन सकते हैं।
हमें यह पता होना चाहिए कि बचपन से ही रुचियां प्रस्फुटित होतीं हैं। इसलिए उसी दौर के अनुसार बच्चों को प्रोत्साहित किया जाए। दरअसल, किसी भी कला या रचनात्मकता को अचानक से किसी व्यक्ति में जागृत नहीं किया जा सकता। वहीं, रचनात्मकता का विकास बाल्यावस्था में जिस तरह किया जा सकता है, उतना किशोरावस्था या युवावस्था में नहीं किया जा सकता है। यही वजह है कि बचपन में ही स्कूल के माध्यम बच्चों को रचनात्मक कार्य दिए जाएं। उसके बाद आगे भी उन्हें उसी क्षेत्र में प्रोत्साहित किया जाए, जो उन्हें रुचिकर लगते हों। इस प्रकार से वयस्क होने पर भी वे रचनात्मक कार्यों से वे जुड़े रहेंगे।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि हमें युवाओं को मानवीय मूल्यों की सीख देनी होगी। इसके लिए उन्हें भारतीय संस्कृति से उत्प्रेरित करना होगा। निःसन्देह, युवाओं को मानवीय मूल्यों की सीख देकर ही रचनात्मक कार्यों से जोड़ा जा सकता है। चूंकि युवा मोबाइल के आदी हो चुके हैं, इसलिए उनको सामाजिक कार्यों में लगाकर उन्हें स्वरोजगार की प्रेरणा देनी होगी। उनमें दया, प्रेम, और सद्भाव के मूल्यों का विकास करना होगा।
इसी परिप्रेक्ष्य में यदि थोड़ा गम्भीर हुआ जाए और वर्तमान स्वार्थी दुनियादारी यानी अंतर्राष्ट्रीय राजनय/कूटनीति पर गौर किया जाए तो यह प्रतीत होता है कि समकालीन विश्व में आज जो नित्य नव-परिवर्तित हालात बन-बिगड़ रहे हैं, उससे तृतीय विश्व युद्ध अवश्यम्भावी है! और यदि पुनः ऐसा हुआ तो आण्विक-परमाण्विक बमों, जैविक हथियारों और अंतरिक्ष युद्ध के हथकंडों के अनुप्रयोगों से इस बार पूरी मानवता ही खतरे में पड़ जाएगी और समूचा वैश्विक पर्यावरण ही तहस-नहस हो जाएगा।
वैसे भी प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका से हमलोग अवगत हैं ही, साथ ही भारत-चीन युद्ध, भारत-पाकिस्तान युद्ध, अमेरिका-वियतनाम युद्ध, ईरान-इराक जैसे खाड़ी युद्ध, रूस-यूक्रेन युद्ध, इजरायल-फिलिस्तीन युद्व, भारत-पाक युद्ध आदि में समय-समय पर हुई धन-जन की हानि के बारे में भी जानते-समझते हैं। वहीं, जाने-अनजाने ऐसे ही कई आसन्न युद्धों से निपटने की तैयारी भी पूरी दुनिया में चल रही है।
अजीब विडंबना है कि यूएसए-यूएसएसआर शीत युद्ध बंद हुआ तो उसके कुछ ही अंतराल के बाद अमेरिका-चीन कोल्ड वार शुरू हो चुका है। इन सबका संयुक्त अंजाम तृतीय विश्वयुद्ध ही होगा, बड़े-बड़े बांध आधारित जल युद्ध भी होगा। वहीं, अखण्ड अमेरिका, अखंड भारत, अखंड सोवियत संघ, एक चीन, एक यूरोप, एक अफ्रीका आदि की अवधारणा के मजबूत होने से वैश्विक तनाव और बढ़ेगा, क्योंकि पाकिस्तान, बंगलादेश, फिलिस्तीन, यूक्रेन, उत्तर कोरिया आदि जैसे छोटे-छोटे लुतरलग्गे और महत्वाकांक्षी देश आग में घी का काम कर रहे हैं।
इसलिए युद्ध को टालना मुश्किल है, जनप्रलय को थामना कठिन है। शायद महाप्रलय की सनातनी अवधारणा भी यही है, जिसे रोका तो नहीं जा सकता, लेकिन सद्कर्मों से टाला जा सकता है। इसी सत्कर्म को प्रेरित-उत्प्रेरित करने का आह्वान यहां समीचीन विषयवस्तु है। चूंकि भारत एक युवा देश है और हमारे प्रबुद्ध युवाओं का एक बड़ा तबका पूरी दुनिया में अपने-अपने पेशे में जुटा हुआ है, इसलिए इस गति को तेज करके भारत इस दिशा में बहुत कुछ सकारात्मक कर सकता है।
वैसे भी ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ जैसे हमारे वैश्विक सरोकार तभी साकार हो पाएंगे, जब यह दुनिया हिंसा-प्रतिहिंसा के भाव से मुक्त होगी। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अकसर कहते रहते हैं कि यह युद्ध का नहीं, बुद्ध का समय है। इसलिए हमें योजनागत रूप से आगे बढ़ना होगा। स्वामी विवेकानंद के अग्रगामी विचारों से प्रेरणा लेनी होगी।
हम सबको पता है कि भगवान बुद्ध शांति और सहिष्णुता के तथा भगवान महावीर अहिंसा और प्रेम के प्रतीक हैं।इसलिए इनके सनातनी विचारों को हम सबको आत्मसात करना चाहिए। इस हेतु भी “सनातन विश्व, अखंड भारत और रचनात्मक भविष्य” की दरकार है, क्योंकि इसके बिना शांतिपूर्ण सहअस्तित्व वाले विश्व की परिकल्पना मुश्किल है।
कहना न होगा कि जब भारत विश्व गुरु और सोने की चिड़ियां हुआ करता था और सनातन मान्यताओं से यह दुनिया आलोकित हुआ करती थी, तब इतनी हिंसा-प्रतिहिंसा नहीं होती थी। क्योंकि तब जनसेवा और त्याग की भावना जन-जन में समाहित और समादृत थी। आदमी-आदमी में प्रेम था। वो पशु-प्राणी से भी प्रेम करते थे। जड़ और चेतन सभी पदार्थों में ईश्वर को देखते थे और उनकी उपासना किया करते थे।
भारत में या सनातन धर्म/हिन्दू मत प्रभावित कुछेक देशों में आज भी यह भावना प्रबल है, लेकिन अब अल्पसंख्यक हो चुकी है, इसलिए हर कोई इसे नजरअंदाज करने की जुर्रत कर रहा है। आप मानें या न मानें, लेकिन जब से इंसानी भोग-उपभोग लिप्सा और हिंसा-लूटपाट जैसे रावण-कंस विचार प्रबल हुए हैं, तबसे सनातनी विचारधारा में विखंडन प्रारंभ हुआ, नए-नए व्यक्तिगत धर्म प्रतिपादित हुए और प्राकृतिक जीव हिंसा और मानवीय हिंसा-प्रतिहिंसा की भावना बढ़ती चली गई।
इसी की प्रतिक्रिया में आर्यावर्त, आसेतु हिमालय, जम्बूद्वीप में भी भौगोलिक विखंडन तेज हुआ, जो आज भी जारी है। वहीं, ‘जीवो जीवस्य भोजनम’ और ‘ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत, यावत जीवेत सुखम जीवेत’ जैसे निकृष्ट व्यक्तिगत विचारों और कबीलाई, सामंतवादी, राजतंत्रीय, साम्यवादी, समाजवादी और लोकतांत्रिक सत्तागत स्वार्थी जनसरोकारों ने तो दुनियावी सनातनी मान्यताओं की धज्जियां ही उड़ा डालीं, जिसका विकृत स्वरूप हम सबके सामने है।
समसामयिक विश्व में प्रगतिशील संविधान तो है, पर इसके अनुगामी बहुरूपिया जैसे हैं, मायावी राक्षस मानिंद हैं, जो कब अपना वेश या राजनीतिक विचार बदल लेंगे, निश्चित तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता है। वहीं, कहने को तो दुनिया में सबको मताधिकार प्राप्त है, प्राकृतिक संसाधनों पर सबका अधिकार है, लेकिन हकीकत यह है कि नेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों की पारस्परिक सांठगांठ से समूची मानवता त्रस्त है।
वर्तमान दौर में मशीनों को काम पर काम और इंसानों को मुफ्त अनाज के नीतिगत रहस्य को फर्जी अर्थशास्त्री बखूबी समझाते दिखते हैं। डॉलर डिप्लोमेसी और हथियार खपाऊ लोकतंत्र से पूरी मानवता अभिशप्त है। कागजी और धातुई मुद्रा से तिजोरी तो भर जाती है, लेकिन इंसानी कुपोषण दूर नहीं होता। यही वजह है कि त्याग और लोक सेवा भावी सनातन धर्मावलंबी घटते गए और भोगी तथा पर-उत्पीड़क मतावलंबी दुनिया भर में बढ़ते गए।
आलम यह है कि भोगी और परपीड़क लोगों के घृणित कर्मों से मानवीय पर्यावरण और जीव-जंतु पारिस्थितिकी दोनों खतरे में है। समूची मानवता और प्राणिमात्रता पर आसन्न संकट मंडरा रहा है। अपेक्षाकृत धर्मनिरपेक्ष यानी पथभ्रष्ट मनुष्य बारूद के ढेर पर खड़ा है। परमाणु युद्ध का उतावलापन प्रदर्शित करके पूरी दुनिया से जनजीवन को समाप्त करने पर उतारू है। अपने बेढंगे और अप्राकृतिक विकास से पूरी दुनिया के प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन हेतु तरह-तरह के हथकंडे अपना रहा है।
इसके लिए पूंजीवादी और तानाशाही विश्व अलग- अलग नित्य-नए विचार और कानून गढ़ रहा है। लेकिन किसी में सद्बुद्धि नहीं झलकती। क्योंकि इन सबका उद्देश्य स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व भाव नहीं, बल्कि पूंजीवादी लाभ है। यही मानवीय मलिनता का सबसे बड़ा कारण है। वहीं पूंजीवादी ठिकानों के शीशे की चकाचौंध आपको फर्जी विकास के निमित्त लोकलुभावन प्रतीत होंगी।
पूरी दुनिया से इस निकृष्ट सोच को बदलने की जरूरत है। कहने का अभिप्राय यह कि जब तक चमक और तड़क-भड़क चुनिंदे भवनों पर नहीं, राजमार्गों या सरकारी प्रतिष्ठानों पर नहीं, बल्कि हर मनुष्य के चेहरे और उसके दहलीज पर दिखाई नहीं देगी, तबतक विकास शून्य ही समझा जाएगा। वहीं, किसी भी लोकतंत्र की सफलता विविध कारण वश एकजूट भीड़ का रास्ता रोकने, उन पर लाठी-गोली चलवाने और पानी की बौछारें करवाने में नहीं, बल्कि उनकी जनहितकारी बातों को मान लेने में है, चाहे क्यों नहीं अभिजात्य वर्गों के हितों की अनदेखी हो जाए।
इससे भी बड़ी बात यह है कि हमलोग बहुमत के लोकतंत्र को उखाड़ फेंकें और सर्वसम्मति वाले लोकतंत्र को अपनाएं, ताकि किसी को भी असंतुष्ट होने और व्यवस्था विरोधी कार्रवाई करने की जरूरत ही नहीं पड़े। इसके साथ साथ समान मताधिकार की तरह ही सभी कानूनों में समानता लाएं, ताकि कार्पोरेट युद्ध की कोई गुंजाइश ही नहीं बचे। खासकर रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, सम्मान, परिवहन, संचार आदि जनोपयोगी चीजों में कानूनी विभेदों को अविलम्ब समाप्त किया जाए।
इस निमित्त आरक्षण की जातीय अवधारणा और अल्पसंख्यक की साम्प्रदायिक अवधारणा भी भारत समेत पूरी दुनिया के लिए अभिशाप है। इसे अविलम्ब बदला जाना चाहिए। वहीं, जनप्रतिनिधियों के विशेषाधिकार और न्यायिक अवमानना के सिद्धांत से व्यक्तिविशेष को भी लैस किया जाना चाहिए, ताकि उसके साथ भेदभाव बरतने में भी सत्ता के शागिर्दों को सांप सूंघ जाए।
यहां मानव जीवन और प्राणिमात्र को सजाने-संवारने के लिए सवाल ढेर सारे हैं, लेकिन जवाब सिर्फ एक है- समझदार, सशक्त और सद्भावी युवा शक्ति, जिस पर अपने बच्चों और बुजुर्गों, दोनों के सम्यक लालन-पालन का दायित्व होता है। चूंकि आज राष्ट्रीय युवा दिवस है। इसलिए युवा हृदय सम्राट स्वामी विवेकानंद की याद भी बरबस ताजा हो जाती है। इसलिए उनका पुण्य स्मरण होते ही “सनातन विश्व, अखंड भारत और युवा वर्ग के रचनात्मक भविष्य” को लेकर मेरे मन में विचार तरंगें हिलोरा लेने लगती हैं।
सीधा सवाल है कि आज यदि स्वामी विवेकानंद होते तो क्या करते? “सनातन विश्व, अखंड भारत और आर्थिक रुप से सशक्त युवाओं” को पूरी दुनिया के निमित्त रचनात्मक कार्यों में कैसे जोड़ते? इसलिए आइए हमलोग अमृत काल में एक महान दार्शनिक, संत-विचारक और युवाओं के प्रेरणा पुंज, स्वामी विवेकानंद की शिक्षाओं, राष्ट्रीयता की भावना, देशभक्ति, विविधता में एकता और समावेशिता को आत्मसात करने का संकल्प लें। यही स्वामी विवेकानंद को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।