‘अर्धनारीश्वर हुए जिस दिन से बाबा रामदेव’

नागेन्द्र अनुज

एक ऐसे पिछड़े इलाके की रहनुमार्इ करना जहां घोर अशिक्षा, पिछड़ापन, शोषण, उत्पीड़न, धार्मिक कटटरता तो पूरे शबाब पर हो ही साथ ही साथ राजनैतिक भ्रष्टाचार व सामन्तवादी ताकतों का भी बोलबाला हो तो ऐसे हालात की तजुर्मानी करने का साहस करने वाला एक किसान का बेटा अदम गोंडवी ही हो सकता है, जिसके संघर्षों का इतिहास परसपुर आटा के उस बूढ़े बरगद के वल्कल पर स्वर्णाक्षरों में अंकित है।

अदम गोंडवी से मेरी मुलाकात वर्ष 2003 में एक कवि सम्मेलन के दौरान हुर्इ थी, किसी ने परिचय कराया कि आप अदम गोंडवी हैं तो मुझे सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि शेरो-शायरी और अदब की दुनिया का इतना मोतबर नाम सिर पर पगड़ी बाँधे, बदन पर किसानी धोती कुर्ता और पैरों में हवार्इ चप्पल पहने विल्कुल गँवर्इ ठाट-बाट का हो सकता है, मैंने चरण छूकर प्रणाम किया तो मुँह से निकला भइया बहुत-बहुत आशीर्वाद। उनकी सरलता, सादगी, विनम्रता जहाँ उन्हें एक भोले-भाले, गँवर्इ-गाँव का किसान बनाती है वहीं हो गयी है जब सियासत पूंजीपतियों की रखैल, आम जनता को बगावत का खुला अधिकार है जैसा क्रानितकारी शेर कहने वाला आम जनता का प्रतिनिधि शायर, जो इतना निडर है कि प्रशासन के आलाअफ्सरान से लेकर नेता, मंत्री, विधायक, सांसद या कोर्इ भी जनप्रतिनिधि हो उसे उसके मुँह पर उसकी खामियाँ गिनाने से न चूके। नागार्जुन, धूमिल, दुष्यंत के बाद की पीढ़ी का सर्वश्रेष्ठ कवि वही हो सकता है जो सच्चार्इ बयान करने लगे तो वह अपना भार्इ-बन्धु, दोस्त-अहबाब, अड़ोस-पड़ोस, जाति-धर्म, अपना-पराया ही नहीं बल्कि कुल-परिवार भी भूल जाय तो वही एक सच्चा कवि हो सकता है और अदम इस कसौटी पर एकदम खरे उतरते हैं।

जब उन्होंने चमारों की गल कविता लिखी, तो उनके सामने ऐसे मंजर थे जब बड़े से बड़ा कवि अपना साहस छोड़ देता है लेकिन अदम का अदम्य साहस ही था जो उन्हें कार्लमार्क्स के सर्वहारा की तरफ मोड़ देता है। उनकी इस हिम्मत को उस समय हिमाकत करार दिया गया और वे भी तत्कालीन सामन्तवादी ताकतों के शिकार बने लेकिन वे कभी रुके नहीं, कभी झुके नहीं बलिक उनकी लेखनी दिन-ब-दिन और पैनी व शैली और तल्खतर होती गयी। उन्होंने अपनी शायरी के कैनवस पर ऐसा चित्रांकन किया है जिसमें समाज की ऐसी घिनौनी तस्वीर उभरती है जिसमें कहीं रमसुधी की झोपड़ी सरपंच की चौपाल में खो जाती है, कहीं श्याम के हाथों कृष्णा बेआबरु हो जाती है, कहीं हीरामन की बेजारी है महंगार्इ है, तो दिल्ली में कहीं उत्तर आधुनिकता आयी है, कहीं अमीरों-गरीबों की जंग में मस्जिद और मंदिर आ गये, तो कहीं कुर्सियों पर फिर वही बापू के बन्दर आ गये, कहीं जिस्म क्या है रुह तक सबकुछ खुलासा देखिए आप भी इस भीड़ में घुसकर तमाशा देखिए का मंजर दिखायी देता है तो अदम की चित्रकारी में बगावत का ये रंग भी दिखता है कि जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे, कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे। कभी उनकी दृष्टि जब गरीब के किसी झोपड़ी की ओर उठती है तो उनकी तूलिका ऐसा चित्र खींचती है कि घर के ठण्डे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है, बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है, बगावत के कमल खिलते हैं दिल के सूखे दरिया में, मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है। समाज की नग्नता और भोंडेपन का ऐसा चित्रण करने वाला शायर जो सड़कों पर गड्ढे देखता है, बिजली की दुर्दशा और पानी के लिए हाय-तौबा देखता है, सामन्ती ठसक देखता है, नैतिकता की नीलामी देखता है, राजा और रानी देखता है, डकैती, कत्ल, दंगे देखता है, सरयू की रवानी देखता है नेताओं की लन्तरानी देखता है, फिर भी गोंडा की फजा सुहानी देखता है, क्योंकि ये पीड़ा वो एक शायर की जुबानी देखता है। वो आँख पर पट्टी और अक्ल पर ताला डाले लोगों में चेतना का में संचार करने का पक्षधर भी है और दृढ़प्रतिज्ञ भी, तभी तो वह शम्बूक वध को लोकरंजन बताते हुये उस व्यवस्था के घृणित इतिहास को कोसता है और वेद के हवाले से उन अभागों की आस्था और विश्वास पर सोचता है। गजल की रंगीनमिजाजी को जब शायर भूख का चश्मा पहनकर देखता है तो उसे कहना पड़ता है कि भूख के एहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो, या अदब को मुफिलसों की अंजुमन तक ले चलो, जो गजल माशूक के जल्वों से से वाकिफ हो चुकी अब उसे बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो। जब शायर देश की गरीबी, भुखमरी, तंगहाली और लूटमार देखता है तो जो चित्र उसके दिमाग के कैनवस पर बनता है उसमें शायर प्रश्न उछालता है कि सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है, दिल पे रखके हाथ कहिए देश क्या आजाद है और फिर शायर का मन फुटपाथ पर निकल पड़ता है और वहाँ पहुँचकर वो बेसाख्¤ता बोल उठता है कि कोठियों से मुल्क के मेयार को मत आँकिए अस्ली हिन्दुस्तान तो फुटपाथ पे आबाद है, यही नहीं जब यही चिन्तन और सूक्ष्मता की ओर बढ़ता है तो शायर को एक बात यह भी समझ में आती है कोरी कल्पनाओं में जीना बहुत आसान है लेकिन चार दिन फुटपाथ के साये में रहकर देखिए, डूबना आसान है आँखों के सागर में जनाब, डाल पर मजहब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल, सम्यता रजनीश के हम्माम में है बेनकाब, झूठे आश्वाजसन और कोरे भाषण सुनते-सुनते जब शायर का कान पक चुका, तो वो जिम्मेदार अफ्सरानों की खैर लेते हुए पूछता है कि जो उलझकर रह गयी है फाइलों के जाल में, गाँव तक वो रोशनी आयेगी कितने साल में। सकारात्मक उत्तर न मिलने पर वजह खंगालते हुए शायर इस निष्कर्ष पर भी पहुँचता है कि माफ करिए सच कहूँ तो आज हिन्दुस्तान में, कोख ही जरखेज है एहसास बंजर हो गया और शायर शाहेवक्त पर कटाक्ष करता है कि मुल्क जाये भाड़ में इससे उन्हें मतलब नहीं एक ही ख्वाहिश है कि कुनबे में मख्तारी रहे, इसी उधेड़बुन में शायर की निगाह अचानक जब आसमान पर जा टिकती है तो वह कह उठता है कि चाँद है जेरे-कदम सूरज खिलौना हो गया, हाँ मगर इस दौर में किरदार बौना हो गया, और जब निगाह थोड़ा और नीचे आकर अमीरों की लहलहाती कोठियों पर आ टिकती है तो शायर यह भी तल्खी बयान करता है कि शहर के दंगों में जब भी मुफिलसों के घर जले, कोठियों की लॉन का मंजर सलोना हो गया, जब लोग अपने-अपने दड़बों में मखमली गरम बिस्तर ओढ़कर सोये हुए होते हैं तब शायर की रुह गरीबों का पेट टटोलने निकल पड़ती है और उसे दिखता है कि महल से झोपड़ी तक एकदम घुटती उदासी है, किसी का पेट खाली है किसी की रुह प्यासी है, कि नंगी पीठ हो जाती है जब हम पेट ढकते हैं, मेरे हिस्से की आजादी भखिरी के कबा सी है, मुल्क में हरामखोरी को अपना संस्कार माननेवालों पर तंज करता है कि रिश्वत को हक समझ के जहाँ ले रहे हैं लोग, है और कोर्इ मुल्क तो उसकी मिसाल दो, और जब गरीबी मेहमान देखकर चिढ़ जाती है तो शायर की तंगहाली और मेहमानवाजी के शिष्टाचार के बीच से ये शेर निकलता है कि चीनी नहीं है घर में लो मेहमान भी आ गये, मँहगार्इ की भट्ठी पे शराफत उबाल दो।

दुव्र्यवस्था, शोषण, गरीबी भुखमरी से लस्त-पस्त आवाम का पैरोकार कभी अंगार की बातें करता है, कभी हथियार की बातें करता है, कभी ठहराव की बातें करता है, कभी रफ्तार की बातें करता है। तुलना करता है कि तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आँकडे झूठे हैं ये दावा किताबी है, तुम्हारी मेज चाँदी की तुम्हारा जाम सोने का यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है। आम आदमी की हिमायत करते-करते ये जुगनू जब अँधियारों की आँख में चुभने लगा होगा, तब अँधियारों ने जुगनू के पंख नोचने की कोर्इ कोशिश अवश्य की होगी, तभी तो शायर अपनी प्रतिबद्धता के प्रति और मुखर होकर जवाब देता है कि ताला लगाके आप हमारी जबान को कैदी न रख सकेंगे जेहन की उड़ान को और उसकी सोच की उड़ान के पैनेपन का ये नमूना तो ध्यातव्य है कि जिसके हाथ में छाले हैं, पैरों में विवार्इ है उसी के दम से रौनक आपके बँगलों में आयी है और शायर की चेतना जनमानस की दबी कुचली सोच को चाबुक मारती है कि उठो जागो कब तक सहेंगे जुल्म रफीको रकीब के, शोलों में अब ढलेगें ये आँसू गरीब के, उतरी है जब से गाँव में फाकाकशी की शाम, बेमानी हो के रह गये रिश्ते करीब के, कलम और कुदाल दोनों को अपनी जिन्दगी मानने वाला शायर अदम बिना किसी गफ्लत के कहता है कि इक हाथ में कलम है और इक हाथ में कुदाल, वाबस्ता है जमीन से सपने अदीब के, गरीबों की झोपडि़यों की कहानी देखते हुए जब शायर नेता मंत्री विधायक की ऊँची बिलिडंग मँहगी कारों और ड्राइंग रुम के नजरों की ओर रुख करता है तो उसे दिखता है काजू भुने हैं प्लेट में विहस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में, पक्के समाजवादी हैं तस्कर हो या डकैत, इतना असर है खादी के उजले लिबास में यह देखकर शायर एक साल्यूशन भी देता है कि जनता के पास एक ही चारा है बगावत, ये बात कह रहा हूँ मैं होशोहवाश में।

जब मान-मनुहार की भाषा से काम नहीं चलता तो शायर अपने पहले हथियार का प्रयोग कर बैठता है और पंचायत प्रतिनिधियों के एक बड़े कवि सम्मेलन में अग्रिम पंक्ति को संबोधित करते हुए उसका आक्रोश बोल पड़ता है कि जितने हरामखोर थे कुर्बो जवार में, परधान बनके आ गये अगली कतार में, इजारबन्द की एक गाँठ और खोलते हुए शायर कहता है कि दीवार फांदने में यूँ जिनका रिकार्ड था, वे चौधरी बने है उमर के उतार में, जब प्रधान के दरवाजे पर घण्टों इन्तजार करना पड़ा तो ये भी कह डाला कि जब दस मिनट की पूजा में घन्टों गुजार दें, समझो कोर्इ गरीब फंसा है शिकार में। इसी क्रम में शायर जिलाधिकारी के कानों तक गरीबों की पीड़ा ले जाता है किन्तु जब वहाँ भी जूँ नहीं रेंगती तो शायर का जमीर विधायक निवास की तरह डी.एम. निवास की भी तहकीकात करता है और उसे शायरी की जबान में कुछ यूँ पेश करता है महेज तनख्वाह से निपटेंगे क्या नखरे लुगार्इ के, हजारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमार्इ के, ये सूखे की निशानी उनके ड्राइंग रुम में देखो, जो टीवी का नया सेट है रखा ऊपर तिपार्इ के, और जहाँ न जाये रवि, वहाँ जाये कवि को चरितार्थ करते हुये कवि यह भी जान लेता है कि मिसेज सिन्हा हाँथों में जो बेमौसम खनकते हैं, पिछली बाढ़ के तोहफे है ये कंगन कलार्इ के, उपेक्षा से पीडि़त और क्षुब्ध शायर कहता है कि ये मैकाले के बेटे खुद को जाने क्या समझते हैं कि इनके सामने हम लोग थारु हैं तरार्इ के, अदम की शायरी इन बीहड़ों से होती हुयी धीरे-धीरे मशाल बन उठती हैं और बिना समूह या जनसमर्थन की परवा किए वो ललकार उठता है कि बम उठायेंगे अदम दहकान गन्दुम के एवज, आप पहुँचा दें हुकूमत तक हमारा ये पयाम।

इधर धार्मिक पाखण्ड और मजहबी चोले ओढ़कर दिलों के जज्बात को भड़काने वाले चन्द तथाकथित भगवान भी इनके प्रहार से बच नहीं सके और जमाने को उनका जो रंग अदम ने दिखाया शायद ही कोई ऐसा कह पाने की हिम्मत रखता हो कि दोस्तों अब और क्या तौहीन होगी रीश की, ब्रेसरी के हुक पे ठहरी चेतना रजनीश की, और उनकी सेाच की नग्नता को एक चित्र में दर्शाता है कि मोहतरम यूं पाँव लटकाये हुए हैं कब्र में, चाहिए लड़की कोर्इ सोलह कोर्इ उन्नीस की।

इस कँटीली राह पर चलते-चलते जनता की दुश्वारियों के विरुद्ध पूरी मुस्तैदी के साथ खड़े रहे, तमाम यातनाओं और मुसीबतों को दरकिनार करके लखनऊ के पी.जी.आर्इ. में दिनांक 18.12.11 को अन्तिम सांस तक अपनी हकबयानी जेहाद पर कायम रहे और अपनी अन्तिम गजल घूसखोरी कालाबजारी है या व्यभचिर है, कौन है जो कह रहा भारत में भ्रष्टाचार है, घाघरा की बाढ़ में जब गाँव सारे बह गये, बस यहां उसदिन से इनके बंगलों में त्यौहार है, अर्धनारीश्वर हुए जिसदिन से बाबा रामदेव, सोचता हूं योग है या योग का व्यापार है, मोहतरम अन्ना हजारे आप कर पायेंगे क्या, ये शहर शीशे का है और संगदिल सरकार है, जब सियासत हो गयी है पूंजीपतियों की रखैल, आम जनता को बगावत का खुला अधिकार है, कहते-कहते जब वे अचानक चुप हुए, तो, गरीबों, शोषितों, दलितों को गहरा आघात लगा कि उनकी पीड़ा को बुलंदी का स्वर देनेवाली आवाज एक बार फिर से उन्हें अनाथ कर गयी।

1 COMMENT

  1. गोंडवी और उनकी कवितायेँ अमर हैं ,कालजयी हैं. शत शत नमन .

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