यह दिलकशी
यह जिस्मफरोशी का माहौल
यह बद नियती
यह लुटती हुई जिंदगी का माहौल
जिन्हें गुरुर खुद पर था
वो मसीहा कहाँ है कहाँ है।
माँ-बाप की
पैरों तले रौदी हुई पगड़ियाँ
ये गुमराह बच्चे
यह भटकती हुई नस्लें हमारी
इज्जत को तार तार करते हुए लोग
वो नुमाइंदे वतन के कहां हैं।
वो मसीहा कहाँ है कहाँ है।
ये डरे डरे से लोग
ये सहमी सहमी वीरान गलियाँ
यह नुचती हुई
कम उम्र की अधखिली कलियाँ
जवाँ जिनको होने में कुछ वक्त था
लोग उनसे मानते रहे रंग-रलियाँ
वो मसीहा कहाँ है कहाँ है।
यह सफेद पोश
यह हमनवाँ हमसफर देश के
ये अमन के पुजारी
जिनके इशारे पर सूनी है गलियाँ
ये अँधेरे कमरों में
दम तोड़ती सिसकती नाबाध वलियाँ
वो मसीहा कहाँ हैं कहाँ हैं।
ये शांतिदूत
ये सदावर्त करने वाले पुजारी
जो खुद के माँ बाप को
कर दिया अकेला और गर्दिश के हवाले
ढोंग कर रहे सेवा का
घर के वृद्ध मोहताज दाने दाने को।
वो मसीहा कहाँ हैं कहाँ हैं