दलबदल के मौसम में कौन किसका ‘स्वामी’?

उत्तर प्रदेश के श्रम मंत्री, पडरौना से विधायक स्वामी प्रसाद मौर्य ने आखिरकार भारतीय जनता पार्टी का दामन छोड़ दिया है। बहन मायावती के ‘चरणवंदक’ स्वामी प्रसाद ने भाजपा शीर्ष नेतृत्व पर दलितों की उपेक्षा, बेरोजगारी व् उचित सम्मान न मिलने को आधार बनाते हुये राज्यपाल को अपना त्यागपत्र सौंपा। उनके नक्शेकदम पर उनके समर्थक तीन अन्य भाजपा विधायकों ने भी पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया। ऐसी सूचना है कि एक दर्जन भाजपा विधायक व् दो मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य के संपर्क में हैं और कभी भी भाजपा को छोड़ सकते हैं। हालांकि यह तो हुई जनता को दिखाने/समझाने की कवायद। क्या स्वामी प्रसाद मौर्य वास्तव में भाजपा में स्वयं को कुंठित महसूस कर रहे थे? क्या भाजपा में उनकी उपेक्षा हो रही थी? स्वामी प्रसाद मौर्य की अब तक की राजनीतिक यात्रा को देखें तो ऐसा लगता तो नहीं है। सत्ता से पांच वर्ष की दूरी सहने के बाद उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा था क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के कुशल नेतृत्व में यह भान हो चला था कि उत्तर प्रदेश में तत्कालीन अखिलेश सरकार के दिन लद चुके हैं और अगली बार भाजपा राज्य में चमत्कार करने वाली है। यही कारण था कि 2017 में वे भाजपा में शामिल हुए। उनके भाजपा में शामिल होने का एक कारण यह भी था कि वे अपने पुत्र उत्कृष्ट मौर्य व् अपनी पुत्री संघमित्रा मौर्य के राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित करना चाहते थे और मायावती के रहते बसपा में यह संभव नहीं था। समाजवादी पार्टी में भी ऐसा होना उस समय संभव नहीं था क्योंकि उनके पुत्र जिस विधानसभा सीट से दावेदारी कर रहे थे वह समाजवादी पार्टी के कद्दावर ब्राह्मण नेता मनोज पाण्डेय की सीट थी और अखिलेश किसी भी सूरत में मनोज पाण्डेय को हिलाना नहीं चाहते थे। लिहाजा भाजपा में आना स्वामी प्रसाद मौर्य का सटीक दांव था जो चला भी। उनके पुत्र उत्कृष्ट को ऊंचाहार विधानसभा सीट से भाजपा की ओर से लड़ाया गया किन्तु वे पूर्व मंत्री मनोज पाण्डेय से मामूली अंतर से हार गए। स्वयं स्वामी प्रसाद मौर्य पडरौना से चुनाव लड़े, जीते और मंत्री भी बने। उनकी पुत्री संघमित्रा मौर्य को भाजपा ने बदायूं से लोकसभा उपचुनाव लड़वाया और वे जीतीं भी। हाल ही में स्वामी प्रसाद मौर्य की पुत्रवधू संगीता मौर्य दीन शाह गौरा से भाजपा की निर्विरोध ब्लॉक प्रमुख चुनी गईं। अब ऐसे में यदि स्वामी प्रसाद मौर्य यह कहें कि भाजपा में उनका सम्मान नहीं हुआ या वे उपेक्षा का शिकार हुये; तो यह उनके राजनीतिक काइयाँपन और निजी पारिवारिक स्वार्थ का ‘उत्कृष्ट’ उदाहरण है।

ऐसी चर्चा है कि स्वामी प्रसाद मौर्य समाजवादी पार्टी में शामिल हो सकते हैं। वर्तमान में उनकी समस्त राजनीतिक व् पारिवारिक महत्वकांक्षाओं की पूर्ति करना अखिलेश यादव के हाथ में है। वे स्वयं को चुनाव लड़ ही सकते हैं, उनके पुत्र भी ऊंचाहार से चुनाव लड़कर जीत सकते हैं। दरअसल, मनोज पाण्डेय का ऊंचाहार में विरोध हो रहा है और वे स्वयं रायबरेली सदर सीट से चुनाव लड़ना चाहते हैं जहाँ ब्राह्मण मतदाताओं की बड़ी संख्या है। यदि ऐसा होता है तो उनका सीधा मुकाबला कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हुईं अदिति सिंह से होगा जो वहां कांग्रेस और भाजपा; दोनों दलों का विरोध झेल रही हैं। यानि उत्कृष्ट यदि दलित बहुल ऊंचाहार से सपा की साइकिल पर सवार होते हैं तो उनकी राजनीतिक राह सरपट होगी और वहां साइकिल की सीट भी बची रहेगी। इसी प्रकार बदायूं शुरू से ही सपा की सीट रही है और यदि पिता सपा की साइकिल पर सवार होते हैं तो पुत्री संघमित्रा को भी समस्या नहीं होना चाहिये। रही बात उनकी पुत्रवधू की तो वे भी सपा का दामन थाम ही लेंगी। कुल मिलाकर देखा जाये तो कोइरी समुदाय के स्वामी प्रसाद मौर्य ने समाज के किसी अन्य व्यक्ति का राजनीतिक भविष्य भले ही न बनाया हो किन्तु अपने पूरे परिवार की राजनीतिक राह आसान बना दी है। दूसरा, ‘बाहरी’ स्वामी प्रसाद मौर्य का भाजपा के निष्ठावान कार्यकर्ता प्रारंभ से ही विरोध कर रहे थे और कोरोना काल की विभीषिका में उनका जनता के बीच न होना कार्यकर्ताओं व् जनता के बीच असंतोष को बढ़ा रहा था। संभव था कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उन्हें मनाकर उनके स्थान पर उनके पुत्र को चुनावी रण में उतार देता। इस संभावित परिस्थिति से स्वामी प्रसाद मौर्य का राजनीतिक जीवन लगभग समाप्त हो जाता और एक यह आशंका भी उन्हें भाजपा छोड़ने पर राजी कर रही है।

इसी प्रकार दिग्गज कांग्रेसी नेता स्व. हेमवती नंदन बहुगुणा की पुत्री, उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रीता बहुगुणा जोशी के भी आहत होने की खबर है। यदि यह सच है तो कद्दावर ब्राह्मण नेत्री का आहत होना भाजपा के लिये सही नहीं है क्योंकि पूरे उत्तर प्रदेश में यह नैरेटिव सेट कर दिया गया है कि योगी सरकार से ब्राह्मण खफा हैं और यदि रीता बहुगुणा जोशी भाजपा छोड़ती हैं तो ब्राह्मण मतदाताओं में इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। वैसे राजनीतिक पण्डितों की मानें तो रीता बहुगुणा जोशी प्रेशर पॉलिटिक्स खेल रही हैं क्योंकि उन्हें अपने पुत्र को लखनऊ से चुनाव लड़वाना है तो अपने भाई, उत्तराखंड के कद्दावर नेता विजय बहुगुणा के लिये भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनवाना है ताकि बहुगुणा परिवार का राजनीतिक वर्चस्व बना रहे। अपने इसी राजनीतिक वर्चस्व को बचाने और बनाने के लिए दोनों भाई-बहनों ने कांग्रेस छोड़ भाजपा की सदस्यता ली थी। विजय बहुगुणा ने तो हरीश रावत सरकार तक गिरा दी थी जिसके बाद सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप कर राजनीतिक नूराकुश्ती पर रोक लगानी पड़ी थी।

दलबदल करने वाले राजनीतिक पिपासु नेताओं का इतिहास लम्बा रहा है किन्तु अब यह परिपाटी स्वस्थ लोकतंत्र के लिये नुकसानदेह साबित होने लगी है। पांच वर्षों तक जिसके साथ सत्ता का सुख भोगो; उसी को नाजुक समय में छोड़कर भाग जाओ और फिर सत्ता से जुड़कर सुख का जीवन जियो, यह परिपाटी अब बंद होना चाहिये। 2014 के बाद भारतीय जनता पार्टी में ऐसे नेताओं की बाढ़ सी आई है जो कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दलों के कमजोर होने से स्वयं को राजनीतिक अस्तित्व को मृतप्रायः समझने लगे थे। भाजपा ने भी उन्हें लगे से लगाकर सर पर बिठाया। याद कीजिये, तृणमूल कांग्रेस के कद्दावर नेता मुकुल रॉय जब भाजपा में आये तो उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया किन्तु ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनते ही एक राष्ट्रीय पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ही पार्टी को छोड़ गया। यह बड़ी शर्मनाक स्थिति थी भाजपा के लिये। अब उत्तर प्रदेश में भी इसी प्रकार की स्थितियां निर्मित हो रही हैं। दरअसल, भाजपा में जब बाहरी नेताओं को मात्र राजनीतिक गुणा-भाग और लाभ दिखता है तो वे तत्काल उसमें शामिल हो जाते हैं और भरपूर सत्ता सुख भोगते हैं किन्तु जैसे ही उन्हें भान होता है कि स्थिति बदल सकती है तो वे पार्टी को छोड़ते हुए आरोपों की झड़ी लगा देते हैं। इससे पार्टी की छवि पर तो कुठाराघात होता ही है, निष्ठावान कार्यकर्ताओं का उत्साह व् समर्पण भी कमजोर पड़ता है। ‘चाल, चेहरा और चरित्र’ की लीक भी टूटती है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में दलबदल की बाढ़ आने वाली है और अब यह राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व को तय करना है कि वे दलबदलुओं को आँककर पद देते हैं या आते ही शीर्ष पर पहुंचा देते हैं? वैसे चुनाव सुधारों की पीपड़ी बजाते राजनीतिक दलों से दलबदल की परिपाटी समाप्त करने की उम्मीद बेमानी है अतः अब जनता ही जागरूक होकर यह तय करे कि दलबदल किये किसी भी नेता को कम से कम पांच वर्षों तक वोट नहीं देना है। पहले नेता को आजमाये, नेता जनता का भरोसा जीते और तब वह जनता के आशीर्वाद के योग्य बने।

  • सिद्धार्थ शंकर गौतम
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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

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