सचिन को क्यूं सूली पे चढ़ा दिया भाई लोगो?

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जगमोहन फुटेला

हमारे दो चार ब्लागरों ने फैन हो जाने का एहसान कर के हर आदमी की निजी जिंदगी में दखलंदाजी का ठेका ले लिया है. वे समझते हैं हर कोई उनकी समझ से चले. जीवन उस का है. मुकाम उसे पाना है. रास्ता ये तय करेंगे. ये समझते हैं कि खेल से ले के व्यापार और राजनीति से ले कर बाज़ार तक की सारी समझ इन्हें है. बाकी सब (?)तिए हैं. सचिन तेंदुलकर के मामले में भी यही हो रहा है.

किस ने कब अधिकार दिया है किसी को भी कि किस के बारे में किस चीज़ का फैसला कौन करे. आप प्रशंसक हैं तो रहिये. लेकिन प्रशंसक भी आप हैं तो किस के हैं? खेल के या सचिन के? खेल के हैं तो सचिन ने क्रिकेट के साथ क्या गुनाह किया है और अगर आप फैन सचिन के हैं तो फिर बने रहिये हर हाल में. अपना तो जो होता है हर हाल में अपना होना चाहिए. अच्छे में, बुरे में. क्यों आप रातों रात अपनी निष्ठां बदल बैठे हैं? क्या सिर्फ इस लिए कि सचिन को राज्यसभा में कांग्रेस ने भेजा? अगर, ‘हां’ तो वे आज बंगारू लक्ष्मण को सजा हो रही भाजपा या बत्तीस दिन तक दर्जनों नक्सलियों को रिहा करने के बाद भी एम.एल.ए. को छुड़ा न सकने वाली बीजेडी के कोटे से जाते तो क्या वो सही होता?…या आप चाहते हैं कि सचिन को राजनीति में जाना ही नहीं चाहिए था. जाना भी था तो राज्यसभा जैसी जगह पे नहीं जाना चाहिये था. पहली बात तो ये है कि राज्यसभा विशुद्ध राजनीति का केंद्र नहीं है. है भी तो मनोनीत सदस्यों के बारे में अवधारणा और सच्चाई अलग है. और वो फिर भी पाने, जाने लायक नहीं है तो बवाल खुशवंत सिंह, अरुण शोरी, नरेन्द्र मोहन और चंदन मित्रा पे क्यों नहीं है, सचिन पे ही क्यों है? पीड़ा अगर ये है कि एक बार सांसद हो गए तो भारत रत्न नहीं हो पायेंगे तो वो भी बेकार की है. पहले क्या नहीं हुए भारत रत्न राजनीति या संसद में आने वाले!

 

 

कोई बताये तो सही कि दिक्कत है क्या? दिक्कत अगर ये है कि सांसद बन तो जाते बेशक वे मगर कांग्रेस के किये से नहीं बनने चाहिए थे तो ये भी व्यावहारिक नहीं है. अपने खेल के तो वे अब चढ़ाव नहीं उतार पे ही हैं. सौ शतक वे कर ही चुके हैं. क्या ज़रूरी हैं कि वे खेलते ही रहे. कौन जानता है कि उनका शरीर, उनका परिवार या कल को उनका कोई बिजनेस उन्हें इसकी इजाज़त देता भी है या नहीं. और क्रिकेट अगर उन्हें देर सबेर छोड़ना ही है तो क्या ज़रूरी है कि वे किसी जगमोहन डालमिया की तरह पहले तो भारतीय क्रिकेट को सातवें आसमान पे ले के जाएँ और फिर खुद अपनी ही बीसीसीआई के किये धरे से कोर्ट कचहरियों के चक्कर काटते फिरें. नहीं करना चाहते वे ये सब. क्या ज़बरदस्ती है? अनिल कुंबले ने भी क्या कर लिया, क्या पाया है क्रिकेट के खेल के बाद क्रिकेट प्रबंधन की सेवा कर के. उनके कर्नाटक क्रिकेट एसोसिएशन का अध्यक्ष होने के बाद भी म्युनिस्पैलिटी वाले उनके स्टेडियम के बाहर कूड़े के ढेर लगा जाते हैं और उन के कहने के बावजूद कोई उन्हें उठवाता नहीं. गांगुली अपनी बंगाल एसोसियेशन में जा कर लौट आते हैं और जिस पंजाब क्रिकेट को उन की वजह से लोग जानते हैं उस भज्जी को आज कोई क्रिकेट की दुनिया में पहचानता नहीं है और युवराज को कुशलक्षेम का एक कार्ड तक नहीं जाता पंजाब क्रिकेट एसोसिएशन से. औरों को छोडो. कपिल भाजी को ही देख लो. आज कहाँ हैं? ज़ी वाले सुभाष गोयल के साथ मिल के क्रिकेट और क्रिकेटरों की दुनिया बदल देने की मेहनत और सपना तो उनका था. बीसीसीआई ने उसे हाइजैक कर उसे ऐसा आई.पी.एल. बनाया कि कपिल आज सिर्फ आजतक चैनल पे क्रिकेट के एक्सपर्ट बन के रह गए हैं.

 

 

आंकड़े साथ देते होते तो लगातार तीन मैचों में शतक से शुरुआत करने वाले अजहरुद्दीन आज सचिन से पहले भारत रत्न नहीं तो पद्म विभूषण होने चाहिए थे, एक पारी में दस की विकटें लेने वाले अनिल कुंबले के नाम पर कब से कोई खेल स्टेडियम और पहली हैट्रिक मारने वाले चेतन शर्मा कम से कम सलेक्शन समिति के सदस्य. वक्त गुज़र जाता है तो वीनू मांकड़, सुभाष गुप्ते और उस मंसूर अली खान पटौदी तक को भूल जाते हैं जिसने पहली बार बल्लेबाजों को शुरू के मेंडेटरी ओवरों में क्लोज़-इन फील्डरों के सर के ऊपर से उछाल कर शाट मारना सिखाया. वो चंद्रशेखर भी आज किसे याद है जो पोलियो से ग्रस्त हाथ से स्पिनर हो के भी बालिंग ओपन करता था और जिसने एक बार ओस भरी पिच पे स्पिन भी स्विंग बालिंग से बेहतर कर ईडन गार्डन में आस्ट्रेलिया के छक्के छुड़ा दिए थे. बुरी सी बुरी स्थिति में कैसी भी पार्टनरशिप तोड़ देने के भरोसे वाले प्रसन्ना को भी थोड़ी बहुत अम्पायरिंग के सिवा क्या दिया है देश ने और क्रिकेट में आत्महत्या की पोजीशन कही जाने वाले फारवर्ड शार्ट स्क्वेयर लेग पे खड़े रह कर सात-सात कैच लपकने वाले एकनाथ सोलकर को क्या?

 

 

क्या ज़रूरी है कि सचिन भी उन सब की तरह इतिहास की परतों में कहीं खो जाते, अपने जीते जी. क्यों उन्हें अब कोई एक ऐसा प्रोफेशन चुनने का हक़ नहीं है जो उन्हें एक्टिव और इन्वालव्ड रखे, भले ही वो राज्यसभा क्यों न हो. क्या ज़रूरी है कि वे वहां पंहुच के कांग्रेस की जयजयकार ही करेंगे. देखो तो सही. और मान लीजिये कि उनके मुंह से निकले कोई शब्द किसी पार्टी को सुहायेंगे भी तो भी क्या ज़रूरी है कि वे हर बात वैसे ही कहें जो किसी को भी करे मगर कांग्रेस को सूट न करती हो?

 

 

भीतर झाँक कर देखिये. दुःख, जिन को भी है, कुछ इस लिए भी है कि दांव उन के हाथ से गया. सोचते हैं कि जो कांग्रेस ने राजीव शुक्लाके ज़रिये कर लिया वो अरुण जेटली के ज़रिये भाजपा क्यों न कर सकी. आज तकलीफ में आये लोगों को लगता है कि आखिरकार एक न एक दिन इस देश में चुनावों और सत्ता का निर्धारण युवाओं के ज़रिये तय होना है और इस देश में आज तो युवाओं के सब से बड़े आइकान कांग्रेस के साथ हैं. वे चुनाव प्रचार करे न करें फायदा तो कांग्रेस को होगा ही. इसी लिए दोस्तों, अब सचिन की वोट अपील कम करने की कोशिश की जायेगी. उन्हें कोसने, नोंचने, बदनाम करने की कोशिश की जायेगी. वो सब किया जाएगा जिस से कि वे कल कांग्रेस के लिए किसी काम के न रहें. हालात ऐसे पैदा कर दिए जायेंगे कि कल खुद सवा सौ करोड़ भारतीयों की मुरादों के मुताबिक़ उन्हें भारत रत्न दे भी दिया गया तो कुछ लोग कहेंगे, अपने बंदे को तो देना ही था. और उस दिन इस देश नहीं इस दुनिया और इस पूरी सदी का एक महानायक भी हमारे लिए गर्व और प्रतिस्पर्धा की बजाय घ्रणित, कुत्सित राजनीति का एक पात्र बन के रह जायेगा. जिस के नाम से हमारा खुद का सर ऊंचा होता हो, हम उसे उस के अपने हिसाब से चलने क्यों नहीं देंगे? क्यों हम इंतज़ार नहीं करेंगे उस दिन का कि जब वो क्रिकेट की तरह इस जिम्मेवारी को भी उतने ही कौशल और गौरव से निभाएगा? पता नहीं क्यों, हमें विष पी लेने वाले शिव को भी भगवान मानते रहने की आदत नहीं है?

1 COMMENT

  1. बड़ा भयंकर दर्द था फुटेला जी को चलो अच्छा हुआ व्यक्त करके थोड़ा हल्के हुए होंगे। वफादारी हो तो ऐसी । साधुवाद
    सादर

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