योजनाओं के केन्द्र में कौन? गरीब या सत्ता?

0
300

अन्तर्राष्ट्रीय गरीबी उन्मूलन दिवस- 17 अक्टूबर, 2020 पर विशेष
-ललित गर्ग –
कोरोना महामारी के कारण अस्तव्यस्त हुई अर्थ-व्यवस्था एवं जीवन निर्वाह के संकट से गरीबी बढ़ी है। गरीबी पहले भी अभिशाप थी लेकिन अब यह संकट और गहराया है। गरीबी केवल भारत की ही नहीं, बल्कि दुनिया की एक बड़ी समस्या है। दुनियाभर में फैली गरीबी के निराकरण के लिए ही संयुक्त राष्ट्र में साल 1992 में हर साल 17 अक्टूबर को गरीबी उन्मूलन दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गई। गरीबी एक गंभीर बीमारी है, किसी भी देश के लिए गरीबी एक बदनुमा दाग है। जब किसी राष्ट्र के लोगों को रहने को मकान, जीवन निर्वाह के लिये जरूरी भोजन, कपड़े, दवाइयां आदि जैसी चीजों की कमी महसूस होती है, तो वह राष्ट्र गरीब राष्ट्र की श्रेणी में आता है। इस गरीबी से मुुक्ति के लिये सरकारें व्यापक प्रयत्न करती हैं। हम जिन रास्तों पर चल कर एवं जिन योजनाओं को लागू करते हम देश में समतामूलक संतुलित समाज निर्माण की आशा करते हैं वे योजनाएं विषम और विषभरी होने के कारण सभी कुछ अभिनय लगता है, छलावा लगता है, भ्रम एवं फरेब लगता है। सब नकली, धोखा, गोलमाल, विषमताभरा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का लोक राज्य, स्वराज्य, सुराज्य, रामराज्य का सुनहरा स्वप्न ऐसी नींव पर कैसे साकार होगा? क्योंकि यहां तो सारे राजनीति दल एवं लोकतंत्र को हांकने वाले सब अपना-अपना साम्राज्य खड़ा करने में लगे हैं। विश्व की सारी संपदा, सारे संसाधन गरीबी को मिटाने में लगते तो आज स्थिति बहुत भिन्न होती, किन्तु बीच में सत्ता की लालसा एवं विश्व पर साम्राज्य स्थापित करने की महत्वाकांक्षाओं ने व्यवधान खड़े कर दिये। इसी कारण जो संपदा है, वह मानव को सुखी, संतुलित या सामान्य बनाने की दिशा में नहीं लगी, संहारक अस्त्रों के निर्माण, आतंकवाद एवं कोरोना जैसी महामारी को पैदा करने एवं फैलाने में लगी। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र कोे भयभीत रखने में अपनी ऊर्जा खपा रहा है, न कि गरीब इंसान की गरीबी दूर करने में।
आज का भौतिक दिमाग कहता है कि घर के बाहर और घर के अन्दर जो है, बस वही जीवन है। लेकिन राजनीतिक दिमाग मानता है कि जहां भी गरीब है, वही राजनीति के लिये जीवन है, क्योंकि राजनीति को उसी से जीवन ऊर्जा मिलती है। यही कारण है कि इस देश में सत्तर साल के बाद भी गरीबी कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है, जितनी गरीबी बढ़ती है उतनी ही राजनीतिक जमीन मजबूती होती है। क्योंकि सत्ता पर काबिज होने का मार्ग गरीबी के रास्ते से ही आता है। बहुत बड़ी योजनाएं इसी गरीबी को खत्म करने के लिये बनती रही हैं और आज भी बन रही हैं। लेकिन गरीब खत्म होते गये और गरीबी आज भी कायम है।
सरकारी योजनाओं की विसंगतियां ही है कि गांवों में जीवन ठहर गया है। बीमार, अशिक्षित, विपन्न मनुष्य मानो अपने को ढो रहा है। शहर सीमेन्ट और सरियों का जंगल हो गया है। मशीन बने सब भाग रहे हैं। मालूम नहीं खुद आगे जाने के लिए या दूसरों को पीछे छोड़ने के लिए। कह तो सभी यही रहे हैं–बाकी सब झूठ है, सच केवल रोटी है। रोटी केवल शब्द नहीं है, बल्कि बहुत बड़ी परिभाषा समेटे हुए है अपने भीतर। जिसे आज का मनुष्य अपनी सुविधानुसार परिभाषित कर लेता है। रोटी कह रही है-मैं महंगी हूँ तू सस्ता है। यह मनुष्य का घोर अपमान है। रोटी कीमती, जीवन सस्ता। मनुष्य सस्ता, मनुष्यता सस्ती। और इस तरह गरीब को अपमानित किया जा रहा है, यह सबसे बड़ा खतरा है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस खतरे को महसूस किया, जबकि लोकतंत्र को हांकने वालों को इसे पहले महसूस करना चाहिए।
एक दिन एक बहस चली कि गरीबी की परिभाषा क्या है? धनहीन, चरित्रहीन या विवेकहीन या जो व्यवहार नहीं जानता हो अथवा जिसकी समाज में कोई इज्जत न हो। ये सब मापदण्ड अभी मनुष्य के दिमाग में आये नहीं हैं। वह तो बस गरीब उसको मानता है जिसके पास धन उसकी जरूरत से कम हो या जो दो वक्त की रोटी की जुगाड़ नहीं कर सकता। जो अपनी बूढ़ी मां का इलाज नहीं करवा सकता। जो अपने बच्चों की फीस नहीं भरवा सकता। गरीबी व्यक्ति को बेहतर जीवन जीने में अक्षम बनाता है। गरीबी के कारण व्यक्ति को जीवन में शक्तिहीनता और आजादी की कमी महसूस होती है। गरीबी उस स्थिति की तरह है, जो व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार कुछ भी करने में अक्षम बनानी है।
गरीबी के अनेकों चेहरे हैं जो व्यक्ति, स्थान और समय के साथ बदलते रहते हैं। गरीबी ऐसी त्रासदी एवं दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति है जिसका कोई भी अनुभव नहीं करना चाहता। एक बार महात्मा गांधी ने कहा था कि गरीबी कोई दैवीय अभिशाप नहीं है बल्कि यह मानवजाति द्वारा रचित सबसे बड़ी समस्या है। विश्व में सुरसा की तरह मुँह फैलाती हुई गरीबी शासनतंत्र की विफलता का भी द्योतक हैं। क्योंकि गरीबी से संबन्ध सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष की मासिक या सालाना आय से नहीं बल्कि स्वास्थ्य, राजनीतिक भागीदारी, देश की संस्कृति और सामाजिक संगठनों की उन्नति से भी है। भारत में गरीबी का मुख्य कारण बढ़ती जनसंख्या, कमजोर कृषि, भ्रष्टाचार, रूढ़िवादी सोच, जातिवाद, अमीर-गरीब में ऊंच-नीच, नौकरी की कमी, अशिक्षा, बीमारी आदि हैं। भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसके बावजूद भारत में मौजूद सबसे ज्यादा संख्या मे किसान ही इस गरीबी के दंश को झेलने के लिए मजबूर हैं।
सरकार की गलत नीतियों, खराब कृषि और बेरोजगारी की वजह से लोगों को भोजन की कमी से जूझना पड़ता है। यही कारण है की महंगाई ने भी पंख फैला रखे हैं। वहीं भारत में बढ़ती जनसंख्या भी गरीबी का एक प्रमुख कारण है। अधिक जनसंख्या मतलब अधिक भोजन, पैसा और घर की जरूरत। मूल सुविधाओं की कमी के कारण गरीबी ने तेजी से अपने पांव पसारे हैं। अत्यधिक अमीर और भयंकर गरीब ने अमीर और गरीब के बीच की खाई खोद रखी है। सरकार भी ऐसे ही लोगों को गरीब मानती है जिनकी वार्षिक आय सरकार के निर्धारित आंकड़ों से कम हो। लेकिन गरीबी केवल आर्थिक ही नहीं होती। दार्शनिक गरीब उसको मानता है जो भयभीत है, जो थक गया है, जो अपनी बात नहीं कह सकता। साधारण आदमी, झोंपड़ी में रहने वाले को गरीब और महल में रहने वाले को अमीर मानता है। खैर! यह सत्य है कि गरीब की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है। तब गरीबी की रेखा क्या? क्यों है? गरीबी को खत्म करने में जो चीज सबसे अहम है वो है असमानता को दूर करना। अगर ऐसा नहीं होता है तो गरीबों के लिए विकास का कोई मतलब नहीं होगा। एक आजाद मुल्क में, एक शोषणविहीन समाज में, एक समतावादी दृष्टिकोण में और एक कल्याणकारी समाजवादी व्यवस्था में यह गरीबी रेखा नहीं होनी चाहिए। यह रेखा उन कर्णधारों के लिए शर्म की रेखा है, जिसको देखकर उन्हें शर्म आनी चाहिए। यहां प्रश्न है कि जो रोटी नहीं दे सके वह सरकार कैसी? जो अभय नहीं बना सके, वह व्यवस्था कैसी? जो इज्जत व स्नेह नहीं दे सके, वह समाज कैसा? जो शिष्य को अच्छे-बुरे का भेद न बता सके, वह गुरु कैसा?
अगर तटस्थ दृष्टि से बिना रंगीन चश्मा लगाए देखें तो हम सब गरीब हैं। जैसे भय केवल मृत्यु में ही नहीं, जीवन में भी है। ठीक उसी प्रकार भय केवल गरीबी में ही नहीं, अमीरी में भी है। यह भय है आतंक मचाने वालों से, कोरोना फैलाने वालों से, युद्ध की मानसिकता रखने वालों से, सत्ता का दुरुपयोग करने वालों से। गांधी और विनोबा ने सबके उदय एवं गरीबी उन्मूलन के लिए ‘सर्वोदय’ की बात की गई। लेकिन राजनीतिज्ञों ने उसे निज्योदय बना दिया। जे. पी. ने जाति धर्म से राजनीति को बाहर निकालने के लिए ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया। जो उनको दी गई श्रद्धांजलि के साथ ही समाप्त हो गया। ‘गरीबी हटाओ’ में गरीब हट गए। स्थिति ने बल्कि नया मोड़ लिया है कि जो गरीबी के नारे को जितना भुना सकते हैं, वे सत्ता प्राप्त कर सकते हैं। कैसे समतामूलक एवं संतुलित समाज का सुनहरा स्वप्न साकार होगा? कैसे मोदीजी का नया भारत निर्मित होगा?

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress