कब तक रहेंगी ये सिसकियां…

-लक्ष्मी जायसवाल-
gang-rape

आज हमारा समाज काफी उन्नति कर रहा है। विश्व मंच पर भारत की सशक्त उपस्थिति हमारे उन्नत और विकासशील होने का प्रमाण दे रही हैं। हमारे देश में भी लड़कियां पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं। ये सब बातें पढ़-सुन कर मन बहुत खुश हो जाता है लगता है जैसे अब हमारे देश की आधी आबादी के हाथ मजबूत हैं। लेकिन जैसे किसी महिला के साथ हुए अत्याचार या बलात्कार की खबर पढ़ती हूं उपरोक्त सारी बातें किसी परी कथा जैसी लगने लगती हैं जिनका सच्चाई से कोई वास्ता नहीं है।

उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में दो चचेरी बहनों के बलात्कार के बाद उन्हें फांसी पर लटकाने की घटना ने साबित कर दिया है कि हमारे देश में परिस्थितियां अभी बदली नहीं हैं। हालांकि दामिनी और गुड़िया के साथ हुई घटनाओं के बाद देश में बदलाव की उम्मीद जरूर की जा रही थी लेकिन उसके बाद विभिन्न क्षेत्रों में कई बालिग व नाबालिग लड़कियों के साथ हुई घटनाओं और बदायूं की इस घटना ने साफ़ कर दिया है कि हमारे देश में हालात अभी इतनी जल्दी नहीं बदलने वाले। हम अभी अपनी बहन-बेटियों को सर उठाकर सम्मान के साथ जीने का अधिकार नहीं देना चाहते। अभी हमारे देश की नारी शक्ति को यूं ही पुरुष के वर्चस्व के आगे अपना अस्तित्व कुर्बान करते चले जाना है। महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचारों पर अगर एक नजर डालें तो हमें उसमें सबसे दुखद पहलू ये दिखाई देता है कि उन पर हो रहे अत्याचारों के लिए बाहर वाले कम और उनके अपने कहे जाने वाले लोग ज्यादा जिम्मेदार हैं। आज एक बेटी अपने पिता, चाचा या पिता तुल्य अन्य किसी रिश्तेदार के संरक्षण में सुरक्षित नहीं। एक बहन के विश्वास को उसके भाई कहलाने वाले लोग लगातार चोट पहुंचा रहे हैं। और तो और अगर हम बात करें घरेलू हिंसा की तो एक स्त्री जो अपना परिवार, अपनी पहचान और अपने सपने छोड़ कर जिस पति की पहचान को अपना कर सारा जीवन उसके नाम कर देती है तो वो पत्नी भी घर की चहारदीवारी में सुरक्षित नहीं है। हम पाने आसपास नजरें दौड़ाएं तो हमारे आधुनिक समाज में कई घर ऐसे मिल जायेंगे जहां महिलाएं बिना किसी जुर्म के अपने पति की मार खाने को विवश हैं। उनका दोष है तो सिर्फ इतना कि उनके पतियों को शराब पीकर अपने झूठे अहं को साबित करने की बीमारी है। कभी अपने बच्चों की ममता में तो कभी माता-पिता की इज्जत के लिए पति के लाख अत्याचार सहते हुए भी पत्नी इस बंधन में बंधी रहने को विवश है। क्योंकि शादी के बाद हमारे समाज में बेटियां परायी जो हो जाती हैं। चाहे पति कितने ही अत्याचार करे पर शादी के बाद उसका घर छोड़ना गुनाह है और ऐसा गुनाह करने वाली स्त्रियों को तो अपने माता-पिता के घर में भी पनाह नहीं मिलती। वे भी समाज के डर से बेटियों को समझा- बुझा कर वापस पति के अत्याचार सहने के लिए भेज देते हैं। कुछ महिलाएं जो अपने पति और माता-पिता दोनों का घर छोड़ स्वतंत्र जीवनयापन करने की सोचती भी हैं तो उन्हें हम में से ही कई लोग चैन से जीने नहीं देते।

कुछ इस तरह के हालात बलात्कार पीड़ितों के भी हैं। इस तरह की अनहोनी होने के बाद आज भी कई लोग दोषियों को सजा दिलवाने से डरते हैं। अपने मान-सम्मान की खातिर स्वयं मां-बाप अपनी बेटी के सम्मान से खिलवाड़ करने वालों को आज़ाद छोड़ देते हैं किसी और की बेटी के साथ खिलवाड़ करने के लिए। आखिर इसमें पीड़ित लड़की का क्या दोष होता है जो उसे पर्दों में रखा जाता है। हर पल उसे ये एहसास कराया जाता है कि जैसे उसने ही कोई गुनाह किया हो। बलात्कारी तो एक बार सम्मान छीनता है पर हमारा समाज और लड़की का परिवार हर पल उसके सम्मान पर आघात करते हैं।

इन सब घटनाओं को देखकर मन उचट जाता है और मैं खुद से ही पूछती हूं कि कब तक हमारे देश की आधी आबादी यूं ही सिसकती रहेगी, कब तक अपने साथ हो रहे खिलवाड़ों को यूं ही सहेगी ? समाज के ये कैसे बंधन हैं, जो औरतों को जानवरों से भी बदतर जिंदगी जीने को मजबूर कर देते हैं। आखिर कब हमारे देश में महिलाओं को भी फैसले लेने और सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने का अधिकार मिलेगा? शायद तब तक जब तक औरत ही औरत की दुश्मन बनी रहेगी। क्योंकि आधी आबादी के साथ हो रहे अत्याचारों के लिए पुरुष से ज्यादा महिलाएं स्वयं दोषी हैं। वे दोषी हैं क्योंकि वे सब कुछ चुपचाप सह रही हैं, वे दोषी हैं क्योंकि महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार में उसकी साथी बनने की बजाय महिला ही उसकी आवाज को दबाने में अहम भूमिका निभाती है। इन सबके साथ-साथ जब तक समाज व कानून महिलाओं के प्रति अपने उत्तरदायित्व को नहीं समझेगा, तब तक उनकी नियति में अत्याचार सहना ही लिखा रहेगा।

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  1. इन सबके साथ-साथ जब तक समाज व कानून महिलाओं के प्रति अपने उत्तरदायित्व को नहीं समझेगा, तब तक उनकी नियति में अत्याचार सहना ही लिखा रहेगा।
    please delete matter after this line. it was mistakely sent.

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