विविधा

बाबरी पर पटेल ने मस्जिद का साथ दिया था

-के. विक्रम राव

एक हकीकत थी 1947 के इतिहास की। इस्लामी पाकिस्तान के बनते ही यदि खण्डित भारत एक हिन्दु राष्ट्र घोषित हो जाता, तो उन्माद के उस दौर में शायद ही कोई उसका सबल विरोध कर पाता। मगर सरदार वल्लभभाई झवेरदास पटेल ने इसका पुरजोर प्रतिरोध किया। सांप्रदायिक जुनून को रोका। भारत पंथनिरपेक्ष रहा। गतमाह अयोध्या विवाद पर हाईकोर्ट के निर्णय के अनुमोदन में कांग्रेसी सांसद राशिद अल्वी ने एक गंभीर बात कही। उनका आकलन था कि भारत को धर्मप्रधान गणराज्य बनने से रोकने की हिम्मत एक भी मुसलमान तब न कर पाता। अल्वी ने बताया कि रातोंरात अपनी छत पर से मुस्लिम लीगियों ने चान्दसितारे वाला हरा परचम उतार लिया था और तिरंगा फहरा दिया था। अल्वी की राय थी कि हिन्दुओं के रहनुमाओं की हमें कद्र करनी चाहिए कि उन सब ने पाकिस्तानियों जैसी जिद नहीं ठानी।

आजादी के ठीक दो महीने दस दिन पूर्व (5 जून 1947) बी.एम.बिड़ला ने सरदार पटेल को लिखा था : ”क्या अब सोचने का यह समय नहीं आ गया है कि भारत को हिन्दु राज्य तथा राज्यधर्म के रूप में हिन्दुत्व पर विचार करें?” (सरदार पटेल : मुसलमान और शरणार्थी”, स्व.पी.एन. चोपड़ा और डा.प्रभा चोपड़ा, प्रभात प्रकाशन, : 2006)। पढ़कर सरदार पटेल आक्रोशित हुए और जवाब में लिखा, ”मैं यह नहीं सोचता कि हिन्दुस्तान के राजधर्म के रूप में हिन्दुत्व और एक हिन्दुवादी देश जैसा देखना संभव होगा। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे भी अन्य अल्पसंख्यक वर्ग हैं जिनकी रक्षा हमारी प्रमुख जिम्मेदारी है। जाति अथवा धर्म पर ध्यान दिए बिना, देश या राज्य का अस्तित्व सभी के लिए होना चाहिए।” यूँ तो अपने फैसले (30 सितम्बर 2010) में न्यायमूर्ति सिग्बतुल्लाह खान ने रामलला को गुम्बद तले विराजमान कराने को वैध ठहराया, मगर गृहमंत्री सरदार पटेल ने दिसम्बर 1949 में रामलला के विग्रहों को बाबरी मस्जिद में अचानक रख दिये जाने पर उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त को सख्त पत्र (9 जनवरी 1950) लिखा था : ”यह घटना सेक्युलर भारत में अप्रिय आशंका को बलवती बनाएगी।” पटेल ने पन्त से कारगर कदम उठाने हेतु निर्देश दिये थे। यह दीगर बात है कि छह दशकों बाद रामलला विराजमान को अपना जन्मस्थान कानूनन मिल गया है।

फिर भी जब जवाहरलाल नेहरू की सेक्युलर सोच से तुलना के समय लोग सरदार पटेल की मुस्लिम-विरोधी छवि विरूपित् करते है तो इतिहास-बोध से अपनी अनभिज्ञता वे दर्शाते हैं, अथवा सोचसमझकर अपनी दृष्टि एेंची करते हैं। स्वभावत: पटेल में किसानमार्का अक्खड़पन था। बेबाकी उनकी फितरत रही। लखनऊ की एक आम सभा (6 जनवरी 1948) में पटेल ने कहा था, ”भारतीय मुसलमानों को सोचना होगा कि अब वे दो घोडों पर सवारी नहीं कर सकते।” इसे भारत में रह गये मुसलमानों ने हिन्दुओं द्वारा ऐलाने जंग कहा था। पटेल की इस उक्ति की भौगोलिक पृष्टभूमि रही थी। अवध के अधिकांश मुसलमान जिन्ना के पाकिस्तानी आन्दोलन के हरावल दस्ते में रहे। उनके पुरोधा थे चौधरी खलिकुज्जमां। मुसलमानों की बाबत पटेल के कड़वे मगर स्पष्टवादी उद्गार का अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि अनन्य गांधीवादी होने के बावजूद वे सियासत तथा मजहब के घालमेल के कट्टर विरोधी थे। उनके निधन के दो वर्ष बाद से भारत में संसदीय तथा विधान मंडलीय प्रत्यक्ष मतदान प्रणाली शुरू हुई थी। तभी से सोच पर वोट का असर हो चला था। अत: जवाहरलाल नेहरू के लिए तुष्टिकरण एक चुनावी विवशता तथा सियासी अपरिहार्यता बन गई थी।

मुसलमानों के प्रति अनुराग, उनकी खैरख्वाही सरदार पटेल में 1931 से ही बढ़ी थी, जब वे राष्ट्रीय कांग्रेस के कराची अधिवेशन के लिए सभापति निर्वाचित हुए थे। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में पटेल ने संकल्प किया था कि स्वाधीन भारत कं संविधान का आधार समस्त समुदायों की समता पर होगा। हर अल्पसंख्यक के लिए कानूनी सुरक्षायें समाहित होंगी। सीमान्त गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान, जिन्हें पटेल आदर्श मुसलमान मानते थे, ने पटेल की घोषणा की प्रशंसा की थी। पटेल ने सार्वजनिक मंच से तब कहा कि वे कोरे कागज पर अपनी स्वीकृति लिख देंगे कि जो भी कानूनी गारन्टी आजाद हिन्द में मुसलमान चाहते हैं, उन्हें कांग्रेस सरकार पूरा करेगी।

पटेल को हिन्दूपरस्त करार देनेवाले विभाजन के वक्त दंगाग्रस्त दिल्ली में गृहमंत्री पटेल की भूमिका का खासकर उल्लेख करते हैं। तब पटेल से बढ़कर शायद ही कोई मुसलमानों की हिफाजत का इतना बड़ा अलमबरदार रहा हो। दिल्ली के प्रथम चीफ कमिश्नर के पद पर पटेल ने मुसलमान प्रशासनिक अधिकारी को नियुक्त किया। उच्च न्यायालय (मद्रास) में बशीर अहमद को भेजा हालांकि प्रधान न्यायाधीश कानिया ने इसका विरोध किया था। उन्हीं दिनों उमरी बैंक को हिन्दू दंगाइयों ने लूटने की कोशिश की। इसमें अधिकतर मुसलिम जमाकर्ताओं की पूँजी लगी थी। पटेल ने विशेष टुकड़ी तैनात की थी। बैंक बचा रहा। मुसलमानों का एक विशाल जत्था भारत छोड़कर पंजाब सीमा पार कर पाकिस्तान जा रहा था। अमृतसर में सिक्खों ने उन्हें घेर लिया। भारत का गृहमंत्री अमृतसर खुद गया। सिक्खों को मनाया। सभी पाक शरणार्थी वाघा सीमा पार चले गये। अजमेर दरगाह हर आस्थावान का पूज्य रहा। चौबीस वर्षों बाद (1923 में) 20 दिसम्बर 1947 को दंगे भड़के। महावीर सेना के आक्रमणकारियों ने विस्फोट कर डाला। पटेल ने सशस्त्र बल भेजा। दरगाह बच गई, मगर पुलिस की गोली से 55 दंगाई मारे गए और 87 घायल हो गये।

मुसलमानों से हार्दिक सरोकार रखनेवाले पटेल का नायाब उदाहरण मिलता है जब 30 जनवरी 1948 को सूचना व प्रसारण मंत्री के नाते पटेल ने आकाशवाणी से बार-बार घोषणा कराई की बापू का हत्यारा हिन्दु था। पुण्ो का चित्पावन विप्र नाथूराम गोड्से हिन्दु महासभा का सक्रिय सदस्य था। हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग की महती भूमिका रही महात्मा गांधी पर आक्रामता में। यदि पटेल हिन्दू हत्यारे का नाम घोषित न कराते, तो मुसलमानों की वही दुर्दशा होती जो इन्दिरा गांधी की सरदार बेअन्त सिंह द्वारा हत्या (31 अक्टूबर 1984) के बाद सिख समुदाय की हुई। प्रचार कुछ दंगाइयों ने कर भी दिया था कि गांधी का हत्यारा इस्लाम मतावलम्बी था।

बड़ा विवाद बनाते है लोग कि सरदार पटेल उर्दू के विरोधी थे। दास्तावेजी प्रमाण हैं कि सरदार पटेल ने आकाशवाणी पर बजाय हिन्दी के उर्दूमिश्रित हिन्दूस्तानी को प्रसारण का माध्यम बनवाया। सुलतानों द्वारा सात सदियों तक शासित गुजरात के वासी सरदार पटेल अपने बोलचाल मे उर्दू अलफाज प्रयुक्त करते थे। मसलन प्रात:काल को वे फजल कहते थे। अहिन्दीभाषी का उच्चारण भी चाशनीभरा होता है।

गणतंत्रीय संविधान की निर्मात्री समिति में अल्पसंख्यक उपसमिति के सरदार पटेल अध्यक्ष थे। उन्होंने अंग्रेजी राज के समय लागू हुए पृथक मुस्लिम मतदान क्षेत्र प्रणाली को चालू रखने का सुझाव दिया था। हालांकि मुस्लिम अलगावाद तथा पाकिस्तान की मांग को इसी चुनाव पध्दति ने ताकतवर बनाया था। मगर मौलाना अबुल कलाम आजाद तथा अन्य मुस्लिम सांसदों ने विरोध किया तो पटेल ने समान मतदाता क्षेत्र की व्यवस्था को स्वीकारा। अपने शैक्षणिक संस्थानों का प्रबंधन, उर्दू की अलग लिपि तथा पहचान, अल्पसंख्यकों के हितार्थ कानूनी सुरक्षा के प्रावधान आदि पर पटेल बड़े उदार रहे। लेकिन संविधान की धारा 25 में उपासना की आजादी तथा समान सिविल संहिता पर मुसलमानों के पक्ष में निर्णय कर सरदार पटेल ने नवस्वाधीन भारत के सेक्युलर ढांचे को कमजोर बनाया। हर भारतीय नागरिक को उपासना का मूलाधिकार तो दिया गया था, मगर पटेल ने उसमें ”प्रचार” (प्रापेगेट) करने का शब्द जोड़ कर हिन्दू हित को हानि पहुंचाई। राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन और कन्हैयालाल मुंशी ने आशंका जताई थी कि इससे मतान्तरण के जद्दोजहद को बल मिलेगा। पटेल के इस तथाकथित पंथनिरपेक्ष कदम का खामियाजा हिन्दु आज भुगत रहे हैं, क्योंकि बौद्ध और मुसलमान तो धर्मान्तरण करा लेते है। बस सनातनी लोग सीमित रह जाते हैं। असहाय और मजलूमों का मतान्तरण बेरोकटोक हो रहा है।