क्‍या गोबर  दोबारा मानव जाति का अन्न और प्राणदाता बन सकेगा ?

आत्माराम यादव पीव

मैं गोबर हॅू, आज अपनी आत्मकथा सुनाना चाहता हॅॅू। मुझ गोबर के पिता का नाम जठरानलानन्द है और श्रीमती सुरभी अर्थात गाय मेरी माता हैं। मेरे जन्मस्थान का नाम लेने से दिन-भर अन्न-जल के दर्शन न होंगे, इसलिए नहीं बताऊँगा। हाँ, मैं इस बात से पूर्णतः आश्वस्त हॅू कि मेरे जन्म स्थान का पता आप सभी जानते है। मैं अपना परिचय देने से पहले गाय का परिचय देना चाहूंगा जिससे मैं पैदा होता हॅू। हिन्दू-शास्त्रों में महादेव जी को वृष और भगवती को गौ-रूप से वर्णन किया गया हैं :-“ज्ञानशक्तिः क्रिया-धेनु देंवीरूपा प्रकीर्तिता ।“ “नीलग्रोवो महादेवः शरण्यो गोपति चिंराट्।।“ “शास्त्रों में लिखा है कि ब्रह्माजी गाय का शरीर बनाने लगे तब उन्होंने सब देवताओं को गाय के शरीर में निवास करने हेतु आमंत्रित किया।सभी देवता खुशी-खुशी आए और सबको गाय के शरीर में अपनी अपनी जगह मिल गयी। इस तरह गाय के रोएॅ-रोएॅ में देवताओं का निवास हो गया। परन्तु इस दौड़ में लक्ष्मी जी एवं गंगाजी पिछड़ गयी और लेट पहुॅची वे अपना श्रृंगार करने के कारण विलम्ब से आयी तब तक गाय का शरीर बन चुका था। अब क्या होगा, दोनों बोली, हम गाय के शरीर में जरूर रहेंगी, हमें स्थान मिलना ही चाहिए। तब ब्रह्माजी ने लक्ष्मीजी को गाय के गोबर में अर्थात मुझमें स्थान दिया और गंगाजी को गोमूत्र में स्थान मिला।
मुझ गोबर की सृष्टि से आप सभी भली भांति परिचित ही है फिर भी आप सभी अपने-अपने ज्ञान-विवेक से मुझ गोबर को गाय का मल कहकर हीन भावना से भर जाते है पर आपके पूर्वजों से मुझे बहुत सम्मान मिला है वे जानते थे कि मैं अस्पृश्यों की योनिम में जन्म लेकर भी गंगाजल की तरह पूज्य और पवित्र हॅू इसलिए वे किसी भी मांगलिक कार्य करने से पहले यज्ञ-मण्डप में सबसे पहले मेरा प्रवेश कराकर मुझसे आच्छादित कराकर पूजा पाठ की शुरुआत करते थे। हिन्दू घराने की बात हो या किसी भी ऋषि-मुनि आश्रम की, सभी जगह मेरी उपस्थिति अनिवार्य एवं आवश्यक रही है, वेद पुराणों-शास्त्रों में या किसी भी शुभ अवसर, शादी विवाह में गोरी-गणेश के रूप में मैं ही तो पूजनीय रहा हॅू। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि: यावद् गो-ब्राह्मणाः सन्ति तावत् पृथ्वी च सुस्थिरा, तस्मात् पृथ्वी-रक्षणार्थ पूजयेत् द्विज-गो-सतीः।“ अर्थात- ’जबतक गौ और ब्राह्मण अवस्थित हैं, तब तक ही पृथ्वी थिर भाव से अवस्थित रह सकती है। इसलिये पृथ्वी के रक्षणार्थ द्विज, गौ और सती स्त्री पूज्य है। यानी जब तक धरा है, गाय है मुझ गोबर में लक्ष्मी का वास होने के कारण मैं सदैव पूजनीय रहने वाला हॅॅू।

गोबर गनेश की पूजा मुझे वैसे ही नहीं मिली जब मुझ गोबर में लक्ष्मी का वास हुआ तब से मैं इस  धरा पर उत्पन्न होने वाली सभी प्रकार की औषधियों का सार बन गया हॅू एवं मेरा रस पाकर वनस्पतियों लहराने लगती है, सच मायने में मानव जाति को अन्न एवं औषधियों का प्रदाता मैं गोबर ही हॅू जो उनका प्राणदाता भी हॅू  किन्तु जिन्होंने मुझे सम्मान दिया वे लोग आज नहीं है, उनकी पीढ़ी के ये लोग मुझ गोबर को विस्मरण कर हेय समझकर अपने प्रारब्ध पर ताला लगा चुके है, पर मैं आज भी उनकी प्रतीक्षा कर रहा हॅू कि वे अगर मझ गोबर को पूर्ववत अपना ले तो मैं इनके भाग्योदय को चरमा पर पहुॅचा सकता हॅू। यही नहीं जो लोग मुझे दुर्गन्धयुक्त समझते है उन्हें बता दॅू कि पतंजलि संस्थान चलाने वाले दुर्गन्धों को दूर करने के लिए मुझ गोबर का प्रयोग कर साबुन,क्रीम, आदि बनाकर आप सभी की मलिनता एवं चर्म रोगों का नाश कर रहे है। वे जानते है कि संसार के सभी भयंकर कीटाणुओं को, मनुष्यों की महामारी को चुटकी में समाप्त करने के लिए मेरा किस प्रकार प्रयोग किया जाता है, वे प्रयोग कर अपनी विलासिता के किले तैयार कर रहे है। धर्मशास्त्र और आयुर्वेद मुझ गोबर की महिमा से भरे है। महात्मा गांधी ने मेरी महिमा का वर्णन इस प्रकार किया कि-“गोबर का उपयोग अधिकतर उपल्लो (कण्डों) के लिए किया जाता है। इसमें जरा भी शक नहीं कि गोबर का यह दुरुपयोग नहीं, तो कम-से-कम उपयोग अवश्य है। यह तो ताँत के लिए भैंस मारने के समान है। अगर एक उपले की कीमत एक पाई होती, तो गोबर का पूरा उपयोग करने से एक उपले के बराबर गोबर की कीमत कम-से-कम दस- गुनी अधिक होती है। आज अगर हम इससे होनेवाली अप्रत्यक्ष हानि का ही अन्दाज लगाव तो वह इतनी अधिक होगी कि उसकी कीमत आँकना ही मुश्किल होगा। गोबर का पूरा-पूरा सदुपयोग तो उसकी खाद बनाने में ही है। कृषिशास्त्र के जानकारों का मत है कि गोबर के जला डालने से ही हमारे खेतों की ताकत घटी है। बिना खाद के खेत और बिना घी के लड्डू में कोई फर्क नहीं होता, दोनों शुष्क होते हैं। गोबर की खाद के मुकाबले रासायनिक खाद कहीं घटिया होती है।

मुझ गोबर का विवाह पृथ्वी की पुत्री उर्वरा से हुआ है, जब तक मेरी पत्नी के साथ मुझे लोक खुलकर न मिलने देंगे तब तक मेरे  श्राप से दरिद्रता में ही रहेंगे। धरती समझती है और जानती है कि मै। रसीला, हॅू और रससे भरा होने पर अपना रस केवल धरा की उर्वरा को ही समर्पित कर सकता हॅू । मुझ गोबर का प्रयोग कर आप मेरी एक बून्द रस के लिए तरस जाओंगे और मैं तुम्हारे कितने भी प्रयास से बून्द नहीं टपकाऊॅगा। हॉ आप मुझ ताजे गरमागरम गोबर के शरीर पर बारीक कपड़ा रखकर मुझे निचोडं सकते हो। पहले के आयुर्वेदाचार्य मेरे रस से रतोंधी की दवा बनाकर दृष्टिमान्य गोमय तैल बनाने में मेरा उपयोग करते थे और चर्म रोग का मरिचादितैल बिना मुझ गोबर के रस से नहीं बनता था। यही नहीं मुझ गोबर से अशुद्ध रहने पर शरीर में होने वाले खाज खुजलियॉ , भगन्दर, बबासीर आदि की औषधि भी मुझसे बनाकर मेरे सारे गुणों का इस्तेमाल कर कई वैध मुझ गोबर की बदौलत ही नाम और शौहरत पा चुके है। मुझ गोबर पर आयुर्वेद में, अर्थववेद आदि अनेक स्थानों पर बहुत कुछ लिखा गया है जिसमें मेरे गुणों को पढ़कर आप आश्चर्यचकित रह जाएगे,और अगर आप मुझ गोबर पर शोधपूर्वक प्रायोगिक उपचार की शुरूआत कर दें तों देश के अधिकांश अस्पताल मरीजों को तरस जाएगें।

मैं आपको अपनी आत्मकथा में वे सारे तथ्य नहीं रख सकता जिसे आप जानते नहीं। हो इतना अवश्य है कि जैसा कि मैंने कहा मेरी पत्नी पृथ्वी की पुत्री उर्वरा है, तो मैं उर्वरा की उचित देखभाल कर सकता हॅू। उर्वरा हर खेत की मिट्टी में है, मैं चाहता हॅू कि हर खेत की मिट्टी में मुझ गोबर का प्रयोग कर मेरे प्रभाव का और मेरे औषधीय रसों का रसास्वादन कराया जाए। जिस प्रकार मिट्टी पर मेरा प्रभाव है उसी प्रकार धातुओं पर भी मेरा प्रभाव है जिसमें स्वर्ण पर्पटी संग्रहणी रोग की सर्वोत्तम औषधि है वह मेरी ही बेदी पर बनाई जाती है इसके अलावा पंचामृत पर्पटी भी बिना मुझ गोबर के नहीं करती है। जब मैं शुष्क हो जाता हॅू तब भी मेरा उपयोग कम नहीं होता और लोकपचार में लगा मुझ सूखे गोबर को लोग कंडे या उपले नाम लेकर स्वयं के लिए स्वादिष्ट दाल-बाटी बनाने के काम में लेते है।

मुझ गोबर से बने कण्डों का बड़ा महत्व है। कण्डों का प्रयोग हर पूजापाठ में, हवनवेदी में, हवनकुण्ड में आहूति देने के लिए किया जाता है। देश के अधिकांश गॉवो-शहरों में आज भी मुझसे बने कण्डों-उपलों के बिना चूल्हा ठण्डा पड़ा रहता है। धातुओं को गर्म कर उपयोगी बनाए जाने के लिए कण्डे ही काम आते है बिजली की आग अथवा अन्य रासायनिक मेरे सामने चित्त पड़े रहते है। मुझ कण्डों का प्रयोग सदियों से आज भी बुजुर्ग लोग थकान होने पर अपने तलुओं में रगड़वाकर थकानमुक्त होते है। जब प्राणान्त हो जाता है तब मुझ कण्डों को मृतक के परिजन अपने घर पर हांडी में सुलगाकर मृतक के सिरहाने रखकर श्मशान घाट तक की यात्रा के पश्चात मृतक देह के साथ जलाया जाता है। लकडी के विकल्‍प के रूप में लोग अब मुझ गोबर की गोकास्‍ट बनाकर देहाग्नि देने लगे है तो आज भी अनेक स्‍थानों पर गोकास्‍ट का प्रयोग होलिका दहन में कर पेडों की बचत की जाती है। किसी भी प्रकार के योगी हो, ध्‍यानी हो, तांत्रिक हो, मान्त्रिक हो सभी अपने अनुष्‍ठानों में मुझ गोबर के उपलों का प्रयोग कर आहूतियॉ देकर सिद्धियॉ प्राप्‍त करते है,अगर मुझ गोबर के उपले न हो तो इनकी किसी प्रकार की वैदिक शुद्धि न हो और ये सिद्धि से वंचित रह जाए। मैं गोबर कब  तक आपको अपने गुणगान सुनाऊॅ अब सुनाने में झिझक आने लगी, कहीं तुम इंसान ये न समझ बैठे की मैं भी यश प्राप्ति की पंक्ति में हॅू, नहीं ऐसा नहीं मेरी उपयोगिता को आप सभी जानते समझते है, और समय पर मुझ गोबर का उपयोग करने से नहीं चूकते हो।

अंत में मैं  गोबर स्वयं अपनी बात समाप्त करने से पहले हर भारतवासी को मुझ गोबर गणेश की शपथ देना चाहूंगा कि कि आप सभी मेरी जननी माँ सुरभि गाय की महादशा से परिचित हो, किस प्रकार आप अपनी खुली आंखों से गोवंश को कत्लखाने में मिटते देख रहे है, यदि गोमाता की रक्षा नहीं की गयी तब सोचिए आप अपने घर के मांगलिक कार्यो, पूजा अनुष्ठानों में गाय का गोबर न मिलने पर क्या करेंगे ? जरूरत जागने की है, जागिए गोमाता की रक्षा और गोधन के सदुपयोग के लिए खड़े हो जाईए और भारत को पुनः गोधन से समृद्ध कर अपनी पूजनीया गोमाता से प्राप्त होने वाले मुझ गोबर को अपनी पत्नी पृथ्वीपुत्री उर्वराभूमि से मिलन कराईए ताकि मैं मानवजाति के सच्चे अन्नदाता और प्राणदाता होने के अपने सारे कर्तव्यों का निर्वहनकर कर देश में स्वास्थ्य, संपदा से परिपूर्ण कर सकॅू।

आत्माराम यादव पीव

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