
(मधुगीति १९०८१० सकारा)
दोषी ना प्राणी कोई जग होता,
सृष्टि परवश है वह पला होता;
कहाँ वश उसके सब रहा होता,
लिया गुण- धर्म परिस्थिति होता !
बोध कब बालपन रहा होता,
खिलाता जो कोई है खा लेता;
बताता जैसा कोई वह करता,
धर्म जो सिखाता वो अपनाता !
विवेक अपना पनप जब जाता,
समझ कुछ तत्व विश्व में पाता;
ज्ञान सापेक्ष जितना हो पाता,
बदल वह स्वयं को है कुछ लेता !
कहाँ सम्भव है बदलना फुरना,
कहाँ आसान है प्रकृति पुनि रचना;
कहाँ जीवन की राह सब मिलता,
कहाँ जाती है ग्लानि सकुचाना !
साधना समर्पण है जब होता,
मुक्ति रस पान प्रचुर जब होता;
‘मधु’ को प्रभु का भान तब होता,
फिर कहाँ भेद दृष्टि रह पाता !
✍? गोपाल बघेल ‘मधु’