वामपंथ के पतन के बाद आइए अपनी जड़ों में करें विकल्पों की तलाश / प्रो.बृजकिशोर कुठियाला

प्रो.बृजकिशोर कुठियाला

ऐसा माना जाता है कि भारत टेक्नॉलाजी के क्षेत्र में विकसित अर्थव्यवस्थाओं से लगभग 20 वर्ष पीछे चलता है। हाल ही में हुए विधानसभा के परिणाम से यह सिद्ध हुआ कि राजनीतिक विचारधारा के विस्तार और विकास में भी हम लगभग इतने ही वर्ष पीछे चल रहे हैं। शेष विश्व में साम्यवाद का सूर्य दो दशक पहले अस्त हो गया और वर्ष 2011 में भारत में साम्यवाद के दुर्ग केरल और पश्चिम बंगाल में भी यह विचारधारा धराशायी हुई। रूस, चेकोस्लोवाकिया और पूर्वी जर्मनी में साम्यवाद के पतन के लिये विश्लेषकों ने मार्क्स और लेनिन की विचारधारा को दोषी पाया। परन्तु भारत में मतदाताओं ने साम्यवाद को नकारा तो अधिकतर टिपण्णीकार वहाँ के संगठन और सरकार की कार्यप्रणाली को दोषी पा रहे हैं। यदि ऐसा होता तो वाममोर्चा को दो राज्यों में इतनी करारी हार का मुँह नहीं देखना पड़ता। पश्चिम बंगाल में तो वाम मोर्चे का अपमानजनक पतन हुआ है। कुल 294 में से केवल 63 साम्यवादी ही जीत कर विधानसभा में आये हैं। केरल में प्रदर्शन पश्चिम बंगाल से बेहतर परन्तु कुल मिलाकर शर्मनाक ही रहा। जहाँ पूर्व में दोनों दलों में थोड़े अन्तर से ही हार होती थी, इस चुनाव में वाम दलों को 140 में से केवल 68 स्थान ही प्राप्त हुए।

विषय संगठन की कमजोरी और सरकार की आम व्यक्ति की अपेक्षाओं में असफल रहना तो है, पर कहीं न कहीं यह प्रश्न भी उठना चाहिए की आखिर साम्यवाद का पतन क्यों? तर्क और व्यवहार के आधार पर साम्यवादी विचारधारा बड़ी आकर्षक लगती है क्योंकि वह सभी की समानता की बात करती है। समाज में एक ही वर्ग हो, ऐसा साम्यवादी विचारधारा का उद्देश्य रहता है। यहाँ तक तो ठीक है परन्तु इस समानता को प्राप्त करने के लिये जो आधार माना जाता है, उसके अनुसार हर व्यक्ति को एक राजनीतिक प्राणी की भूमिका में सोचा जाता है। व्यक्ति अपने अधिकारों को प्राप्त करे और अपने से उच्च श्रेणी वालों को या तो अपने स्तर पर लाये या फिर खुद उनके स्तर तक जाये। मूल स्रोत का तत्त्व है कि समाज का एक वर्ग शेष समाज का शोषण करता है।

हर नागरिक की मूल आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान है, ऐसा साम्यवाद मानता हैं और सबको समान रोटी, कपड़ा और मकान मिले ऐसी व्यवस्था करना उद्देश्य है। विश्व में अनेकों उदाहरण ऐसे हैं जहाँ हिंसक क्रांति से साम्यवाद स्थापित हुआ और समानता स्थापित करने का प्रयास हुआ। वर्षों के बाद एक अलग तरह की वर्ग व्यवस्था समाज में बन गई और वर्गहीन समाज केवल सपना ही रह गया। रूस, पूर्व जर्मनी व क्यूबा में ऐसा ही हुआ। चीन में ऐसा ही हो रहा है।

कुछ देशों के साम्यवादियों ने हिंसक क्रांति की संभावना को कठिन या असम्भव मानते हुए प्रजातांत्रिक माध्यम से साम्यवाद की स्थापना का प्रयास किया। भारत में दोनों ही प्रयोग हुए सी.पी.एम. व सी.पी.आई. व सहयोगी दलों ने पश्चिम बंगाल केरल व कुछ-कुछ अन्य प्रान्तों में ऐसे सफल प्रयास किये। साथ ही कट्टर साम्यवादियों के बड़े हिस्से ने हिंसक क्रांति में विश्वास रखा और माओवाद और नक्सलवाद को विस्तार दिया। प्रजातंत्र के माध्यम ने तो साम्यवाद को सिकोड़ दिया। साम्यवाद का हिंसक रूप अपना प्रभाव बढ़ा रहा है, परन्तु क्रांति जैसी सफलता न तो उसको अभी मिली है और न ही मिलने का आसार नज़र आता है।

मूल समस्या कहीं साम्यवाद की अधूरी और कमजोर विचारधारा की है। समाज में एक नागरिक की भूमिका राजनीति के साथ-साथ सामाजिक आर्थिक व सांस्कृतिक भी है। केवल रोटी, कपड़ा और मकान से समाज नहीं बनता है। संबंध, परम्पराएं, संस्कृति और एक दूसरे पर निर्भरता मनुष्य के समाज के अनिवार्य अंग है। जिनको साम्यवाद या तो नकाराता है और या उनकी भूमिका अत्यन्त गौण मानता है इसलिये कुछ समय के बाद साम्यवाद पतन को प्राप्त होता है। अनेक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने जीवन के महत्वपूर्ण प्रारम्भिक वर्ष साम्यवादी विचार के प्रचार-प्रसार में लगाये परन्तु कुछ ही वर्षों में उनको साम्यवाद का अधूरापन और अव्यवहारिकता समझ में आयी। उन्होंने साहस किया और कम्युनिस्ट आन्दोलन से अपने को अलग कर लिया। केरल और बंगाल की जनता को भी अब यह बोध हो गया है कि कम्युनिज्म के माध्यम से उनका विकास होना संभव नहीं है और जब ‘माँ, माटी और मानुस’ का विकल्प उन्हें मिला तो उन्होंने उसे सहज स्वीकार किया।

साम्यवाद का विकल्प पूंजीवाद माना जाता है और दोनों के बीच में कई रंगों का समाजवाद भी आता है। पूंजीवाद में व्यक्ति को एक उपभोक्ता के रूप में माना जाता है। जिसकी आवश्यकता को पूर्ण करने के लिये वस्तुओं और सेवाओं का निर्माण होता है। जिसमें पूंजी लगती है और उसका विस्तार होता है। मौलिक आवश्यकताएं पूर्ण होने पर और छद्म और काल्पनिक जरूरतें पैदा की जाती हैं जिससे की नयी-नयी वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़े और पूंजी का चक्र चलता रहे। एक स्थिति ऐसी आती है कि व्यक्ति और समाज समृद्धि के ऐसे पड़ाव पर पहुंच जाते हैं जहाँ से आगे जाने का कोई रास्ता नहीं होता और जो होता है वह सब व्यर्थ लगता है। जहाँ राजनीतिक व्यक्ति होने से समानता प्राप्त करना अव्यावहारिक है वहीं उपभोक्ता व्यक्ति होने से मनुष्य का विकास भ्रमित रहता है और दिशाविहीनता का भाव बढ़ता है। विश्व में कम्युनिज्म लगभग समाप्त हो गया और पूंजीवाद असफल होता हुआ लगता है। आखिर विकल्प क्या है? विकल्प समग्रता में है। मनुष्य एक जीव होने के साथ-साथ एक सांस्कृतिक प्राणी भी है। भौतिक आवश्यकताएं पूर्ण होने पर उसके मन में प्रकृति के विषय में प्रश्न उठते हैं और उनका उत्तर पाना उसके लिये जीवन का उद्देश्य बनता है। उसको भौतिक जगत के साथ-साथ ऐसी भी अनुभूति होती है कि मानों पूरे विश्व में एकरूपता व एकात्मता हो। मनुष्य विभिन्नता को सृष्टि का नियम मानता है और उससे संबंध बना कर आनन्द प्राप्त करता है। समाज में प्रतिस्पर्द्धा के स्थान पर सहयोग और आपसी निर्भरता को वहाँ अधिक सार्थक और व्यावहारिक मानता है।

विविधता होने के बावजूद उसको लगता है कि सभी में कुछ एक समान तत्त्व भी हैं। जब उसको यह अनुभूति होती है कि सृष्टि के हर जीव और जड़ में कहीं न कहीं एक समान तत्त्व की उपस्थिति है तो ‘सब अपना’ और ‘सभी अपने’ का भाव आता है। भारत के प्राचीन ग्रंथों में इसी प्रकार के दर्शन का बार-बार वर्णन मिलता है। युनान और रोम के प्राचीन ग्रंथों में भी एकरूपता की बात कही गई है। अमरीका के मूल निवासियों जिनको रेड इंडियन के रूप में जाना जाता है, की संस्कृति में भी पक्षियों, पर्वतों, नदियों और बादलों आदि का मनुष्य से संबंध माना गया है। मैक्सिको के एक विश्व प्रसिद्ध लेखक पाएलो कोहेलो ने अपने उपन्यास ‘अलकेमिस्ट’ में लिखा है कि मनुष्य को रेत, मिट्टी पेड़, पर्वत, जल, वायु, बादल, घोड़े इत्यादि सभी से संवाद करने की क्षमता होनी चाहिए। उसने आगे लिखा है कि जब ऐसा होता है तो समूची प्रकृति षड़यन्त्र करके मनुष्य को सफल बनाती है। इस विचारधारा को राजनीतिक दृष्टि से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नाम दिया गया और दर्शन में इसे एकात्म मानववाद कहा गया। विश्व के वर्तमान परिवेश में जब साम्यवाद प्रायः नष्ट हो गया है और पूंजीवाद अंधी गली में अपने को पाता है, तो एकात्म मानववाद में मनुष्यता को अपने विकास का विकल्प ढूंढना होगा।

4 COMMENTS

  1. भारत जी और श्रीकांत जी से मैं पूर्णतया सहमत हूँ . प्रस्तुत लेख बचकाना ही नहीं बेकार भी है .सबसे पहली बात तो यह है की यह कहना क़ि कोम्मुनिस्ट सिधांत रूप में हिंसा को अनिवार्य तत्त्व मानते है तो इसकी प्रष्ठभूमि को वे नजरंदाज कर जाते है ये लोग शोषक वर्ग की अंतहीन अत्याचार जो सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में
    देखने को मिलती है
    उस तरफ देखने का साहस भी नहीं कर
    सकते और रोटी मूल मुद्दा क्यों न हो ? इस लेख के लेखक खली पेट रह कर क्या इस तरह का उपदेश दे सकते
    है जहाँ तक भारतीय जनतांत्रिक प्रणाली क़ि बात है और जो चुनाव प्रक्रिया है वह स्वयं में दोषपूर्ण है इसमें
    फर्स्ट पास द पोल
    सिस्टम लागू होता
    जिससे कम प्रतिशत
    वोट लाने वाला भी चुनाव में विजयी घोषित हो जाता है
    यह नहीं देखा जाता
    क़ि अधिसंख्य जनता ने उन्हें नकारा है .आजादी के बाद चुनावो में
    कंग्रेस इसी तरह ज्यादातर सत्ता में रही जहाँ तक विचार धारा और सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रों का सम्बन्ध है उसमे कोम्मुनिस्ट विचार धारा ही वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण है सोवियत रूस में बदलाव को तथाकथित पतन का नाम देने वाले यह भूल जाते है क़ि उसके बाद आने वाला बाजारवाद जो पूंजीवाद का नया संस्करण है किस तरह से आम लोगों का जीना मुश्किल कर दिया है यह लेखक महोदय से भी नहीं छिपा हुआ है बाजारवादी संस्कृति का हर तरफ नगा नाच हो रहा है संस्क्क्रितिक
    प्रदुषण क्या सम्यवादिविचारधारा क़ि देंन है? जितने भी अंधविश्वास और प्रतिगामी कार्य उभर कर खुलेआम आ गए है कोई इनसे पूछे क़ि साईबाबा के कमरे में अकूत सोने का भंडार आया कहाँ से ?जिस तरह से राजनीतिज्ञों और पुरोहितों का नापाक गठजोड़ हुआ है उदारीकरण के उसकी भयावह तस्वीर रोज अख़बारों में देखि जा सकती है. बिपिन

  2. कुठियाला जी से यह पुछा जाये, की इन चुनावों में भाजपा का क्या हुआ? जिसकी रोटी वे खा रहे हैं, बहतर हो पहले अपनी पेंट देख लें कहाँ – कहाँ से फटी है, फिर दूसरों पर बात करें, बामपंथियो को तो इस चुनाव में १ करोड़ ९५ लाख वोट मिल गए, भाजपा तो सिर्फ ५ सीट जीत पाई है, ४ राज्यों में तो उसका खाता भी बही खुला.

  3. जिन विधान सभा चुनाव में आप वाम पंथ को पराजित बता रहे हैं उसमें केरल में कांग्रेस गठबंधन को सिर्फ दो सीट की बढ़त ही मिल पाई है चुनाव कमीशन के आंकड़ों के मुताबिक केरल में वाम पंथ को ४५% वोट मिले हैं और कांग्रेस गठबंधन को ४५.०५%वोट मिले हैं १८ सीटों पर तो चुनाव में १००-२०० वोटों का अंतर ही है.यह दो सीटों की कांग्रेस ने बढ़त कैसे हासिल की यह जानने के लिए आपको केरल के अल्पसंख्यकों की मानसिकता को भड़काने वाले पूंजीवादी चरित्र को समझना होगा.आप जिस देशज अधोगामी हिंदूवादी विचारधारा को महिमा मंडित पाते हैं उसे केरल में एक भी सीट नहीं मिली है.केरल में ही क्यों सभी ५ राज्यों में संघ परिवार का नाम लेने वाला कोई नहीं दिख रहा और ८६७ सीटों में से सिर्फ ५ असम में ही मिली हैं.बंगाल में भी न तो वाम की हार हुई और न ही ममता की जीत ये तो ३४ साल बाद अवश्यम्भावी परिवरतन था और आगामी चुनाव जब भी होंगे वामपंथ आपको निराश नहीं करेगा.अभी के चुनाव में भी वाल को ४३% और ममता +कांग्रेस+माओवादी+मुस्लिम+नन्दिराम्वाले+लालगढ़ वाले+अमेरिका+ब्रिटेन सभी ने मिलकर सिर्फ २-३% अधिक जनमत को वाम के खिलाफ भड़काकर नौटंकी बाजों को सत्ता सौंप दी है.इसमें भृष्ट और चरित्रहीन मीडिया ने पूंजीवादी दलाल का काम किया है.दरसल आपके पास तथ्यगत सूचनाएँ नहीं हैं और वाम की तात्कालिक चुनावी पराजय को आपने उसके सर्व्कलिअक महानतम सिद्धांतों की पराजय मान लिया जो की नितांत बचकानी समझ को जतलाता है.

  4. विचार सराहनीय है…
    इस ओर भी सोचा जाए…

    जहाँ रोटी-कपड़ा-मकान पहुंचा नहीं है, वहां पहुंचाया जाए…यह प्राथमिकता हो…

    पर जहाँ ये सब पहुंचा है वहां आगे का मार्ग न सूझे…सच्युरेसन…

    एकात्म मानववाद इस धरती पर सुख, शांति और संवादिता लाए…प्रार्थना.

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