ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना क्यों की?

0
366

मनमोहन कुमार आर्य

आर्यसमाज एक सामाजिक एवं धार्मिक आन्दोलन है। यह वैदिक सिद्धान्तों से देश की राजनीति को भी दिशा देने में समर्थ है। वेद, मनुस्मृति, रामायण एवं महाभारत आदि ग्रन्थों में राजा के कर्तव्यों सहित एवं समाज एवं देश की सुव्यवस्था संबंधी वैदिक विधानों की भी चर्चा है। आर्यसमाज की सभी गतिविधियों का मुख्य केन्द्र बिन्दु व प्रेरणा स्रोत वेद है। वेद क्या हैं? वेद सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर की प्रेरणा से चार आदि ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया गया ज्ञान है। यह ज्ञान ईश्वर ने उन चार ऋषियों के निजी उपयोग के लिए ही नहीं अपितु उन्हें अन्य सभी मनुष्यों का प्रतिनिधि बनाकर दिया था जिससे वह सभी लोगों को वेदों का ज्ञान करा सकें और उन्होंने ऐसा किया भी। वेद और धर्म दोनों शब्द एक दूसरे के पूरक कहे जा सकते हैं। वेद की सभी शिक्षायें सत्य है और सभी मनुष्यों को इसका पालन करना अपनी ऐहिक व पारलौकिक उन्नति के लिए आवश्यक है। वेदों की शिक्षाओं का पालन ही धर्म कहा जाता है। वेदों में सत्य का व्यवहार करने व परहित के कार्यों में जीवन व्यतीत करने की आज्ञा है। यही मनुष्य का धर्म भी है।

 

वेद मनुष्यों में भौगोलिक कारणों, रंग-रूप व अन्य किसी प्रकार से भी भेद नहीं करता। उसके लिए सभी मनुष्य काले, गोरे, अगड़े व पिछडे, स्त्री व पुरुष समान हैं। सबको समान रूप से ईश्वरोपासना, यज्ञ, वेदाध्ययन, वेदाचरण व अन्य सभी अधिकार अपनी अपनी गुण, कर्म, स्वभाव व योग्यता के अनुसार प्राप्त हैं। महाभारतयुद्ध के बाद वेदों का यथार्थ ज्ञान अप्रचलित होकर विलुप्त प्रायः हो गया था। इस कारण देश व संसार में अंधकार फैला और अनेक मत-मतान्तर उत्पन्न हुए जो अधिकांशतः अविद्या से ग्रस्त थे। आज संसार में जितने भी मत प्रचलित हैं उनमे ंवेद व सनातनी पौराणिक मत के अतिरिक्त मुख्यतः ईसाई व इस्लाम मत का प्रचार प्रसार अधिक है। ईसाई व इस्लाम मत से पूर्व बौद्ध व जैन मत भी प्रचलन में आये और आज भी इनका अस्तित्व व प्रचार है। बौद्ध, जैन, ईसाई व इस्लाम आदि मत इन मतो से 1.96 अरब वर्ष पूर्व आरम्भ व प्रचलित वेद धर्म से प्रेरणा व सहायता नहीं लेते। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि जब इन मतों की स्थापना व आरम्भ हुआ, उस समय यरुशलम, मक्का मदीना आदि स्थानों पर वेदों का प्रचार व जानकारी लोगों को नहीं थी। ऐसा न होने पर भी वेदों की बहुत सी शिक्षायें इन मतों में पाई जाती हैं। बौद्ध और जैन नास्तिक मत यद्यपि लगभग 2500 वर्ष पूर्व भारत में अस्तित्व में आये परन्तु उनके समय वेदों के नाम पर यज्ञों में जो पशु हिंसा प्रचलित थी, उनका इन मतों ने विरोध किया। इस विरोध के कारण ही यह भी वेदों से प्रेरणा नहीं लेते। यह बात अन्य है कि वेदों के आधार पर प्रचिलत मोक्ष आदि शब्द इन्होंने वैदिक परम्परा से ही लिये हैं। इन सभी मतों से पूर्व व महाभारत काल के बाद वेदों की कुछ सत्य व कुछ असत्य मान्यताओं पर आधारित सनातन धर्म प्रचलित हुआ जो शुद्ध वैदिक धर्म से कुछ कुछ विकृत मत था। बाद में पुराण आदि की रचना होने से इसमें और अनेक वेदविरुद्ध बातें प्रचलित हुईं।

 

समय व्यतीत होने के साथ सनातनी पौराणिक मत में अनेक अज्ञान की बातें, अन्धविश्वास एवं कुरीतियां आदि उत्पन्न हो गई। इनके परिणाम से ही इस मत के अनुयायी अवैदिक मान्यताओं व परम्पराओं अवतारवाद, बहुदेवतावाद, मूर्तिपूजा, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, जन्मना जातिवाद आदि को मानने लगे जो वर्तमान में भी विद्यमान हैं। महाभारत काल से पूर्व गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था प्रचलित थी जिसका विकृत रूप जन्मना जातिवाद अस्तित्व में आया। इस जन्मना जातिवाद व वर्णव्यवस्था के विकृत रूप ने समाज में अव्यवस्था को जन्म दिया जिससे समाज व देश कमजोर हुआ और यवनों व मुस्लिमों का गुलाम भी हुआ। इस गुलामी में मुख्य कारण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, धार्मिक अन्धविश्वास, मिथ्या व अज्ञानपूर्ण परम्परायें ही मुख्य थीं। ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी में भारत अधिकांशतः अंग्रेजी राज्य बन चुका था। ऐसे समय उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश के धार्मिक व सामाजिक जगत में वेद विद्या से देदीप्यमान महर्षि दयानन्द का आगमन हुआ। महर्षि दयानन्द दण्डी स्वामी प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा के सुयोग्य शिष्य थे। गुरु ने उन्हें देश व समाज से अज्ञान दूर कर वेद मत स्थापित करने की प्रेरणा की थी। इस परामर्श को महर्षि दयानन्द जी ने स्वीकार किया था और सन् 1863 में मथुरा से आगरा आकर धर्म प्रचार का कार्य करना आरम्भ कर दिया था। आगरा में रहते हुए वह पौराणिक मान्यताओं का खण्डन करते थे। उन्होंने वहां रहते हुए सन्ध्या नाम की एक लघु पुस्तक लिख कर उसे प्रकाशित कराया और उसका वितरण कराया। इस प्रकार महर्षि दयानन्द ने सार्वजनिक जीवन में वेद और आर्ष साहित्य के आधार पर निश्चित सत्य मान्यताओं के प्रचार व प्रसार को अपना लक्ष्य बनाया था और वेद विरुद्ध मान्यताओं व विचारों का वह युक्ति, तर्क व वेद प्रमाणों से खण्डन भी करते थे।

 

आर्यसमाज की स्थापना ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने मुम्बई नगरी में 10 अप्रैल, सन् 1875 को की थी। इसके लिए उन्हें मुम्बई के प्रमुख आर्य पुरुषों ने प्रेरित किया था। ऋषि ने भी समाज की स्थापना पर अपनी सम्मति दी थी और वहां के सत्पुरुषों को सावधान भी किया था कि आर्यसमाज का संचालन विधि विधान के अनुसार योग्य पुरुषों द्वारा होना चाहिये। यदि इसमें व्यवधान हुआ तो परोपकार के इस कार्य से वह उद्देश्य पूरा नहीं हो सकेगा जिसके लिए यह समाज स्थापित किया जा रहा है। आर्यसमाज का उद्देश्य वही था जो ऋषि दयानन्द के गुरु स्वामी विरजानन्द जी ने उन्हें प्रेरित किया था एवं ऋषि भी उस पर पूर्णरूपेण आश्वस्त थे। वह उद्देश्य यही था कि वेदों के प्रचार से समाज व विश्व से अज्ञान, असत्य व अविद्या को मिटाया जाये और उसके स्थान पर सत्य व विद्या से पूर्ण वैदिक मान्यताओं के अनुसार समाज, देश व विश्व को बनाया जाये। अविद्या जब दूर होती है तो मनुष्य ईश्वर, जीव व प्रकृति सहित सभी कार्य पूर्ण ज्ञानपूर्वक करता है जिसमें कहीं किंचित अज्ञान व अन्धविश्वास की सम्भावना नहीं रहती। यदि सभी व अधिकांश मनुष्यों की अविद्या दूर हो जाये तो समाज व देश सुख का धाम बन सकता है। इसी कारण वेद विश्व को श्रेष्ठ वा आर्य बनाने का उद्घोष करते हैं।

 

आज संसार में अविद्या व्याप्त है। अविद्या  इस कारण कि संसार के 90-95 प्रतिशत लोग वेद ज्ञान से अपरिचित होने के साथ ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप को नहीं जानते और न ही उन्हें कर्मफल व्यवस्था का ज्ञान है, न पुनर्जन्म के सिद्धान्त का और न ही जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य का पता है। वह यह भी नहीं जानते कि वह प्रतिदिन जो कर्म करते हैं उसका परिणाम उनके इस जीवन व मृत्यु के बाद क्या होगा? इन सब प्रश्नों के यथार्थ उत्तर देने और लोगों को असत्य मार्ग से हटाकर सत्य पर आरूढ़ करने के लिए ही महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना की थी। आर्यसमाज अन्य संस्थाओं की भांति कोई संस्था नहीं अपितु यह तो एक वेदप्रचार आन्दोलन है। एक ऐसा आन्दोलन जो इतिहास में पहले कभी किसी ने किया नहीं और न आर्यसमाज के अलावा किसी में करने की सामर्थ्य है। यह अविद्या वेदों के अध्ययन, स्वाध्याय व वेदाचार्यों के उपदेश से ही दूर हो सकती है। यही कार्य व इसका प्रचार आर्यसमाज करता है। आर्यसमाज ने अतीत में वेद प्रचार सहित सामाजिक सुधार व देशोन्नति के अनेक कार्य किये हैं। शिक्षा के प्रचार प्रसार में भी आर्यसमाज की अग्रणीय भूमिका है। सभी मत-मतान्तरों की अविद्या से भी आर्यसमाज ने सामान्यजनों को परिचित कराया है। लोगों को सच्ची ईश्वरोपासना एवं अग्निहोत्रादि करना सिखाया है। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जातिवाद वा प्रचलित जन्मना वर्णव्यवस्था, बालविवाह, सतीप्रथा आदि का आर्यसमाज विरोध करता रहा है और इन कार्यों में कहीं आंशिक तो कहीं अधिक सफलता भी आर्यसमाज को मिली है। छुआछूत आदि का भी आर्यसमाज विरोधी रहा है और आर्यसमाज के प्रचार से यह प्रथा भी कमजोर पड़ी है। आर्यसमाज ने आजादी के आन्दोलन में अनेक देशभक्त क्रान्तिकारी नेता व आन्दोलनकारी देश को दिये हैं। पं. श्यामजीकृष्णवर्मा, स्वामी श्रद्धानन्द, भाई परमानन्द, लाला लाजपतराय, पं. रामप्रसाद बिस्मिल व शहीद भगत सिंह आदि ऋषि दयानन्द के साक्षात अनुयायी, शिष्य व उनके परिवारों से ही थे।

 

ऋषि दयानन्द देश को अज्ञान, अविद्या व अन्धविश्वासों से पूर्णतया मुक्त करना चाहते थे। ऐसा होने पर ही यह देश संगठित होकर विश्व की महान अजेय शक्ति बन सकता था। देश की आजादी के बाद देश में जिन नीतियों का अनुसरण किया गया उसके परिणाम से देश दिन प्रतिदिन अविद्या में फंसता जा रहा है और धार्मिक व सामाजिक दृष्टि से कमजोर हो रहा है। आज पहले से कहीं अधिक वेद प्रचार की आवश्यकता है परन्तु आज जिस प्रकार के योग्य प्रचारक विद्वानों व कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है उस कोटि के समर्पित भावना वाले विद्वान, प्रचारक व कार्यकर्ता हमारे पास या तो हैं नहींया बहुत ही कम हैं। वर्तमान में जिससे जितना भी हो सके उसे ऋषि के वेद प्रचार कार्य को तीव्र गति प्रदान करनी है। ईश्वर की कृपा होगी तो वेद प्रचार का कार्य गति पकडे़गा और सफल भी होगा। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के वेद प्रचार के उद्देश्य, अविद्या के नाथ और विद्या की वृद्धि तथा इसके साथ ही सत्य के ग्रहण व असत्य के त्याग का जो आन्दोलन किया था उसे हम जारी रखें और गति प्रदान करें। ईश्वर इस कार्य को सफलता प्रदान करें। ओ३म् शम्।

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,203 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress