क्या उदयपुर अधिवेशन कांग्रेस में फूंक पाएगा जान!

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उबाऊ व आसानी से सेट होने वाले नेताओं को दिखाना होगा कांग्रेस को बाहर का रास्ता!

लिमटी खरे

देश में आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस जिसके बारे में नब्बे के दशक तक यह कहा जाता था कि दक्षिण और पश्चिम बंगाल के अलावा पूरे देश में कांग्रेस का शासन है, पिछले दो दशकों से राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान और जगह बनाने के लिए जद्दोजहद करती नजर आ रही है। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को घेरकर बैठे लोगों के द्वारा जमीनी हकीकत से शीर्ष नेताओं को दूर रखकर आंकड़ों की बाजीगरी में उन्हें उलझाए रखा जाता है। कांग्रेस में जान फूंकने के लिए ठोस सुझाव देने के बजाए इन नेताओं के द्वारा नेतृत्व को उहापोह की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया जाता है।

कांग्रेस में जिस तरह नेताओं को बयानबाजी के लिए स्वतंत्र छोड़ रखा गया है उससे कांग्रेस की छवि बहुत ज्यादा खराब होने के मार्ग ही प्रशस्त होते हैं। जिस नेता का जो मन होता है वह अपने विचार ट्वीट कर देता है, जो चाहे बयान दे देता है। जबकि दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी में इस मामले में बहुत कड़क अनुशासन नजर आता है। भाजपा के नेता हर मामले में बयान देने से बचते ही नजर आते हैं।

हाल ही में राजस्थान के उदयपुर में संपन्न नवसंकल्प चिंतन शिविर में इस बात पर चिंतन नहीं किया गया कि दो दशकों में कांग्रेस के रसातल में जाने की मुख्य वजहें क्या रही हैं। देखा जाए तो अनेक मामलों में मंथन और उसके बाद लिए गए फैसलों को लागू करने में जमीन आसमान का अंतर साफ दिखाई देता है। कांग्रेस नेतृत्व के निर्देशों का पालन भी कांग्रेस के सांसद या विधायक करते नहीं दिखते। कुछ साल पहले कांग्रेस अध्यक्ष ने आपदा के दौरान प्रधानमंत्री राहत कोष में सांसदों और विधायकों से एक एक माह का वेतन जमा करने के निर्देश दिए थे, किन्तु कितनों ने जमा किए इस बारे में सुध शायद ही किसी ने ली हो।

कांग्रेस देश की सबसे पुरानी सियासी पार्टी है, इस पार्टी ने अब तक देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री और राज्यों में मुख्यमंत्री दिए हैं। इसके बावजदू भी कांग्रेस आज जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रही है जो विचारणीय प्रश्न माना जा सकता है। कांग्रेस को भविष्य की रणनीति तो बनाना चाहिए किन्तु अपने दामन में गौरवशाली इतिहास समेटने वाली कांग्रेस को यह विचार भी करना चाहिए कि आखिर कांग्रेस की सीट केंद्र और राज्यों में कम कैसे हो गईं। क्षेत्रीय क्षत्रपों के द्वारा अपने अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में ही कांग्रेस को विजय नहीं दिलाई और वे आज राष्ट्रीय और सूबाई सियासत के सिरमौर बने बैठे हैं।

चिंतन शिविर को लेकर जितनी भी खबरें और बातें सामने आईं हैं उससे ऐसा तो कतई प्रतीत नहीं हो रहा है कि कांग्रेस आने वाले समय में बचाव के बजाए आक्रमक शैली में काम करने वाली है। कांग्रेस को जरूरत है नए तेवर और क्लेवर की। हां इस शिविर के बाद यह जरूर लग रहा है कि पार्टी के जर्जर हो रहे ढांचे को नया स्वरूप देने का प्रयास किया जा रहा है। कांग्रेस में उमरदराज लोगों को जिम्मेदार पद दिए जाने पर सदा ही आवाज बुलंद होती रही है, इस मामले में भी अब तक नेतृत्व का स्पष्ट रूख सामने नहीं आया है। पार्टी के द्वारा अगर वरिष्ठ और युवाओं को मिलाकर सलाहकार समिति बनाई जाती है तो युवाओं की बात कौन सुनेगा! वरिष्ठ अपनी राग अलापेंगे और मामला अंत में ढाक के तीन पात ही निकलकर सामने आ सकता है।

सोनिया गांधी के द्वारा गांधी जयंति के अवसर पर काश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत जोड़ो यात्रा की घोषणा की है। हो सकता है कि यह आईडिया लालकृष्ण आड़वाणी की रथ यात्रा से निकलकर सामने आया हो, जिसके बाद भाजपा का वर्चस्व एकाएक देश भर में बढ़ गया था। समापन सत्र में कांग्रेस के यूथ आईकान राहुल गांधी ने बहुत ही साफगोई से यह बात स्वीकार की है कि आम लोगों को पार्टी से जुड़ाव अब टूट चुका है, इसे फिर से स्थापित करने के लिए पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं को जनता के बीच जाना ही पड़ेगा, इसके अलावा पार्टी को अब संवाद के अपने तौर तरीकों में भी बदलाव करना होगा।

पार्टी ने एक परिवार से एक से अधिक टिकिट नहीं देने की बात कही तो है पर उसमें पांच साल काम करने की बाध्यता भी रख दी है। पार्टी ने एक व्यक्ति को पांच साल से ज्यादा उस पद पर नहीं रहने के साथ ही आधे टिकिट 50 साल से कम आयुवर्ग के लोगों को देने का नियम बनाया है। सवाल यही है कि जो संकल्प पारित हुए हैं उन संकल्पों को अमली जामा कौन पहनाएगा!

देखा जाए तो कांग्रेस के अलावा अन्य राष्ट्रीय दल नब्बे के दशक के बाद ही रफ्तार पकड़ सके हैं, और कांग्रेस इसी के बाद ढलान पर चल पड़ी। जिस नेहरू गांधी के नाम पर कांग्रेस सदा ही सत्ता पर काबिज होती आई थी उसी नेहरू गांधी के नाम को कांग्रेस के शासनकाल में ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय के द्वारा पाठ्यक्रमों से हाशिए पर लाना आरंभ कर दिया था। दरअसल, आठवीं कक्षा से बारहवीं कक्षा तक के पाठ्यक्रमों में आप जो पढ़ते हैं वही बात आपके मतदाता बनते बनते दिल दिमाग में घर करती रहती है। यही कारण है कि भाजपा के द्वारा पाठ्यक्रमों में बदलाव की कवायद की जाने लगी है।

कांग्रेस को अगर अपनी खोई पहचान वापस पाना है, राष्ट्रीय स्तर पर जगह बनाना है तो कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को सबसे पहले अपनी किचिन कैबनेट को बदलना होगा, इसके साथ ही उबाऊ, लोगों के बीच जिन नेताओं की छवि ठीक नहीं है, जिन नेताओं की छवि लोगों के बीच आसानी से सेट हो जाने वालों की है, उन्हें जनता के सामने लाने से परहेज करना होगा। इसके साथ ही युवाओं को आगे लाकर जिलाध्यक्षों के मनोनयन के बजाए उनके चुनाव करवाए जाएं ताकि जिनके पैरों के नीचे जमीन है वे नेता ही कांग्रेस का जिला स्तर पर नेतृत्व कर सकें। कांग्रेस को अपने प्रवक्ताओं को बाकायदा प्रशिक्षण देने की आवश्यता है। आज भी जिला स्तर के प्रवक्ताओं के द्वारा जारी विज्ञप्तियां अधिकांश मीडिया संस्थानों में स्थान नहीं पा पाती हैं। कांग्रेस को अपनी आईटी सेल को प्रशिक्षित करना होगा। इस तरह के बहुत सारे मसले हैं जिन पर कांग्रेस को अपने मंथन शिविर के एजेंडे में शामिल करना चाहिए था, क्योंकि जिला स्तर पर अगर कांग्रेस मजबूत होगी तो अपने आप उस प्रदेश और देश में कांग्रेस को मजबूत होने से कोई रोक नहीं सकेगा . . .

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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