
(मधुगीति १९०८११ अकासा)
व्यर्थ ही चिन्ता किए क्यों जाते,
छोड़ क्यों उनके लिए ना देते;
करने कुछ उनको क्यों नहीं देते,
समर्पण करके क्यों न ख़ुश होते !
कहाँ हर प्राण सहज गति है रहा,
जटिलता भरा विश्व विचरा किया;
ज़रूरी उनसे योग उसका है,
समर्पित उसको उन्हें करना है !
कार्य जो कर सको उसे कर लो,
शेष सब उनके हवाले कर दो;
उचित विधि उसको लिए जावेंगे,
क्षीण संस्कार करा भेजेंगे !
किए रचना जगत में धाया करो,
सोच ना विचित्रों को लाया करो;
चित्र जो बन रहे बना लो तुम,
इत्र उनको भी कुछ छिड़कने दो !
पाएँगे कर वे कुछ ज्यों छोड़ोगे,
किसी रस और में वे बोरेंगे;
‘मधु’ कुछ छोड़ भी जगत देते,
प्रभु औ प्रकृति द्युति लखे चलते !
✍? गोपाल बघेल ‘मधु’