श्रद्धांजलि – विनोद खन्ना
ओंकारेश्वर पांडेय
आपके साथ गुजारे पल हम कभी नहीं भूलेंगे विनोद जी। याद है न आपको विनोद जी, सहारा टेलीविजन के लिए करगिल के शहीदों पर बने एक सीरिज की एंकरिंग आपने की थी। ग्रीन रूम में मेरा सफेद शर्ट आपको पसंद आ गया और आपने मुझसे उतरवा लिया था।और आप उसे पहनकर चले भी गये थे। उस शर्ट के साथ मेरा दिल भी तो ले गये थे आप। आपको याद है न विनोद जी? और अभी हाल ही में जब आप लोकसभा टीवी के सीईओ का साक्षात्कार लेने इंटरव्यू बोर्ड के चेयरमैन के रूप में आये थे, तो आपने मुझे पहचान भी लिया और उसी सरलता से मुस्कुराये भी। जैसे आप कभी अपने घर पर मिलने पर मुस्कुराते थे। तब तो बिल्कुल स्वस्थ दिख रहे थे आप। फिर अचानक क्या हो गया विनोद जी?
विनोद खन्ना एक ऐसे कलाकार थे, जो विलेन बनकर आए, लेकिन खुरदुरे खलनायकत्व की परिभाषा बदल दे। विनोद खन्ना एक ऐसे अभिनेता थे, जो अभिनय के कई शेड्स साथ लेकर चलते थे। विनोद खन्ना एक ऐसे नायक थे,, जो महानायक बनने की राह बीच में अचानक छोड़ महज इसलिए किसी दूसरी गली में चला जाए कि किसी प्रिय के जाने के कारण टूटा हुआ महसूस कर रहा हो। विनोद खन्ना एक ऐसे अभिनेता थे, जो अभिनय के इंटरवल के बाद उसी धार के साथ लौटे।
विनोद खन्ना के माता-पिता का नाम कमला और किशनचंद खन्ना था। उनका परिवार उनके जन्म के अगले साल १९४७ में हुए भारत-पाक विभाजन के बाद पेशावर से मुंबई आ गया था। किसी अन्य बड़े कलाकार की तरह वे कोई पैदाइशी अभिनेता नहीं थे। एक व्यापारिक परिवार में जन्में विनोद खन्ना स्कूल के मंच पर एक नाटक में जबरन क्या उतारे गए, उनके अंदर पड़े अभिनय के बीज ने एक नायक ही पैदा कर दिया। इस स्कूली नाटक के बाद बोर्डिंग के दिनों में उन्होंने फिल्म मुगल-ए-आजम देखी, तो फिल्मों में काम करने का भूत सवार हो गया। विनोद खन्ना के पिता नहीं चाहते थे कि उनका बेटा फिल्मों में जाए, लेकिन अंत में विनोद की ज़िद के आगे उनके पिता झुक गए और उन्होंने विनोद को दो साल का समय दिया। विनोद ने इन दो सालों में मेहनत कर फिल्म इंडस्ट्री में जगह बना ली। टेक्सटाइल, डाई और केमिकल का बिजनेस करने वाले पिता से आखिर दो साल की समय-सीमा में कुछ कर दिखाने की शर्त पर इजाजत मिली, और विनोद ही थे कि शर्त तय समय में पूरी कर डाली। सन १९६० के बाद की उनकी स्कूली शिक्षा नासिक के एक बोर्डिग स्कूल में हुई वहीं उन्होंने सिद्धेहम कॉलेज से वाणिज्य में स्नातक किया था।
विनोद खन्ना के फ़िल्मी सफर की शुरूआत फिल्म “मन का मीत” से हुई, जिसमें उन्होंने एक खलनायक का अभिनय किया था। उनको सुनील दत्त ने साल 1968 में फिल्म ‘मन का मीत’ में विलेन के रूप में लॉन्च किया था। दरअसल यह फिल्म सुनील दत्त ने अपने भाई को बतौर हीरो लॉन्च करने के लिए बनाई थी। वह तो पीछे रह गए, लेकिन विनोद ने फिल्म से अपनी अच्छी पहचान बना ली। इसके बाद कई फिल्मों में सहायक और खलनायक के उल्लेखनीय किरदार निभाने के बाद १९७१ में उनकी एकल हीरो वाली पहली फिल्म हम तुम और वो आयी। विनोद खन्ना ने अपनी पहली ही मुलाकात में सुनील दत्त से मन का मीत (1968) में विलेन का रोल हथिया लिया था और एक अनाड़ी जंगली जानवर बदतमीज दीवाना जैसे सदाबहार गाने के साथ हर दिल पर छा गए थे। फिर आन मिलो सजना, पूरब और पश्चिम, सच्चा-झूठा से होते हुए गुलजार निर्देशित मेरे अपने में नायक के रूप में दिखाई दिए। यह विनोद ही थे, जो बाद में एंट्री लेकर भी मल्टीस्टारर फिल्मों में अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, सुनील दत्त के साथ खड़े होने के बावजूद अलग दिखाई देते रहे। हेराफेरी, खून पसीना, अमर अकबर एंथोनी, मुकद्दर का सिकंदर ऐसी ही ब्लॉक बस्टर फिल्में हैं।
वे जब मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में आए, तब मदन पुरी, अनवर हुसैन जैसे खुरदुरे चेहरे वाली खलनायकी का दौर था। इन खुरदुरे खलनायकों के बीच ‘सुपरस्टार खलनायक’ बन चुके इस अभिनेता में नायक बनने की बेचैनी के बीच गुलजार की मेरे अपने निर्णायक साबित हुई। गुलजार, मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा की पसंद बनना भी विनोद खन्ना के लिए आसान नहीं था, लेकिन विनोद सबकी पसंद बने।
सफलता के इसी शिखर पर विनोद ने 1982 में एक ऐसा फैसला लिया, जो पूरी इंडस्ट्री में हड़कंप मचा गया। मां की मौत से टूट गए और करियर के पीक पर होने के बावजूद शांति की तलाश में ओशो की शरण पहुंच स्वामी विनोद भारती बन गए। विनोद वहां से लौटे, पर पुराना स्टारडम फिर न पा सके। 1987 में इंसाफ के साथ हुई यह वापसी कुर्बानी व दयावान जैसी सफल फिल्मों के बावजूद बहुत आगे न जा सकी।
कुछ वर्ष के फिल्मी संन्यास, जिसके दौरान वे आचार्य रजनीश के अनुयायी बन गए थे, के बाद उन्होंने अपनी दूसरी फिल्मी पारी भी सफलतापूर्वक खेली और २०१७ तक फिल्मों में सक्रिय रहे।
विनोद खन्ना अभिनेता से राजनेता बनने वाले सितारों में शामिल थे। हिंदी फिल्मों के कम ही अभिनेता हैं, जो राजनीति में भी सफल रहे। सुनील दत्त के बाद विनोद खन्ना को भी अपवाद माना जाता है। वह भाजपा में रहते हुए वर्ष १९९७ और १९९९ में वे बार पंजाब के गुरदासपुर से दो बार सांसद चुने गए और केंद्र में मंत्री भी बने। २००२ में वे संस्कृति और पर्यटन के केन्द्रीय मंत्री रहे। विनोद खन्ना अपनी संवेदनशीलता के कारण जनता में अपनी पैठ के लिए भी जाने गए। इसके बाद सिर्फ ६ माह पश्चात ही उनको अति महत्वपूर्ण विदेश मामलों के मंत्रालय में राज्य मंत्री बना दिया गया था।
विनोद खन्ना का जन्म 6 अक्तूबर 1946 को अविभाजित भारत के पेशावर (अब पाकिस्तान) में हुआ था। लम्बे समय से कैंसर से पीड़ित रहने की वजह से 27 अप्रैल 2017 को हिन्दी फ़िल्मों के दमदार और काफी लोकप्रिय अभिनेता का निधन मुम्बई के एच एन रिलायंस अस्पताल में हो गया।
हमेशा मुस्कुराते रहने वाले विनोद खन्ना की बीमारी की खबर जब आयी तो सहसा विश्वास नहीं हुआ। मुझे वो विनोद खन्ना याद आने लगे,जिसे हमने उनके दिल्ली स्थित सांसद के सरकारी निवास पर देखा था। सदैव मुस्कुराते जब वे सीधे सादे कपड़े में हमारे सामने आकर बैठे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वे इतने बड़े अभिनेता हैं। बड़ी सहजता और सरलता से वे बताते रहे कि किस तरह अपने संसदीय क्षेत्र के लोगों का ब्लॉकवार लिस्ट बनाकर उनकी समस्याएं दूर करने में लगे हैं। उनके कम्प्यूटर पर उनके संसदीय क्षेत्र के हर गली मोहल्ले का पूरा विवरण मोजूद था और आगे का प्लान भी कि कब कहां कौन सा काम कराना है।
विनोद खन्ना दिखावा नहीं करते थे, काम करते थे। ऐसे विनोद खन्ना की जब कृशकाय तस्वीर वायरल हुई, तो मन में बड़ी पीड़ा हुई। सिनेमा में तो जीत हमेशा नायक की ही होती है, पर असल जीवन में सिनेमा की स्क्रिप्ट नहीं चलती। 140 फिल्में करने वाले विनोद खन्ना ने बीते गुरुवार को आखिरी शॉट दिया। अपनी स्टाइल से। लेकिन जीत फिर भी इसी नायक की हो गयी। विनोद खन्ना जीवित रहेंगे, अपने लाखों दर्शकों-दीवानों और मुझ जैसे मामूली प्रशंसकों के दिलों में भी।
विनोद खन्ना के तीन पुत्र और एक पुत्री है, जिसमें अक्षय खन्ना और राहुल खन्ना दोनों फ़िल्म अभिनेता हैं।
नमन विनोद जी। श्रद्धांजलि नहीं दूंगा। आंसू आ जाएंगे। आप तो हमेशा हमारे दिलों में रहेंगे विनोद जी। मेरा शर्ट लौटाने आएंगे न विनोद जी?