रोहिंग्या मुसलमानों का विरोध क्यों ….

रोहिंग्या मुस्लिम घुसपैठियों का हर संभव विरोध करना होगा नही तो ये मानवता के नाम पर दानव बन कर बंग्लादेशी घुसपैठियों के समान हमें लूटते रहेंगे और धीरे धीरे हमारे संसाधनों पर अधिकार कर लेगें। धर्म और देश की रक्षार्थ ऐसे घुसपैठियों को जो बसे हुए है उन्हें भी किसी भी स्थिति में अपने देश से बाहर निकालना ही होगा। यह सर्वविदित है कि मुसलमान पहले मुसलमान होता है बाद में कुछ और । वह इस्लाम में बने रहकर उसका पालन करते है जिसका सीधा अर्थ है–कुफ्र के विरुद्ध  युद्ध, विंध्वस और अशांति । वे कुरान को अल्लाह का संदेश/आदेश मानते है इसलिये इसमें उन्हें कोई संशोधन या परिवर्तन स्वीकार नही ? इतिहास साक्षी है कि भारत सहित विश्व के किसी भी राष्ट्र में मुस्लिम आक्रांताओं के वंशजों व मुस्लिम घुसपैठियों ने प्रायः उस संस्कृति को नही अपनाया जहां उनको शरण मिली और मान-सम्मान से सम्पूर्ण मानवीय अधिकारों के साथ जीवन यापन करने की सुविधाये। अतः ये घुसपैठिये जो मानवता की दुहाई दे कर हमारे देश में बसना चाहते है, की मानवता केवल इस्लाम तक ही सीमित रहती है । इनमें से कब कौन जिहाद के लिये अपराध के साथ साथ आतंक का पर्याय बन जाय और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये गंभीर संकट उत्पन्न हो उससे पहले ही इन पर कठोर निर्णय लेना होगा ? हम अभी तक वर्षो से जारी पिछली सरकारों की अदूरदर्शिता और वोट पिपासु दूषित मानसिकता के कारण करोड़ो बंग्लादेशी घुसपैठियों के अत्याचारों और देशद्रोही कार्यकलापों को झेलने का दंश भुगत रहें है। देश में अनेक अवसरों पर पहले ही बंग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों की विभिन्न अपराधों व आतंकवाद में लिप्तता पायी जाती आ रही है। इस पर भी हम मानवतावादी बन कर अन्य मुस्लिम घुसपैठियों को और बसायेंगे तो फिर हम से बड़ा मूर्ख व आत्मघाती कौन होगा ?
आज इन रोहिंग्या मुसलमानों की चिंता में तथाकथित मानवतावादियों व सेक्युलरों को बहुत चिंता सता रही है , जगह जगह आंदोलन व प्रदर्शन हो रहें है। जबकि ईराक़ व सीरिया से इस्लामिक आतंकवाद से पीड़ित 4-5 वर्षों में खदेड़े गए यहूदी, यजीदी व ईसाई आदि लगभग 50 लाख लोगों की सेक्युलर व मानवाधिकारियों ने कभी चिंता नही करी। बल्कि  धनी मुस्लिम राष्ट्रों ने तो ऐसे पीड़ित शरणार्थियों को अपनी भूमि पर शरण देने को ही मना कर दिया था।
क्या समाज के इन बुद्धिजीवियों ने कभी  1947 में पाकिस्तान से जम्मू-कश्मीर में आये दंगा पीड़ित हिन्दू-सिख जो अब लगभग 8 लाख है और 1990 में मज़हब के नाम पर हिंसा फैला कर वहां से उजाड़े गए 5 लाख हिंदुओं के लिये कोई आंदोलन या प्रदर्शन किया था ? क्यों नही कोई मानवतावादी , सेक्युलर व मुसलमान दशको से पीड़ित अपने इन देशवासियों के समर्थन में आवाज उठाता ? क्या उन्हें केवल आतंकवाद में सम्मलित व उस कारण पीड़ित मुसलमान के प्रति ही सहानभूति रहती है ? इतिहास साक्षी है कि जब जब इस्लाम के नाम पर गैरमुस्लिमों पर अत्याचार होते रहे तब तब अधिकांश धर्मनिरपेक्ष व मानवतावादी समाज बिल्कुल शांत बैठा रहता है , परंतु जैसे ही ये कटटरपंथी लूटने-पिटने लगते है वैसे ही इन सब तथाकथित बुद्धिजीवियों के बोल सुनाई देने लग जाते है।
ध्यान रहें कि उपरोक्त रोहिंग्याओं की समस्या की जड़ में एक गंभीर बिंदू यह भी है कि ये मुसलमान म्यांमार में अपनी कुफ्र विरोधी जिहादी मानसिकता के वशीभूत वहां के मूल शांतिप्रिय बौद्ध निवासियों पर वर्षों से आक्रामक बनें हुए थे। जब  2001 में अफगानिस्तान के वामियान में छठी शताब्दी में निर्मित भगवान बुद्ध की विशालकाय मूर्तियों को तालिबानियों ने तोप से उड़ाया था तब वर्मावासी भगवान बुद्ध के अनुयायियों ने वहां की एक प्राचीन मस्जिद को ध्वस्त करके अपना आक्रोश प्रकट किया था।  ऐसी घृणास्पद धर्मांधता से त्रस्त होने पर म्यांमार के एक धार्मिक बौद्ध भिक्षु विराथू ने जिहादियों की इतिहासिक सच्चाई को समझा। उन्होंने पूर्व में बौद्ध व हिन्दू देशों पर हुए इनके अमानवीय अत्याचारों के कारण बढते हुए “इस्लामिक साम्राज्यवादी” जिहादी जनून को भी पहचाना। इन सबसे आक्रोशित होकर अपने देशवासियों व धर्म की रक्षार्थ भिक्षु विराथू ने अपना कर्तव्य निभाते हुए वहां के पीड़ित नागरिकों को इन आततायियों के विरुद्ध संघर्ष के लिये तैयार किया। परिणामस्वरूप “जैसे को तैसा” का अर्थ समझने वालों ने दुर्जन के सामने सज्जनता त्याग कर प्रभावशाली प्रतिकार करके उनको उन्ही की भाषा में समझने को विवश कर दिया।
इन हिंसक रोहिंग्या मुसलमानों के ऊपर कोई पलटवार भी कर सकता है , संभवतः कभी किसी ने ऐसा सोचा भी नही होगा। अतः  अचानक उभरी इन विपरीत परिस्थितियों में अधिकांश मुस्लिम समाज व अनेक मुस्लिम देश असमंजस में है और इन रोहिंग्याओं की रक्षार्थ सक्रिय हो गये है। परंतु जब गैर मुस्लिमो को अपनी जड़ों से उखाड़ा जाता है तब ये सब “जिहाद” की दुहाई देते है और मानवताविरोधी कृत्यों को अपना अधिकार समझते हुए उसे सही ठहराते है। दुनिया को इस्लाम के झंडे के नीचे लाना ही इनका एकमात्र लक्ष्य है। इन जिहादी जनूनियो का यह मानना है कि वे अल्लाह की राह पर अल्लाह के लिये अपनी जान देतें हैं।
आज  इन विकट परिस्थितियों में रोहिंग्या मुसलमानों को भारत में बसाने के लिये सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका डालने वालो की पैरवी करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ताओं की अवैध रुप से रहने वाले रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति मानवीय सहानुभूति होना स्वाभाविक हो सकता है। परंतु क्या इन विद्वान अधिवक्ताओं को घुसपैठियों से राष्ट्र की सुरक्षा पर आने वाले संकट का कोई आभास नही होता ? क्या इनके साथ साथ अन्य बुद्धिजीवी भी इससे अनभिज्ञ है कि इन अवैध नागरिकों के कारण देश के संसाधनों पर बोझ पड़ेगा ? यह भी विचार करना होगा कि ऐसे में अहिंसक देशवासियों को इन हिंसक मानसिकता वाले घुसपैठियों से सुरक्षित रखने की एक और विकट समस्या खड़ी हो जायेगी ? उदार व सहिष्णु समाज की सज्जनता की परीक्षा क्यों और कब तक ली जाती रहेगी ? धार्मिक आधार पर हुए देश के विभाजन के उपरांत पुनः धीरे धीरे हिन्दू-मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात बिगड़ रहा है तो ऐसे में हज़ारों-लाखों रोहिंग्या मुस्लिम घुसपैठियों को बसाना क्या न्यायसंगत होगा ? क्या यह एक प्रकार का सुनियोजित षड्यंत्र तो नही जो हमारी संस्कृति पर  इस्लामिक आक्रांताओं के इतिहास की पुनरावृति के लिये रची जा रही हो ?  यह सुखद है कि हमारी केंद्रीय सरकार सर्वोच्च प्राथमिकता के साथ इन सब परिस्थितियों का आंकलन करके इस चुनौती से निपटने के लिये पूर्णतः कटिबद्ध है।

विनोद कुमार सर्वोदय

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