धर्मांतरण क़ानून पर चुप क्यों शकुनि राजनीतिज्ञ?

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सामयिक है कि देश धर्मांतरण पर गांधीजी के विचार पढ़े

यद्दपि मैं व्यक्तिगत रूप से इस देश का हिन्दू होनें के नातें हिंदुत्व के प्रति दबाव और भय में हूँ तथापि आगरा की घटना के बाद गुस्साए हुए तथाकथित विकसित, सेकुलर, बुद्धिजीवी और प्रगतिशील समाज (स्वयंभू) की स्थिति पर मुझे बड़ा आनंद आ रहा है! सांप छछूंदर की गति जो अब इनकी बन पड़ी है उसके विषय में इस दूरदृष्टा गिद्ध समाज ने कभी सोचा भी न था. इनकी दृष्टि में तो भारतीय हिन्दू समाज दिन प्रतिदिन दयनीय स्थिति में और रसातल में जानें वाला एक समाज था जो इनकी दया दृष्टि पर ही जीवित रहनें वाला था! इस भरत भूमि के मूल्यों, आदर्शों, परम्पराओं, मेलों, रथों, मठ, आश्रमों, मंदिरों, ग्रंथों, प्रतीकों, चिन्हों और जन्मभूमि की किसी भी बात को सिरे से नकार देता था ये तथाकथित विकसित समाज!! धर्मांतरण की बात पर भी इस तथाकथित विकसित समाज का आचरण कभी स्पष्ट नहीं रहा! धर्मांतरण हो रहा है होनें दीजिये! इसाई, मुस्लिम समाज के लोग धर्मांतरण करा रहें हैं करानें दीजिये!! सेवा-स्वास्थ्य-शिक्षा के नाम पर, उपहार-नौकरी-नगदी के नाम पर, कन्या अपहरण-दबाव बनाकर, लव जिहाद करके जैसे भी हुआ पर इस देश में हिन्दुओं का ईसाई, मुस्लिम मत में धर्मांतरण खूब हुआ और बहुतायत से बहुधा हुआ है. नहीं हुआ तो उन लोगों का स्वर नहीं फूटा और शब्द नहीं निकलें जिनकें बोल अब सामनें आ रहें हैं! आज आगरा की घटना पर बोलनें वालें जरा अपनी पृष्ठभूमि टटोल ले और इस देश का सुधि समाज भी इनकी नंगी-धड़ंगी राजनैतिक भूमिकाओं और शकुनि चरित्रों को ज़रा समझ ले तो इस देश का आगामी इतिहास कुछ नए तरीके से लिखा जाएगा!!

इन तथाकथित शकुनियों राजनीतिज्ञों नें जिन विधर्मियों को अपना भांजा बना कर पाला पोसा है वो तो दुर्योधन-दू:शासन से भी अधिक कलंकित और कलुषित सोच वाले लोग हैं, वे समय आनें पर ISIS और ओवैसीयों के चक्कर में इन शकुनी मामाओं को भी पानी में घोल के पी जायेंगे.

रही बात आगरा की घटना की या हिन्दू प्रेरित धर्मांतरण की तो ये बात स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि हिन्दू समाज या सनातनी धर्म में धर्मांतरण जैसा कभी कोई शब्द या परम्परा अस्तित्व में नहीं रही. वहीं ईसाई और मुसलमान समाज में धर्मांतरण कराना एक धार्मिक कृत्य के रूप में गिना जाता है. केवल हिंदुत्व धर्मांतरण का समर्थन नहीं करता और केवल इस धर्म में धर्मांतरण के लिये कोई रस्म मौजूद नहीं है यह अकाट्य और तथ्यात्मक बात है. यह स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है कि कोई व्यक्ति हिंदू कब बनता है क्योंकि हिंदुत्व ने कभी भी दूसरे धर्मों को अपने प्रतिद्वंद्वियों के रूप में नहीं देखा. वस्तुतः ‘हिंदू होने के लिये व्यक्ति को हिंदू के रूप में जन्म लेना पड़ता है’ और ‘यदि कोई व्यक्ति हिंदू के रूप में जन्मा है, तो वह सदा के लिये हिंदू ही रहता है.’

उपजी हुई नई परिस्थितियों के खतरे में कुछ दशको से ही धर्मान्तरित हिन्दुओं की घर वापसी की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई है. यह प्रतिक्रियात्मक प्रक्रिया है जो क्षुब्द हिन्दू समाज को परिस्थिति वश अपनानी पड़ी है. धर्मांतरण के दंश से डसने वाले ईसाईयों और मुस्लिमों से उपजा हिन्दू समाज का यह दुःख कोई नया नहीं है, 23,अप्रेल,1931 को यंग इण्डिया में महात्मा गांधी ने लिखा था-

विश्वास करना और उनका सम्मान करना. इसका अर्थ है, सच्ची विनयशीलता… मेरा मानना है कि मानवतावादी कार्य की आड़ में धर्म-परिवर्तन रुग्ण मानसिकता का परिचायक है. यहीं लोगों द्वारा इसका सबसे अधिक विरोध होता है. आखिर धर्म नितांत व्यक्तिगत मामला है. यह हृदय को छूता है.. मैं अपना धर्म इस वजह से क्यों बदलूँ कि ईसाई मत का प्रचार करनेवाले उस डॉक्टर का धर्म ईसाई है, जिसने मेरा इलाज किया है? या डॉक्टर मुझसे यह उम्मीद क्यों रखे कि मैं उससे प्रभावित होकर अपना धर्म बदल लूँगा?

फिर समाचार पत्र “हरिजन” में महात्मा गांधी ने 5नव. 1935 को लिखा-

“यदि मेरे पास शक्ति है तथा मैं इसका प्रयोग कर सकता हूँ तो मुझे धर्म-परिवर्तन को रोकना चाहिए. हिंदू परिवारों में मिशनरी के आगमन का अर्थ वेशभूषा, तौर-तरीके, भाषा, खान-पान में परिवर्तन के कारण परिवार का विघटन है.”

मई, 1935 में एक ईसाई नर्स ने गांधीजी से पूछा था कि क्या आप मतांतरण के लिए मिशनरियों के भारत आगमन पर रोक लगा देना चाहते हैं? इसके जवाब में उन्होंने कहा था, “अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं तो मैं मतांतरण का यह सारा खेल ही बंद करा दूं!!”

फिर 30जन. 1937 के हरिजन में महात्मा गांधी ने लिखा-

“आज भारत में और अन्य कहीं भी धर्मांतरण की शैली के साथ सामंजस्य बिठाना मेरे लिए असंभव है. यह ऐसी गलती होगी, जिससे संभवत: शांति की ओर विश्व की प्रगति में बाधा आएगी. यदि हिंदू भला आदमी है या धर्मपरायण है तो वह इससे संतुष्ट क्यों नहीं हो पाता?”

धर्मांतरण की पीड़ा से आहत महात्मा गांधी ने स्वयं स्वीकार किया था कि अन्य धर्म में धर्मान्तरित हो जानें पर हिन्दू जन प्राय: राष्ट्र के विरोधी और यूरोप के भक्त बन जाते हैं.

गांधीजी ने अपनें बाल्यकाल में ही धर्मांतरण की यह पीड़ा अपनें ह्रदय में अंकित कर ली थी जब वे स्कूलों के बाहर मिशनरियों को हिंदू देवी-देवताओं के लिए अपशब्दों भरें आख्यान सुनतें थे. बहुत अध्ययन के बाद उन्होंने चर्च के मतप्रचार पर प्रश्न खड़ा करते हुए कहा था,”यदि वे पूरी तरह से मानवीय कार्यों और गरीबों की सेवा करने के बजाय डॉक्टरी सहायता, शिक्षा आदि के द्वारा धर्म परिवर्तन करेंगे तो मैं उन्हें निश्चय ही चले जाने को कहूंगा. उन्होंने कहा था कि भारतीय का राष्ट्रधर्म अन्य राष्ट्र्धर्मियों की भांति ही श्रेष्ठतम है. यहाँ प्रचलित मान्यताएं, परम्पराएं और धर्म श्रेष्ठ हैं और हमें किसी अन्य नए धर्म या मत की आवश्यकता कतई नहीं है.

वस्तुतः महात्मा गांधी विवेकानंद के उन शब्दों की आत्मा को पहचान गए थे जो स्वामी विवेकानद ने इस धर्मांतरण के काले नाग के विषय भारतीय समाज को जागृत करते हुए कहे थे कि – ”जब हिंदू समाज का एक सदस्य मतांतरण करता है तो समाज की एक संख्या कम नहीं होती, बल्कि हिंदू समाज का एक शत्रु बढ़ जाता है.”

आज कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों में बैठे दलों को यह तथ्य समझना और गले उतारना होगा कि भारत में योजना-बद्ध तरीके से धर्मांतरण की मुहिम चलाने की रणनीति अपनाई जा रही है. आंकड़े की सुनें तो तथ्य है कि भारत में चार हजार से ज्यादा मिशनरी गुप्र सक्रिय है जो धर्मांतरण की जमीन तैयार कर रहे है. त्रिपुरा में एक प्रतिशत ईसाई आबादी थी जो एक लाख तीस हजार हो गई है. अरुणाचल प्रदेश में 1961 में दो हजार से कम ईसाई थे जो आज बारह लाख हो गये है और कमोबेश ऐसी ही कहानियां देश भर के अन्य क्षेत्रों के सन्दर्भ में भी बनती जा रही हैं. आखिर 1500 वर्षों पूर्व तक सौ प्रतिशत हिन्दू देश आज 65% हिन्दुओं का कैसे हो गया. ये षड्यंत्र और हिन्दुओं को ख़त्म कर देनें कलंकित प्रयास नहीं तो और क्या है!? तथाकथित नैतिकता और मानवाधिकार का फटा ढोल पीटने वाला ईसाई समाज और मोहम्मद पैगम्बर साहब के आदर्शों पर चलनें की कसमें खाने वाले डायर-डलहौजी जैसे वायसराय अंग्रेज, गौरी, गजनी, चंगेज, बाबर जैसे लोगों ने किस नैतिकता का पालन किया था?! हिन्दुस्तान में आक्रान्ता के रूप में आये बाबर के बर्बर नाम दिल्ली की सड़कों का नाम होना आज भी हमें पंद्रहवी शताब्दी में ले जा खड़ा करता है और ऐसे ही कुछ और कारणों को मिलाकर हमारी भारतीय मानसिकता का संकर या विवर्ण विकास हुआ है जो हमें आज हमें धर्मांतरण के विरुद्ध ठोस और कड़ा क़ानून बनानें से रोकता है. समय आ गया है कि जिस धर्मांतरण ने इस शांतिप्रिय और वसुधैव कुटुम्बकम का घोष वाक्य देनें वाले देश को झंझावातों में ला खड़ा किया है उस धर्मांतरण कारी कृत्य की परिभाषाएं, सीमाएं, शैली और वर्ग तय हो जाएँ. सुनिश्चित हो जाए कि भारत का सम्पूर्ण हिन्दू समाज और ख़ास तौर से वंचित और जनजातीय समाज इनकें बहलावे, फुसलाने, शिक्षा-स्वास्थ्य-सेवा, कन्या अपहरण, लव जिहादों जैसे दबावों से मुक्त रहे और भयहीन जीवन जिए.

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