मां गुमसुम सी सोचती कहूं किसको?

—विनय कुमार विनायक
मानव जीवन में झमेले ही झमेले,
छठी से अर्थी तक पीड़ा ही झेलते!

सबका साथ रिश्तों का रेलम-पेला,
यहां दुःख भोगे सब कोई अकेला!

दुःख के दिन, अंगद पांव के जैसे,
टस से मस की गुंजाइश ना होते!

दर्द आवारा आशिक देखे ना दिन,
झोपड़ी से महल तक दबोच लेते!

सुख नेवला आए,दुःख सांप दुबके,
फिर डंसने को कुंडली मार बैठते!

बेटियां बड़ी भोली नासमझ होती,
कौन सा घर अपना ना समझती!

एक से डोली एक से अर्थी निकले,
गुड़िया या बुढ़िया, युवा नहीं होती!

बेटियां चाहती आसमान में उड़ना,
पर घर से सड़क पे आते डर जाती!

मां गुमसुम सी सोचती कहूं किसको?
बेटा-बेटी लुटाके बैठी दबंग लुटेरे को!

मां अकचका के देखती बेटा-बेटी को,
पतोहू-दमाद देख के अकबका जाती!

पिता पुण्यात्मा-पुलकित-प्रफुल्लित रे,
जो पहले पुचकारे वो पहले ले मारे!

पास में छोटके,प्राण बड़का पे अटके,
बड़े को बाप के लिए छुट्टी कहां रे!

नारी तुममें सबकुछ, तुम किसमें हो,
पिता-पति-पुत्र-पुत्री बोलो तू किसमें?

नारी से उम्मीद सभी को, नारी को
उम्मीद है किससे?कोई तो उत्तर दो!

एक घर से दूसरा घर गुमशुदा हुए,
रिश्ते रिसते-रिसते,घिसते चले गए!

रिश्ते जो बचे थे मोबाइल हो गए,
न्योता-विजय-लितहार चैट से गए!

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