महिला आरक्षण और पंचायती राज

भारतीय लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था का मूल आधार पंचायती राज व्यवस्था ही है। सभ्य समाज की स्थापना के बाद मानव ने समूह में रहना सीखा और उसकी चेतना में धीरेधीरे बदलाव आता गया। इस बदलाव के साथ पंचायती राज के आदर्श एवं मूल उनकी चेतना में होते आये है। इसी व्यवस्था को विविध कालों में अलगअलग नामों से जाना जाता रहा है। कभी वे गणराज्य कहलाए तो कभी नगर प्रशासन व्यवस्था में एक दूजे में एक साथ रहने, मिलजुल कर करर्य करने तथा अपनी वर्तमान समस्याओं को अपने आप में सुलझाने का विचार निरन्तर समयानुसार बदलता गया है।

संविधान परिषद के अध्यक्ष डां राजेन्द्र प्रसाद ने 10 मई 1948 को यह विचार व्यक्त किया कि “संविधान का ढांचा ग्राम पंचायतों तथा अप्रत्यक्ष चुनाव पद्धति के अनुसार खड़ी की गयी मंजिलों पर आधरित होना चाहिए, परंतु यह भी कहा गया कि अब इस चुनाव के अनुसार संपूर्ण संविधान को संशोधित करने का यही अवसर है।’’ 22 नवम्बर 1948 को के. संन्थनाम का एक संशोधन डां बाबा साहब अंबेडकर द्वारा स्वीकृत होकर अनुच्छेद 40 के रूप में सम्लित किया गया। इस अनुच्छेद के अनुसार “राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए अग्रसर होगा तथा उनको ऐसी शक्तियां तथा अधिकार प्रदान करेगा; जो उनकी स्वयत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक होगा।’’

महात्मा गांधी ने स्वतंत्र भारत में एक सशक्त पंचायती राज व्यवस्था का सपना देखा था, जिसमें शासन के कार्य की प्रथम इकाई पंचायते ही होगीं। गांधी जी की कल्पना पंचायतों की शासन व्यवस्था की केन्द्र होने के साथ ही आत्मनिर्भर, पूर्णतया, स्वायत्त एवं स्वावलंबी होने की थी। भारत स्वतंत्र होने से लेकर आज तक पंचायत की कल्पना को साकार करने का प्रयास निरन्तर चलता रहा है। कभी ग्रामीण विकास के नाम पर जो कभी सामुदायिक विकास योजना के माध्यम से पंचायत को लोकतंत्र का मूल आधार मजबूत बनाने के लिए किया जाता रहा है, जिससे पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना एवं आम जनता के हाथ में सीधे अधिकार देने का आरभ भारतीय संविधान के माध्यम से संभव हो पाया है। संविधान में वर्णित पंचायती राज व्यवस्था ने सभी को सामाजिक समानता, न्याय, आर्थिक विकास एवं व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर आधारित ग्रामीण जीवन को नया रूप देने का एक सामूहिक प्रयास है। इसी संदर्भ में पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी ब़ाने का शासन द्वारा समय समय पर निरन्तर प्रयास चलता रहा है।

सर्वविदित है कि आज भारत में पंचायती राज व्यवस्था विद्यमान है उसका श्रेय बलवंत राय मेहता को जाता है। जिनकी अध्यक्षता में ॔सामुदायिक विकास कार्यक्रम एवं राष्टीय विस्तार सेवा’’ का अध्ययन दल द्वारा की गई संतुस्मियों के आधार पर 2 अक्टूबर 1959 को पंचायती राज व्यवस्था का श्रीगणेश हुआ। बलवंत राय मेहता समिति का प्रतिवेदन पंचायती राज प्रणाली के क्षेत्र में सर्वाधिक मह्रत्व का रहा है, क्योंकि मेहता प्रतिवेदन जो आधारभूत सिद्यांत एवं संस्थाओं का स्वरूप निश्चित किया गया था, जिसका परित्याग अभी तक नही किया गया हैं। 73 वें संविधान संशोधन के बाद स्थापित पंचायती राज का स्वरूप सामान्यतः उन्हीं आधारभूत सिद्यांतों पर आधारित है जिन्हें मेंहता समिति ने दिया था। इन सिद्यांतों के आधार पर भरत के विविध राज्यों में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का गठन स्वरूप में थोड़े बहुत अंतर के साथ 73 वें संविधान संशोधन के अनुसार स्थापना की गई है। इस त्रिस्तरीय संरचना के स्परूपानुसार स्थापना की गई है। जिसमें चयनित पदाधिकारी एवं नौकरशाह/ शासकीय अधिकारी व कर्मचारियों के माध्यम से कार्यक्रमों का नियोजन, कि्रयान्वयन एवं मूल्यांकन किया जाता है।

1.ग्रामस्तर ग्राम सभा व पंचायत सरपंच, उपसरपंच एवं पंचायत सचिव

2.खण्डस्तर पंचायत समिति प्रधान/ अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, विकास खंड अधिकारी/ मुख्य कार्यकारी अधिकारी,

3.जिलास्तर जिला परिषद जिलाअध्यक्ष, उपजिला अध्यक्ष, मुख्य कार्यपालन अधिकारी, अधिकारी व अन्य कर्मचारी वर्ग।

आरक्षण और महिलाएं :

आरक्षण आदिकालीन शब्द है , जो दो शब्द अ़रक्षण से मिलकर बनाता हैं, जिसका अर्थ है किसी अधिकार को आरक्षित करना या सुरक्षित करने की व्यवस्था करना। वर्तमान समय में आरक्षण की व्यापकता लगभग सभी क्षेत्रों देखी जा सकती है। चाहे किसी यात्रा, नौकरी, सिनेमा हाल की बात हो या किसी अयोजन क्यों न हो सभी में आरक्षण की व्यापकता अपने पैर फैला रही है।

बलवंत राय मेहता समिति से लेकर 73वां संविधान तक विभिन्न समितियों के माध्यम से इन पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं की सहभागिता के बारे में कई उतारच़ाव देखने को मिलता है। पंचायती राज योजना से संबंधित मेहता समिति ने अपना प्रतिवेदन नवम्बर 1957 में प्रस्तुत किया। इस समिति ने महिलाओं व बच्चो से संबंधित कार्यक्रमों कि्रयान्वयन को देखने के लिए जिला परिषद मे दो महिलाओं के समावेश की अनुशंसा की थी। “भारत में महिलाओं की स्थिति’’ विषय पर अध्ययन करने के लिए गठित समिति ने 1974 में अनुसंशा की थी कि ऐसे पंचायतें बनाई जाय, जिसमें केवल महिलाएं ही हो। 1978 में अशोक मेहता की अध्यक्षता में गठित समिति द्वारा अनुसंशा की गई कि जिन दो महिलाओं को सर्वाधिक मत प्रापत हो उसे जिला परिषद का सदस्य बनाया जाए। कर्नाटक पंचायत अधिनियम में महिलाओं के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया था। वैसा ही हिमाचल प्रदेश के पंचायत अधिनियम में व्यवस्था थी। “नॅश्नल पर्सपेक्टिव प्लान फॉर द विमेन 1988’’ ने ग्राम पंचायत से लेकर जिला परिषद तक 30 प्रतिशत सीटों के आरक्षण की अनुशंसा की। मध्यप्रदेश में 1990 के पंचायत अधिनियम में ग्राम पंचायत में महिलाओं के लिए 20 प्रतिशतद्व जनपद व जिला पंचायत में 10 प्रतिशत का प्रावधान था। महाराष्ट पंचायत अधिनियम में 30 प्रतिशत एवं उड़ीसा पंचायत अधिनियम में 1/3 आरक्षण का प्रावधान 73 वां संविधान संशोधन से पूर्व ही था। पंचायती राज संस्थाओं को सकारात्मक संवैधानिक दर्जा देने के उद्देश्य से 1989 में 64 वां संविधान संशोधन विधेयक संसद के संमुख प्रस्तुत किया गया, लेकिन राजनीतिक कारणों से यह संशोधन विधेयक पारित नहीं हो सका।

लगभग चार दशक पूर्व स्थापित पंचायती राज व्यवस्था डगमगाने लगी तो इसी संशोधन ने उसे पुनः संबल प्रदान किया। पी. व्ही. नरसिंहाराव सरकार ने राजीव गांधी सरकार द्वारा तैयार पंचायती राज संस्थाओं से संबधित विधेयक को संशोधित कर दिसंबर 1992 में 73 वां संविधान संशोधन के रूप में संसद से पारित करवाया। यह 73वां संविधान संशोधन 24 अप्रैल 1993 से लागू किया गया। इस संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग अध्याय 9 जोड़ा गया है। अध्याय 9 द्वारा संविधान में 16 अनुच्छेद और एक ग्यारहवीं अनुसूची जोड़ी गयी है। जिसका शीर्षक ‘पंचायत’ है। 73वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992 में पंचायती राज व्यवस्था को न केवल नई दिशा प्रदान की बल्कि यह महिलाओं की पंचायतों में 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान कर उनकी सहभागिता ब़ने का अवसर प्रदान किया है।

सर्व विदित है कि संसद ने पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए हरी झंडी दे दी है। इतना ही नहीं कुछ राज्य जैसे मध्यप्रदेश, छत्तीसग़, विहार आदि राज्यों ने आगामी चुनाव में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था तो कर ही दी है। इस व्यवस्था को सुनतें ही पुरूषों के पैर के नीचे की जमीन ही खिसक गई हैं कि अब महिलाओं की पंचायती राज में 50 से 70 प्रतिशत तक प्रचायतों में सहभागिता होने से उनकी सत्ता व अधिकार क्षेत्र में हस्ताक्षेप व कब्जा होने की संभावनाएं ब़ी है। क्योंकि महिलाएं पंचायत में चुनकर भी आई है और आएगी भी। परंतु देखा जा रहा है कि उन्हें अविश्वास प्रस्ताव, भ्रष्टाचार, आदि के आरोपों के माध्यम से उदों से बाहर किया जा रहा है तथा साथ ही साथ सरकार की जांच उपरोक्त तालिकाओं के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं की स्थिति को देखा और आंका जा सकता है, जिसकी बजह से महिलाओं में सामाजिक एवं आर्थिक एवं राजनैतिक विकास एवं बदलाव हुआ है।

आरक्षण से महिलाओं में बदलाव :

73 वां संविधान संशोधन से लेकर 2008 तक के महिलाओं की स्थिति का अध्ययन करने में पाया गया कि महिलाएं पंचायती राज में चुनकर आई है। पंचायतों में चुनकर आने के बाद बदलाव देखा गया है जो इस प्रकार हैः

1.आरक्षण कानून के कारण महिलाओं की विकास प्रकि्रया में हिस्सेदारी में वृद्वि हुई है।

2.शिक्षा के क्षेत्र में रूचि ब़ रही है ताकि राजनीतिक सहभाग में सकि्रय बन सके।

3.सामाजिक व आर्थिक सुधार व बदलाव,

4.आरक्षण के कारण अपने अधिकारों व अवसरों का लाभ उठाना,

5.पुरूषों के साथ कार्य करने, बात चीत करने में जो संकोच, डर एवं हिचकिचाहट थी वह कम,

6.स्वयं के काय करने में आत्मनिर्भता में विकास हुआ है।

7.सत्ता के गलियारे में पुरूषों की भांति अच्छी तरह चहलकदमी करना, जिसका एहसास पुरूषों को भी होने लगा है।

8.पिछड़े वर्ग की महिलाओं को भी इस आरक्षण के कारण राजनीतिक क्षेत्रों में कदम रखने का अवसर प्राप्त हुआ।

9.पंचायती राज के तीनों स्तरों के अधिकारियों व पदाधिकारियों से सम्पर्क होने लगा है।

10.घर की चार दीवारी से बाहर आकर अपने अधिकारों व विचारों को रखने की क्षमता में विकास हुआ है।

11.आरक्षण रूपी पाठशाला से सकि्रय सहभागिता का अवसर प्राप्त हुआ है।

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि आरक्षण की व्यवस्था के कारण पंचायती राज में ही नही वल्कि देश के सभी वर्गों की महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक, व राजनीतिक क्षेत्रों में कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ है। सर्व विदित है कि केन्द्र एवं राज्य स्तर पर महिलाओं को सभी क्षेत्रों में 50 प्रतिशत आरक्षण का विधेयक संसाद में विचारार्थ रखा गया है, जो आज नही तो कभी न भी पास होकर पूरे भारत में लागू हो जाएगा। तब संविधान में वर्णित समानता, न्याय, की बात पूरी होगी और महिलाएं सभी क्षेत्रों में सहभागिता निभा पायेगी। नीति निमार्ण से लेकर उसके कि्रयान्वयन एवं मूल्यांकन में सहभागिता कर सकेगी जो एक सशक्त समाज व देश के निमार्ण में सहयोग प्राप्त होगा।

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