‘पत्नी घर का खजाना और पतिकुल की रक्षिका है’

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मनमोहन कुमार आर्य-

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वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है और वेदों को स्वयं पढ़ना व दूसरों को पढ़ाना सब श्रेष्ठ मनुष्यों का परम धर्म है। यह घोषणा महाभारत काल के बाद वेदों के अपूर्व विद्वान महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सप्रमाण की है। वेदों का अध्ययन करने पर इसमें सर्वत्र जीवनोपयगी बहुमूल्य ज्ञान व प्रेरक विचार प्राप्त होते हैं। महर्षि दयानन्द जी ने गुरूकुलीय शिक्षा प्रणाली का समर्थन किया था और इसके लिए उन्होंने विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया। स्वामी दयानन्द जी के अनुयायियों ने उनकी शिक्षाओं के अनुसार गुरूकुल कांगड़ी खोला और इसका अनुकरण कर बाद में बड़ी संख्या में गुरूकुल खोले गये जहां आर्ष संस्कृत व्याकरण सहित प्राचीन वैदिक शास्त्रों व ग्रन्थों का अध्ययन कराया जाता है। गुरूकुल कांगड़ी ने देश व समाज के अनेक वेदों के उच्च कोटि के विद्वान दिये जिन्होंने अपनी प्रतिभा से वेदभाष्य सहित बड़ी संख्या में वैदिक ग्रन्थों का प्रणयन किया जिनमें उत्तम कोटि की ज्ञान सामग्री है जिससे हम लाभान्वित हुए हैं वा अपने जीवन को और उन्नत कर सकते हैं। इस लेख में हम वेद के दो मन्त्रों के गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के स्नातक, वेदोपाध्याय, अथर्ववेद-सामवेद भाष्यकार और अनेक वैदिक ग्रन्थों के लेखक पं. विश्वनाथ विद्यालंकार के लेखों पर आधारित नारी जाति से सम्बन्धित प्रेरक व उच्चता के विचारों को प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

इस लेख में प्रस्तुत दोनों वेद मन्त्र अथर्ववेद के हैं। पहले मन्त्र का शीर्षक पत्नी घर का खजाना है है और दूसरे मन्त्र का पत्नी पतिकुल की रक्षिका है। पहला मन्त्र है-असितस्य ते ब्रह्मणा कश्यपस्य गयस्व च। अन्तःकौशमिव जामयोऽपि नह्यामि ते भगम्।। (अथर्ववेद 1/14/4) इस मन्त्र में जो शब्द आये हैं वह हैं-असितस्य, कश्यपस्य, गयस्य, , ब्रह्मणा, ते, भगम्, अपि, नह्यामि, जामयः, अन्तः, कोशमिव। असित शब्द से मन्त्र में बताया गया है कि परमात्मा बन्धन-रहित है। वह कश्यप है अर्थात् सर्वद्रष्टा है। वह गय है अर्थात् वह सर्वाधार है और प्राणस्वरूप है। ब्रह्म अर्थात् वेद इस परमात्मा का ज्ञान है। यह वर्णन करने के पश्चात पति अपनी पत्नी से कहता है कि परमात्मा के दिये वेद द्वारा मैं तुझ में हे पत्नी ! सौभाग्यों (ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य) को स्थापित करता हूं। तू वेदों को पढ़ा कर और इस विधि से सौभाग्यों को प्राप्त किया कर। वेदाध्ययन से प्राप्त होने वाले सौभाग्य को मनुष्य जीवन का खजाना भी कह सकते हैं। पति कहता है कि तू खजाने की तरह है। खजाने में जैसे उत्तम-उत्तम रत्नों को स्थापित किया जाता है वैसे ही तुझ में मैं वेद के सौभाग्य-रत्नों को स्थापित करता हूं ताकि तू अन्तःकोष की तरह बन जा, घर के अन्दर पड़े खजाने की तरह बन जा। खजाना घर के अन्दर रखा जाता है और उस खजाने में बहुमूल्य रत्न आदि रखे जाते हैं। इसी प्रकार का तू खजाना बन और तुझ में वैदिक सौभाग्य-रत्न विद्यमान रहें। प्रत्येक पत्नी को “अन्तःकोष” की तरह बनना चाहिये। इस के लिए उसे दैनिक स्वाध्याय करना चाहिये, दैनिक वेदपाठ करना चाहिये। ताकि वेद के रत्नों को यह प्राप्त कर सके। इस मन्त्र में सृष्टिकर्त्ता और वेदज्ञानदाता परमात्मा ने मनुष्यों को शिक्षा दी है कि वेदों का पढ़ना सौभाग्य को प्राप्त करना है। वेद विद्या का पर्याय है। शास्त्र कहते हैं कि संसार में ज्ञान से बढ़कर कुछ भी नहीं है। गायत्री मन्त्र ईश्वर से बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थना के कारण ही वेदों का एक श्रेष्ठ मन्त्र है जिसकी तुलना में संसार के धर्म ग्रन्थों इसके समान उत्तम विचार नहीं है। प्राचीन काल और वर्तमान काल में बहुत कुछ बदला है परन्तु ज्ञान की महत्ता प्राचीन काल में भी थी और आज भी है। इसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। अतः सभी को वेदों का नित्यप्रति स्वाध्याय करना चाहिये। यह इस वेद की मुख्य शिक्षा मुख्यतः पत्नी के लिए है, और प्रकारान्तर से सभी मनुष्यों के लिए भी है, जिससे वह अपनी सन्तानों को भी वेदज्ञान से सम्पन्न कर सके। आईये, इस वेदमन्त्र में प्रयुक्त प्रत्येक पद वा शब्दों के अर्थ भी जान लेते हैं-(असितस्य) बन्धनरहित, (कश्यपस्य) सर्वद्रष्टा, तथा (गयस्य ) सर्वाधार या प्राणस्वरूप परमात्मा के (ब्रह्मणा) वेदज्ञान के द्वारा (ते) तुझ में (भगम्) भगों को (अपि नह्यामि) मैं बान्धता हूं, (जामयः) स्त्रियां (अन्तः कोशमिव) अन्दर के खजाने की न्याईं हैं।

 

दूसरा मन्त्र है एषा ते कुलपा राजन् तामु ते परि दद्मसि। ज्योक् पितृष्वासाता शीर्षणः शमोप्यात्।।’ (अथर्ववेद 1/14/3) इस मन्त्र में जो शब्द आये हैं वह हैं-राजन्, एषा, ते, कुलपा, ताम् , ते, परि दद्मसि, ज्योक्, पितृषु, आसाते, , शीर्षणः, शमोप्यात्। मन्त्र में ईश्वर ने शिक्षा दी है कि गृहस्थजीवन में पति राजा है और पत्नी इस कुल की पालना करने वाली राणी है। पत्नी को कुलघ्नी कह कर कुलपा कहा गया है। इस शब्द द्वारा पत्नी का मान बढ़ाया गया है, तथा साथ ही पतिकुल में आकर उस का क्या कर्तव्य होना चाहिये, इस को भी सूचना दी गई है। बिना पत्नी के पतिकुल की रक्षा तथा पालना नहीं हो सकती। साथ ही पत्नी को यह समझना चाहिये कि वह पतिकुल में आकर पतिकुल की रक्षा तथा पालना का बोझ अपने ऊपर लेती है।

 

पतिकुल के पितरों में रहना, उनका साथ निभाना, तथा उनकी सेवाशूश्रूषा करनानववधू का कर्तव्य है। नियत काल तक गृहस्थजीवन व्यतीत कर यदि पत्नी वानप्रस्थ आदि आश्रमों में जाना चाहें तो यह अधिकार भी उसे प्राप्त है। पतिकुल में रहती हुई पत्नी अपने सिर से इस कुलभूमि में शान्ति के बीज बोया करे। सिर से अभिप्राय विचारशक्ति का है। पत्नी अपनी विचारशक्ति से इस कुलभूमि में शान्ति, प्रेम, अनुराग, उदारता, धर्म आदि सद्गुणों के बीज बोए, ताकि ये बीज महावृक्ष होकर गृहस्थ को अपनी छाया द्वारा सुखी रखें।

 

पाठको की सुविधार्थ मन्त्र के शब्द और उनके हिन्दी अर्थ व भाव भी प्रस्तुत हैं। मन्त्रार्थ:- (राजन्) हे पति राजा ! (एषा) यह कन्या (ते) तेरे (कुलपा) कुल की पालना करने वाली है, (ताम् ) उसको (ते) तेरे लिए (परि दद्मसि) हम पूर्णरूप से देते हैं। (ज्योक्) बहुत देर तक (पितृषु) पतिकुल के बुजुर्गों में (आसाते) यह बनी रहे, (शीष्र्णः) और अपनी विचारशक्ति से (शमोप्यात्) शान्ति के बीज बोए।

 

वेदों में हमें नारी जाति के विषय में बहुत ही सम्मानजनक एवं प्रशंसाप्रद वचन पढ़ने को मिलते जो वर्तमान में प्रचलित किसी भी मत-सम्प्रदाय के ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होते जबकि यह विगत 500 से 4000 वर्ष पूर्व अस्तित्व में आये हैं। यह ज्ञान के ह्रास का उदाहरण है न कि विकासवाद का। अतः यहां विकासवाद असफल रहा है। हमें मध्यकाल व बाद से यह पढ़ने व सुनने को मिलता है कि स्त्री शूद्रो नाधीयताम् अर्थात् स्त्री व शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं, नारी नरक का द्वार है, स्त्री और शूद्र यदि वेद पढें तो उनकी जिह्वा काट दी जाये या कानों में रांगा पिघाल कर डाल दिया जाये, लम्बे समय तक स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखा गया, हमारे ही देश में बाल विवाह प्रचलित हुए जिससे न केवल नारी जाति का अपमान हुआ अपितु इन पर एक प्रकार से अकथनीय अत्याचार भी हुए। यही स्थिति विदेशों में उत्पन्न सभी मत-मतान्तरों की हैं। इसके विपरीत वेदों के आधार पर हम रामायण में माता सीता, कौशल्या, कैकेयी व सुमित्रा आदि का जीवन देखते हैं और अन्य सभी महाभारत, मनुस्मृति व उपनिषदादि प्राचीन ग्रन्थों में ऋषिकाओं आदि के बारे में पढ़ते हैं तो हमें वैदिक संस्कृति का गौरव विदित होता है। मनुस्मृति में यह पढ़कर तो हम ऋषियों के प्रति नतमस्तक भाव विभोर हो जाते जब वह घोषणा करते हैं कि जिस देश समाज में नारी का सम्मान होता है वहां देवता निवास करते हैं और जहां नहीं होता वहां के सभी कार्य क्रियायें विफलता को प्राप्त होते हैं। अतः हमने उक्त दो वेदमन्त्रों को एक बानगी के रूप में प्रस्तुत किया है जिससे कि पाठक वेदों के अध्ययन में प्रवृत्त होकर मनुष्य जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष लाभ उठा सकें। हम आशा करते हैं कि पाठकों को यह लेख पसन्द आयेगा जिससे हमारा परिश्रम सार्थक होगा।

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  1. मनमोहनजी,सनातन धर्मियों के शास्त्र के अर्थ का अनर्थ करना एक बुद्धिवादिता ,और धर्मनिरपेक्षता मान लिया गया है. रामायण,उपनिषदपवित्र अपौरषेय वेद और गीता के बारे में अनर्गल लिखना इन झूंठे धर्मनिरपेक्षवादियों का एक शगल है. इनके बाप की हिम्मत होतो यह अन्य धर्मों के धर्मग्रंथों के बारे में अपने विचार व्यक्त करें. आपने जो दर्शाया है ,वह भी एक प्रचलित विचार है,मैंने भी यह पढ़ा था की स्त्रियों और शूद्रों को वेद पढने का अधिकार नहीं है. किन्तु आपने जिन दो श्लोकों का वर्णन किया है वह इस भ्रम को दूर करने का प्रत्यक्ष प्रमाण है.

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