नक्सलवाद से कौन लड़ना चाहता है ?

दुनिया के सबसे निर्दोष लोगों को खत्म करने का पाप कर रहे हैं हम

संजय द्विवेदी

उनका वहशीपन अपने चरम पर है, सोमवार की रात (23 मई,2011) को वे फिर वही करते हैं जो करते आए हैं। एक एडीशनल एसपी समेत 11 पुलिसकर्मियों को छत्तीसगढ़ के गरियाबंद में वे मौत के घाट उतार देते हैं। गोली मारने के बाद शवों को क्षत-विक्षत कर देते हैं। बहुत वीभत्स नजारा है। माओवाद की ऐसी सौगातें आए दिन छ्त्तीसगढ़, झारखंड और बिहार में आम हैं। मैं दो दिनों से इंतजार में हूं कि छत्तीसगढ़ के धरतीपुत्र और अब भगवा कपड़े पहनने वाले स्वामी अग्निवेश, लेखिका अरूंघती राय, गांधीवादी संदीप पाण्डेय, पूर्व आईएएस हर्षमंदर या ब्रम्हदेव शर्मा कुछ कहेंगें। पुलिस दमन की सामान्य सूचनाओं पर तुरंत बस्तर की दौड़ लगाने वाले इन गगनविहारी और फाइवस्टार समाजसेवियों में किसी को भी ऐसी घटनाएं प्रभावित नहीं करतीं। मौत भी अब इन इलाकों में खबर नहीं है। वह बस आ जाती है। मरता है एक आम आदिवासी अथवा एक पुलिस या सीआरपीएफ का जवान। नक्सलियों के शहरी नेटवर्क का काम देखने के आरोपी योजना आयोग में नामित किए जा रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर नक्सलवाद से क्या हमारी राजनीति और राज्य लड़ना चाहता है। या वह तमाम किंतु-परंतु के बीच सिर्फ अपने लोगों की मौत से ही मुग्ध है।

दोहरा खेल खेलती सरकारें

केंद्र सरकार के मुखिया हमारे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री नक्सलवाद को इस देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं। उनके ही अधीन चलने वाला योजना आयोग अपनी एक समिति में नक्सल समर्थक होने के आरोपों से घिरे व्यक्ति को नामित कर देता है। जबकि उनपर राष्ट्रद्गोह के मामले में अभी फैसला आना बाकी है। यानि अदालतें और कानून सब बेमतलब हैं और राजनीति की सनक सबसे बड़ी है। केंद्र और राज्य सरकारें अगर इस खतरे के प्रति ईमानदार हैं तो इसके समाधान के लिए उनकी कोशिशें क्या हैं? लगातार नक्सली अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार कर रहे हैं और यह तब हो रहा है जब उनके उन्मूलन पर सरकार हर साल अपना बजट बढ़ाती जा रही है। यानि हमारी कोशिशें ईमानदार नहीं है। 2005 से 2010 के बीच 3,299 नागरिक और 1,379 सुरक्षाकर्मी मारे जा चुके हैं। साथ ही 1,226 नक्सली भी इन घटनाओं में मारे गए हैं- वे भी भारतीय नागरिक ही हैं। बावजूद इसके नक्सलवाद को लेकर भ्रम कायम हैं। सरकारों में बैठे नौकरशाह, राजनेता, कुछ बुद्धिजीवी लगातार भ्रम का निर्माण कर रहे हैं। टीवी चैनलों और वातानुकूलित सभागारों में बैठकर ये एक विदेशी और आक्रांता विचार को भारत की जनता की मुक्ति का माध्यम और लोकतंत्र का विकल्प बता रहे हैं।

आदिवासियों की मौतों का पाप

किंतु हमारी सरकार क्या कर रही है? क्यों उसने एक पूरे इलाके को स्थाई युद्ध क्षेत्र में बदल दिया है। इसके खतरे बहुत बड़े हैं। एक तो यह कि हम दुनिया के सबसे सुंदर और सबसे निर्दोष इंसानों (आदिवासी) को लगातार खो रहे हैं। उनकी मौत सही मायने में प्रकृति के सबसे करीब रहने वाले लोगों की मौत है। निर्मल ह्रदय आदिवासियों का सैन्यीकरण किया जा रहा है। माओवादी उनके शांत जीवन में खलल डालकर उनके हाथ में बंदूकें पकड़ा रहे हैं। प्रकृतिपूजक समाज बंदूकों के खेल और लैंडमाइंस बिछाने में लगाया जा रहा है। आदिवासियों की परंपरा, उनका परिवेश, उनका परिधान, उनका धर्म और उनका खानपान सारा कुछ बदलकर उन्हें मिलिटेंट बनाने में लगे लोग आखिर विविधताओं का सम्मान करना कब सीखेंगें? आदिवासियों की लगातार मौतों के लिए जिम्मेदार माओवादी भी जिम्मेदार नहीं हैं? सरकार की कोई स्पष्ट नीति न होने के कारण एक पूरी प्रजाति को नष्ट करने और उन्हें उनकी जमीनों से उखाड़ने का यह सुनियोजित षडयंत्र साफ दिख रहा है। आदिवासी समाज प्रकृति के साथ रहने वाला और न्यूनतम आवश्यक्ताओं के साथ जीने वाला समाज है। उसे माओवादियों या हमारी सरकारों से कुछ नहीं चाहिए। किंतु ये दोनों तंत्र उनके जीवन में जहर घोल रहे हैं। आदिवासियों की आवश्यक्ताएं उनके अपने जंगल से पूरी हो जाती हैं। राज्य और बेईमान व्यापारियों के आगमन से उनके संकट प्रारंभ होते हैं और अब माओवादियों की मौजूदगी ने तो पूरे बस्तर को नरक में बदल दिया है। शोषण का यह दोहरा चक्र अब उनके सामने है। जहां एक तरफ राज्य की बंदूकें हैं तो दूसरी ओर हिंसक नक्सलियों की हैवानी करतूतें। ऐसे में आम आदिवासी का जीवन बद से बदतर हुआ है।

शोषकों के सहायक हैं माओवादी

नक्सलियों ने जनता को मुक्ति और न्याय दिलाने के नाम पर इन क्षेत्रों में प्रवेश किया किंतु आज हालात यह हैं कि ये नक्सली ही शोषकों के सबसे बड़े मददगार हैं। इन इलाकों के वनोपज ठेकेदारों, सार्वजनिक कार्यों को करने वाले ठेकेदारों, राजनेताओं और उद्योगों से लेवी में करोड़ों रूपए वसूलकर ये एक समानांतर सत्ता स्थापित कर चुके हैं। भ्रष्ट राज्य तंत्र को ऐसा नक्सलवाद बहुत भाता है। क्योंकि इससे दोनों के लक्ष्य सध रहे हैं। दोनों भ्रष्टाचार की गंगा में गोते लगा रहे हैं और हमारे निरीह आदिवासी और पुलिसकर्मी मारे जा रहे हैं। राज्य पुलिस के आला अफसररान अपने वातानुकूलित केबिनों में बंद हैं और उन्होंने सामान्य पुलिसकर्मियों और सीआरपीएफ जवानों को मरने के लिए मैदान में छोड़ रखा है। आखिर जब राज्य की कोई नीति ही नहीं है तो हम क्यों अपने जवानों को यूं मरने के लिए मैदानों में भेज रहे हैं। आज समय आ गया है कि केंद्र और राज्य सरकारों के यह तय करना होगा कि वे नक्सलवाद का समूल नाश चाहते हैं या उसे सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर इन इलाकों में खर्च होने वाले विकास और सुरक्षा के बड़े बजट को लूट-लूटकर खाना चाहते हैं। क्योंकि अगर आप कोई लड़ाई लड़ रहे हैं तो उसका तरीका यह नहीं है। लड़ाई शुरू होती है और खत्म भी होती है किंतु हम यहां एक अंतहीन युद्ध लड़ रहे हैं। जो कब खत्म होगा नजर नहीं आता।

माओवादी 2050 में भारत की राजसत्ता पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं। विदेशी विचार और विदेशी मदद से इनकी पकड़ हमारे तंत्र पर बढ़ती जा रही है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीजों का तमाशा बनाने की शक्ति इन्होंने अर्जित कर ली है। दुनिया भर के संगठनों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का सहयोग इन्हें हासिल है। किंतु यह बात बहुत साफ है उनकी जंग हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है। वे हमारे जनतंत्र को खत्म कर माओ का राज लाने का स्वप्न देख रहे हैं। वे अपने सपनों को पूरा कभी नहीं कर पाएंगें यह तय है किंतु भारत जैसे तेजी से बढ़ते देश की प्रगति और शांति को नष्ट कर हमारे विकास को प्रभावित करने की क्षमता उनमें जरूर है। हमें इस अंतर्राष्ट्रीय षडयंत्र को समझना होगा। यह साधारण नहीं है कि माओवादियों के तार मुस्लिम जेहादियों से जुड़े पाए गए तो कुछ विदेशी एवं स्वयंसेवी संगठन भी यहां वातावरण बिगाड़ने के प्रयासो में लगे हैं।

समय दर्ज करेगा हमारा अपराध

किंतु सबसे बड़ा संकट हमारा खुद का है। क्या हम और हमारा राज्य नक्सलवाद से जूझने और मुक्ति पाने की इच्छा रखता है? क्या उसमें चीजों के समाधान खोजने का आत्मविश्वास शेष है? क्या उसे निरंतर कम होते आदिवासियों की मौतों और अपने जवानों की मौत का दुख है? क्या उसे पता है कि नक्सली करोड़ों की लेवी वसूलकर किस तरह हमारे विकास को प्रभावित कर रहे हैं? लगता है हमारे राज्य से आत्मविश्वास लापता है। अगर ऐसा नहीं है तो नक्सलवाद या आतंकवाद के खिलाफ हमारे शुतुरमुर्गी रवैयै का कारण क्या है ? हमारे हाथ किसने बांध रखे हैं? किसने हमसे यह कहा कि हमें अपने लोगों की रक्षा करने का अधिकार नहीं है। हर मामले में अगर हमारे राज्य का आदर्श अमरीका है, तो अपने लोगों को सुरक्षा देने के सवाल पर हमारा आदर्श अमरीका क्यों नहीं बनता? सवाल तमाम हैं उनके उत्तर हमें तलाशने हैं। किंतु सबसे बड़ा सवाल यही है कि नक्सलवाद से कौन लड़ना चाहता है और क्या हमारे भ्रष्ट तंत्र में इस संगठित माओवाद से लड़ने की शक्ति है ?

1 COMMENT

  1. श्री द्विवेदी जी ने बहुत बड़ी बात कही है. इस समस्या को सिर्फ बन्दूक से ख़त्म नहीं किया जा सकता है. आदिवासियों के लिए योजना ऐ.सी का या फाइव स्टार होटलों में नहीं बननी चाइये. आखिर इस धरती पर जितना हमारा अधिकार है उतना आदिवासियों का भी है.
    सरकार को चाइये की इमानदारी से आदिवासियों के विकास, रोटी पानी, रोजगार के लिए सोचे. अपनी इंटेलीजेंसी से पता चले की उन्हें हतियार और हिंसा के लिए कोन उकसा रहा है उन्हें पकडे. फांसी दे, समस्या ख़त्म हो जायेगी. सरकार सब जानती है.
    ऐसे गंभीर मामलो में एक राजनेता, एक वरिष्ट अधिकारी के एक गलत निर्णय से कई लोगो की जिन्दगी दाव पर लग जाती है.

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