सत्ता के विकेंद्रीकरण में महिला शक्ति

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जावेद अनीस

महिला दिवस के नाम पर हम महिला सशक्तिकरण की चाहें जितनी भी बातें कर लें, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी हमारा समाज महिलाओं को बराबरी का हक़ देने तैयार नहीं है। आजादी के बाद महिलाओं की समानता और उनकी सभी स्तरों पर भागीदारी पर जोर दिया गया है लेकिन इस दिशा में हम अभी भी बहुत पीछे हैं। विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी जेंडर गैप इंडेक्स 2020 में भारत को कुल 153 देशों की सूची में 112 वें स्थान पर रखा गया है जोकि पिछले वर्ष के सूचकांक के मुकाबले चार पायदान नीचे है। यह आंकड़ा इस बात की तरफ इंगित करता है कि राजनीति से लेकर घर तक सभी मंचों पर महिलाओं को समान भागीदारी उपलब्ध कराने में हम नाकाम रहे हैं। हमारे देश के राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बहुत ही कम है. तमाम प्रयासों और दबाओं के बावजूद संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण विधेयक पारित नहीं हो सका है। वर्ष 2010 में भारतीय संसद के उच्च सदन द्वारा सभी संसदीय और विधानसभा क्षेत्रों का एक-तिहाई हिस्सा महिलाओं के लिए आरक्षित संबंधी संवैधानिक संशोधन पारित किया गया था। लेकिन इस विधेयक का संसद और राज्यों की विधानसभाओं के द्वारा पारित होना अभी भी बाकी है।

सत्ता के विकेंद्रीकरण और समावेशी विकास के बीच गहरा संबंध है। समावेशी विकास का मुख्य उद्देश्य नागरिकों में यह एहसास लाना है कि एक नागरिक के तौर पर उनके जेंडर, जाति, धर्म या निवास स्थान के साथ किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना नीति निर्धारण की प्रक्रिया में सभी की भागेदारी महत्वपूर्ण है। सत्ता के विकेंद्रीकरण की दिशा में पंचायत पहली सीढ़ी है, पंचायती राज व्यवस्था को सुदृढ़ करने तथा पंचायतों में महिलाओं की एक तिहाई भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से 1992 में 73 वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम पारित किया गया जिसके तहत पंचायत, पंचायत समिति एवं जिला परिषद् में एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित किए गए। इससे देश भर में लाखों महिलाएं नेतृत्व के लिए आगे आयीं और इसी के चलते स्थानीय स्वशासन में कम से कम एक तिहाई महिलाओं का स्थान सुनिश्चित हो सका है।  मध्यप्रदेश, कर्नाटक, ओडिशा जैसे कई राज्यों में तो पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गयी हैं। इस सम्बन्ध में पिछले साल लोकसभा केंद्रीय पंचायती राज मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि ‘केंद्र सरकार पूरे देश की पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण करने पर विचार कर रही है।

73 वें संवैधानिक संशोधन के एक दशक पूरे होने को हैं। यह संशोधन सत्ता के विकेंद्रीकरण विशेषकर महिलाओं के सशक्त भागीदारी की दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ है। पंचायतों में महिलाओं के एक तिहाई आरक्षण से उन्हें गांव के विकास में समान भागीदारी का अवसर मिला है। इसी के चलते आज स्थानीय स्वशासन में महिलाओं का प्रतिनिधित्व के मामले में भारत पूरी दुनिया में शीर्ष पर है। वर्तमान में देश की पंचायती राज संस्थाओं में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की कुल संख्या 13 लाख 67 हजार 594 है। देश भर की पंचायतों के कुल जनप्रतिनिधियों में से करीब 46 फीसदी महिलाएं हैं। मध्य प्रदेश में पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित है जिसकी वजह से प्रदेश के स्थानीय निकायों में महिलाओं की 50 प्रतिशत भागीदारी सुनिश्चित हो गयी है। यहां के जमीनी अनुभव बताते हैं कि महिलाओं ने अपनी भागीदारी और इरादों से पंचायतों में न सिर्फ विकास के काम किये हैं बल्कि विकास की इस प्रक्रिया में उन्होंने गरीब-वंचित समुदायों को जोड़ने का काम भी किया है। इस दौरान उनका सशक्तिकरण तो हुआ ही है, साथ ही उन्होंने सदियों से चले आ रहे भ्रम को भी तोड़ा है कि महिलायें पुरुषों के मुकाबले कमतर होती हैं और वे पुरुषों द्वारा किये जाने वाले कामों को नहीं कर सकती हैं। अनुभव बताते हैं कि पंचायत स्तर पर निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधि वित्तीय और राजनीतिक विकेन्द्रिकरण पर जोर देती हैं साथ ही अपने गांव व समुदाय के आधारगत जरूरतों को पूरा करने में काफी सक्रियता दिखाती है।

मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले के ग्राम पंचायत पिपरिया की आदिवासी महिला सरपंच श्रीमती ओमवती कोल के हिम्मत की दास्तान अपने आप में एक मिसाल है। ओमवती कोल निरक्षर हैं। वंचित समुदाय की होने के कारण वह शुरू से ही गांव के बाहुबलियों के निशाने पर थीं। उनपर तरह तरह से दबाव डालने, डराने, धमकाने का प्रयास किया गया लेकिन उन्होंने दबंगों का रबर स्टाम्प बनने से साफ इनकार कर दिया और अपने बल पर ग्राम में स्वच्छता को लेकर उल्लेखनीय काम करते हुए गांव को न केवल खुले में शौच से मुक्त करवाने का प्रयास किया बल्कि उन्हें शासन से सहायता प्राप्त करके सस्ते और टिकाऊ शौचालय बनवाने के लिए प्रेरित भी किया। उन्होंने शासन द्वारा प्रदत्त आर्थिक सहायता एवं तकनीकी जानकारी की मदद से गांव की सड़कें बनवायीं। उनके अथक प्रयास का परिणाम है कि शासन द्वारा उनके गावं को निर्मल ग्राम घोषित किया जा चुका है। इसी प्रकार से सतना जिले की उपसरपंच बैसनिया दीदी बताती हैं कि शुरुआत में जब वह चुनाव जीत कर आयीं थी तब ज्यादा कुछ नही जानती थीं, पंचायत की बैठकों में पीछे बैठी रहती थीं, बाद में एक स्वयंसेवी संस्था के साथ जुड़ने के बाद उन्हें अपने अधिकार और जिम्मेदारियों के बारे में जानकारी हुई जिसके बाद वे अपनी भूमिका को पूरे आत्मविश्वास के साथ निभाने में सक्षम हो गयीं।

लेकिन तमाम उपलब्धियों के बावजूद समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच और सामाजिक ढांचे महिलाओं की भागीदारी में बाधक बने हुये हैं। पंचायत स्तर पर निर्वाचित महिलाओं को जेण्डर आधारित भेदभाव, जातिगत गतिशीलता, निम्न साक्षरता दर जैसी पारम्परिक और दमनात्मक सामाजिक संरचनाओं का सामना करना पड़ रहा है। शोधकर्ता सोलेदाद आर्टिज ने भारत के मध्यप्रदेश में महिलाओं के राजनीतिक भागीदारी को लेकर किये गये अपने शोध  में पाया है कि महिलाओं के राजनीतिक भागीदारी में सबसे बड़ी रूकावट महिलाओं के घर के बाहर निकलने और उनके सामुदायिक संस्थाओं के साथ जुड़ाव पर नियंत्रण का होना है। निश्चित रूप से 73 वां संवैधानिक संशोधन महिलाओं के सशक्त भागीदारी की दिशा में एक बड़ा कदम साबित हुआ है।  तमाम चुनौतियों के बावजूद अभी तक प्राप्त उपलब्धियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। लेकिन अभी भी महिलाओं के राजनीती में भागीदारी का सफर बहुत लम्बा है। इस दिशा में और ज्यादा प्रयास करने की जरूरत है साथ ही यह भी समझाना होगा कि यह एक प्रक्रिया है जो चरणों में ही पूरा होगा। अगर महिलाएं जीतकर राजनीतिक सत्ता हासिल कर लेती हैं तो यह जरूरी नहीं है कि वे अलग तरह की राजनीति करेंगीं या इससे एक ही झटके में राजनीती में में सुधार हो जायेगा। यह एक अलग प्रक्रिया है जिसके लिये अलग तरह से प्रयास करने की जरूरत होगी। (चरखा फीचर्स)

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