यह बहुत दुखद है कि अनेक स्तर से सरकार को परामर्श दिया जा रहा है कि कश्मीर में पत्थरबाजों पर पैलेट गन के स्थान पर अन्य कोई विकल्प ढूंढा जाये । यह सुझाव देने वाले यह क्यों नही कहते की देशद्रोहियों को बचाने वालों के गलो मे फूलों की माला डालों ? क्या विश्व में ऐसा कोई कानून है जो अपराधियों का साथ देने या उनकी रक्षा करने वालों को दोषी नही मानता ? क्या देशद्रोहियों और आतंकियों से राष्ट्र के जान-माल की सुरक्षा करना सरकार का संवैधानिक दायित्व नही ? न्याय की परिधि में क्या यह उचित है कि सुरक्षाकर्मियों पर पत्थरो, पेट्रोल व तेजाब के बमों और अन्य घातक हथियारों से आक्रमण करके आतंकवादियों को सुरक्षित भागने में सहायक युवाओं की भीड़ को भटका हुआ समझ कर निर्दोष माना जाय ?
जबकि यह सर्वविदित ही है कि वर्षो से कश्मीर घाटी में अलगाववादियों व आतंकवादियों द्वारा प्रति लड़के/युवक को 500 से 1500 रुपये तक देकर सुरक्षाबलों पर हमले करवायें जाते आ रहे है। परिणामस्वरूप अनेक सुरक्षाकर्मी मारे भी गये और साथ ही सरकारी संपत्तियों की भी भारी क्षति हुई है। पिछले कुछ वर्षों के अतिरिक्त भी जुलाई 2016 में आतंकी बुरहानवानी के मारे जाने के बाद इन पत्थरबाजों की टोलियों ने कई माह तक विशेषतौर पर दक्षिण कश्मीर में सामान्य जनजीवन को ही बंधक बना दिया था। जिसको नियंत्रित करने के लिए सरकार को वहां कर्फ्यू भी लगाना पड़ा था। बाद में ऐसा प्रतीत हुआ की नोटबंदी के 50 दिन की अवधि ( 9 नवंबर से 31 दिसम्बर) में व जाली मुद्रा पर अंकुश लगने से इन पत्थरबाजों का धंधा कुछ कम हुआ । परंतु ये कट्टरपंथी अपने आकाओं के आदेशों पर पुनः धीरे धीरे अवसर देखकर अपने जिहादी जनून के दुःसाहस का प्रदर्शन करने से बाज नही आ रहें है। अतः ऐसी विपरीत परिस्थितियों में पत्थरबाजों की टोलियों के प्रति कोई सहानभूति करना देशद्रोहियों के दुःसाहस को बढ़ावा ही देगा।