कहां गया आपदा प्रबंधन सिस्टम!

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लिमटी खरे

किसी भी अनहोनी के लिए भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन किया गया है। इसके अधिकारी ही जब स्वीकार करने लगें कि उनकी तैयारियों में गंभीर खामियां हैं तो फिर भारत गणराज्य की जनता को किसके भरोसे छोड़ा जाए! ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टेंडर्ड, आवास एवं शहरी विकास निगम (हुडको) के साथ ही साथ भारत सरकार की भवन सामग्री एवं तकनीकि प्रोत्साहन परिषद द्वारा भूकंपरोधी निर्माण के लिए बाकायदा दिशा निर्देश तैयार किए हैं। इन गाईड लाईन का पालन सुनिश्चित कराना स्थानीय निकायों का काम है, जो भवन निर्माण की अनुज्ञा देते हैं। इन दिशा निर्देशों का कितना पालन हो रहा है यह जगजाहिर है। कागज के महज कुछ टुकड़ों (रिश्वत) के आगे सब कुछ बेमानी ही साबित होता है। व्यवस्था में बैठे लोग किस तरह लोगों को मौत के मुंह में ढकेल रहे हैं और सरकारें मूकदर्शक बनी बैठी हैं। जर्जर इमारतें और भूकंप न सह पाने वाले मकानों अर्थात विनाश के इन व्यापक हथियारों के साथ भारत गणराज्य की एक सौ इक्कीस करोड़ जनता असुरक्षित सांसे ले रही हैं। रियाया बेचैन है पर शासक नीरो के मानिंद चैन की बंसी बजा रहे हैं।

सिक्किम और पूर्वोत्तर राज्यों सहित दिल्ली में भी भूकंप ने जिस कदर तबाही मचाई है वह देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मीडिया में आने वाली तस्वीरों को देखकर रूह कांपना स्वाभाविक ही है। अभी लातूर, कच्छ, जबलपुर, दिल्ली आदि के भूकंप की तबाही से लोग उबर नहीं पाए हैं। कहा जाता है कि नर्मदा घाटी पूरी तरह से भूकंप के निशाने पर है। धरती डोलती है और लोग दहशत जदा हो जाते हैं। अपने अपने परिचितों की पूछ परख के लिए फोन घड़घड़ाने लगते हैं। सरकार आनन फानन इमदाद का एलान कर देती है। सवालय यह है कि यह इमदाद आखिर आती कहां से है। जाहिर है जनता के गाढ़े पसीन की कमाई से।

सिक्किम सहित पूर्वोत्तर क्षेत्र में आए भूकंप को पैमाने पर 6.8 मापा गया है। इसमें मरने वालों की तादाद का आंकड़ा सौ पहुंच रहा है। लगभग पांच लाख की आबादी वाले सिक्किम में जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया है। खबर है कि रविवार को आए भूकंप में अब तक तीन हजार से ज्यादा लोगों को सुरक्षित बचाया जा सका है। भूकंप के झटके मिजोरम, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, दिल्ली आदि में ज्यादा महसूस किए गए। इस भूकंप ने सौ साल पुरानी मालदा जेल की दीवारों में एक सौ से ज्यादा दरारें ला दी हैं।

उधर मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में अरी थाना के तहत आने वाले ग्राम नवेगांव में भूगर्भीय हलचल महसूस की जा रही है। कहा जा रहा है कि खेत की मेड़ के पास जमीन से अजीब तरह की गड़गड़ाहट की आवाजें आ रहीं हैं। लोगों का कहना है कि जमीन के अंदर एसी आवाजें आ रहीं हैं मानो अंदर ही अंदर कुछ उबलकर खदबदा रहा हो। पहले भी मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में रानी अवंती बाई सागर परियोजना के डूब वाले इलाके में 6 अप्रेल 2009 को चाईम्स एविएशन के एक विमान के गिरने की खबर से सनसनी फैल गई थी। इसके पहले इसी साल मकर संक्रांति के दिन इसी जिले के अरी के पास के जंगलों में सेना के एक विमान के क्रेश होने की खबर भी पंख लगाकर उड चुकी है। इस विमान का तो आज तक पता नहीं चल सका है, यह विमान सेना का था या अन्य किसी निजी या सरकारी उपक्रम का यह तो पता नहीं चल सका है, पर यह एक किंवदंती बनकर रह गया है।

जबलपुर एवं सिवनी जिला प्रशासन की हर कोशिश नाकाम रही। बाद में उस विमान के प्रशिक्षु पायलट रितुराज के परिजनों ने ही उसका शव और विमान को बरगी बांध से खोजकर बाहर निकाला था। विडम्बना देखिए कि नर्मदा घाटी पर बसे जाबलिऋषि के जबलपुर में भी आपदा से निपटने कोई ठोस व्यवस्था नहीं थी।

बहरहाल, हाल ही में आए भूकंप में हुई क्षति के बाद राहत और बचाव कार्य में आई तरह तरह की बाधाओं ने साफ कर दिया है कि प्राकृतिक आपदाओं के प्रति हम कितना संजीदा हैं और हमारी व्यवस्था एवं तैयारियां इस मामले में कितनी कारगर हैं। जानकारों का मानना है कि भारत गणराज्य में साढ़े सात रिएक्टर तीव्रता वाला भूकंप का खतरा सदा ही मंडराता है। देश के अनेक हिस्से चार और पांच तीव्रता वाले जोन में हैं।

इन परिस्थितियों में दशकों बाद भी भारत गणराज्य की सरकार द्वारा आपदा नियंत्रण, राहत और बचाव कार्य में सदा ही ढील डाली गई है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण भी लचर व्यवस्था तंत्र के आगे बौना ही साबित हो रहा है। किसी को भी इसके नियम कायदों की परवाह कतई नहीं है। लापरवाह और भ्रष्ट एवं सड़ांध मारते तंत्र ने सारे रिकार्ड ही ध्वस्त कर दिए हैं। सरकारें अपनी कुर्सी के चारों पाए सुरक्षित रखने की जुगत में नैतिकता को कब का ताक पर रख चुकी है।

भारत गणराज्य की सरकार के भवन सामग्री एवं तकनीक प्रोत्साहन परिषण एवं आवास एवं शहरी विकास निगम अर्थात हुड़को के दिशा निर्देशों का सरेआम माखौल उड़ रहा है। किसी को परवाह नहीं है कि इसका पालन सुनिश्चित कर सके। कितने आश्चर्य की बात है कि इसके लिए जिम्मेदार शहरी विकास मंत्रालय की कमान संभालने वाले भी इस मामले में एक शब्द बोलना मुनासिब नहीं समझ रहे हैं। विपक्ष को मानो सन्निपात हो गया है। वह भी खामोशी के साथ रियाया के साथ होने वाले अन्याय में मूक दर्शक बनकर बराबरी से अपनी हिस्सेदारी जता रहा है।

सरकार भूकंप के कारण और निवारण एवं राहत एवं बचाव कार्य में तेजी लाने की गरज से अरबों रूपए खर्च करती है। इस तरह के हादसों से साफ हो जाता है कि सरकार द्वारा जनता के गाढ़े पसीने से अर्जित धन को पानी में ही बहा दिया जाता है। संबंधित अधिकारी मोटी पगार लेकर कुर्सी तोड़ रहे हैं। यह मामला चूंकि जानलेवा है इसमें अनेक कालकलवित हुए हैं अतः सरकार संवेदना तो प्रकट करती है पर इतना साहस नहीं जुटा पाती कि भूकंप के जोन में भूकंपरोधी मकान न बनाने के लिए जिम्मदार अफसरान के खिलाफ संज्ञेय अपराध दर्ज कर कार्यवाही करे।

दुनिया का चौधरी अमेरिका और विकास का पहेरूआ जापान भूकंप की सबसे ज्यादा मार झेलते हैं। भारत गणराज्य की तुलना में वहां भूकंप का आंकड़ा कहीं ज्यादा है। आंकड़ों पर अगर नजर डाली जाए तो भूकंप तो वहां बहुतायत में आते हैं पर जान माल के मामले में वह भारत से कई गुना कम है। कहने का तात्पर्य महज इतना है कि वे इसके प्रति सालों पहले ही सचेत हो चुके थेट और उन्होंने इससे निपटने के प्रबंध सुनिश्चित कर लिए थे। दसियों मंजिलों की विशाल इमारतों में भी भूकंप का बहुत ज्यादा प्रभाव इन देशों में नहीं पड़ता है।

भारत गणराज्य में अपनी कुर्सी बचाने की जुगत में लगे शासकों द्वारा अपनी ही रियाया के दुखदर्द को भुला दिया है। शासक अपने ही में मगन दिख रहे हैं। भारत में कहने को तो आपदा प्रबंधन के अनेक उपाय और प्रबंध हैं पर वे सदा ही नाकाफी साबित होते हैं। कुछ साल पहले जब मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ में भरी बस्ती के बीच प्लास्टिक के एक गोदाम में आग लग गई थी तब उसे बचाने के लिए प्रशासन को भारी मशक्कत करनी पड़ी थी। गोदाम इतनी सकरी गली में था कि वहां फायर ब्रिगेड नहीं पहुंच पा रही थी। सच है कि आपदा प्रबंधन के न्यूनतम संतोषजनक स्तर तक पहुंचने के लिए भारत गणराज्य को अभी दो दशकों तक और इंतजार करना ही होगा!

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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