महंगाई, नक्सल मामला, महिला आरक्षण और इस सबसे बढ़ कर देश के लिए अलग तरह का केंसर बन चुके क्रिकेट खास कर इस बीमारी का आख़िरी स्टेज आईपीएल । इन सभी मुद्दों की भीड़ में एक जिस बात की चर्चा नहीं हो पायी वह है सम्प्रदाय आधारित आरक्षण. कांग्रेस के सांसद रहे रंगनाथ मिश्र के कमिटी की रिपोर्ट के बहाने साम्प्रदायिक आरक्षण लागू कर कांग्रेस फिर एक नए तरह से विभाजन कर, तुष्टिकरण के द्वारा वोटों का ध्रुवीकरण करने का एक और बेजा प्रयास कर रही है. इस बात का भी जम कर विरोध और उसकी निंदा किया जाना आवश्यक है. इस कमिटी ने क्या कहा और क्या होना चाहिए इस पर ज्यादा चर्चा नहीं करते हुए बस इतना ही कहना समीचीन होगा कि आजादी से पहले पहली बार कांग्रेस द्वारा जब 1916 में सम्प्रदाय के आधार पर संसदीय क्षेत्रों में आरक्षण का प्रस्ताव पारित किया गया था, विश्लेषक ऐसा मानते हैं कि तब ही पाकिस्तान की नीव पड़ गयी थी. कांग्रेस द्वारा किया गया इस तरह का अब तक कोई भी काम केवल और केवल वोटों की तिजारत के लिए ही हुआ है. तो इस रिपोर्ट के बहाने भी केवल ‘तुष्टिकरण’ पर चर्चा करना ही समीचीन होगा. आखिर ये तुष्टिकरण है क्या? और इससे किसका फायदा है?
जब भी इस तरह से किसी बेजा प्रयासों का जिक्र होता है तो श्वान का रूपक प्रासंगिक लगता है. वफादारी और स्वामी के प्रति निष्ठा के मामले में प्रशंसनीय ढंग से कुत्ते की चर्चा की जाती है. छात्रों से यह अपेक्षा की जाती है कि वह जागृत रहें और कुत्ते जैसी उनकी नींद रहे, श्वान निद्रा तथैव च……और तो और धर्मराज की यात्रा में स्वर्ग तक साथ देने वाले भी एकमात्र श्वान ही था. (यहाँ यह सफाई देना ज़रूरी है कि यहाँ इस रूपक का उपयोग किसी को अपमानित करने के लिए नहीं किया जा रहा है). तो इस बेजुबान के बारे में एक अजीब सी कहावत है, पता नहीं सही या झूठ, परंतु भारत में कांग्रेस के जन्म से ही चलती आ रही तुष्टिकरण की राजनीति को इस कहानी के द्वारा सरलता से समझा जा सकता है।
कहते हैं सूखी हड्डी चबाने में कुत्ते के आनंद का पारावार नहीं रहता। वह जोर-जोर से हड्डियों को चबाते रहता और फलत: लहूलुहान होते रहता है. अपनी ही दंतपंक्तियों को घायल करने से प्राप्त रक्त को वह सूखी हड्डियों से प्राप्त समझ प्रफुल्लित होते रहता है और अपने दांत तुड़ा बैठता है. इस तरह से तुष्टिकरण का शिकार बना कांग्रेस ने कथित अल्पसंख्यकों की ऐसी ही ऐसी ही हालत कर दी है. यही तुष्टिकरण कभी एक महान देश का बंटवारा कर देता है. कभी देश के स्वर्ग को विशेष दर्जा के नाम पर देशवासियों से छीनकर अलग कर देता है. नागरिकों को स्वर्गीय बना देता है. पंडितों को अपना घर-बार छोड़ शरणार्थी बनने पर मजबूर कर देता है. कभी किसी महिला को न्यायालय द्वारा मिलने जा रहे चंद रूपयों के निवाले को कानून बदलकर छीन लेता है. शाहबानो से लेकर सच्चर तक की परंपरा में ऐसी ही चीजें जुड़ती चली जाती हैं. देश के साथ दिलों का बंटवारा भी होते रहता है. पुल के बदले दीवार बनती जाती है और शासक दल अपनी कुटिल चालों द्वारा काले अंग्रेज बन अपने पूर्वज गोरों के द्वारा विरासत में प्राप्त ‘बांटो और राज करो’ की नीति का पालन कर देश को कमजोर कर मगन होते रहते हैं.
तो तुष्टिकरण यानी क्या ? यानी स्वयं का रक्तपान. यानी द्विराष्ट्रवाद का सिध्दांत, यानी देश का बंटवारा. यानी मधुमेह के मरीज को मिठाई. यानी चोर से कहो चोरी कर, और साहूकार से कहो जागते रह. यानी धर्म आधारित आरक्षण, यानी अमरनाथ यात्रा पर कुठाराघात. यानी कई राज्यों में समृध्द स्थानीय भाषा को छोड़ वहाँ उर्दू को राजभाषा का सम्मान. यानी आतंकवाद को प्रोत्साहन, यानी पोटा की समाप्ति. यानी दिल्ली, मुंबई, जयपुर, बेंगलूरू, अहमदाबाद के धमाके, यानी साबरमती एक्सप्रेस में आगजनी, यानी संसद पर हमला. यानी कश्मीरी पंडितों का विस्थापन, बांग्लादेशियों का संस्थापन. यानी घुसपैठियों की आवभगत और उसे सुगम बनाने के लिए ‘आईएमडीटी’ जैसे कानून को लागू करना. यानी हम दो हमारे दो, घुसपैठियों को आने दो. यानी बहुसंख्यक भारतीयों के रक्त से सरयू के पानी को लाल किया जाना. यानी दो विधान, दो प्रधान, दो निशान। यानी अफजल की मुक्ति, कसाब की मेहमान-नवाजी, यानी दारूल-ए-इस्लाम की स्थापना को बढ़ावा. और अंततः हो तुमको जो पसंद वही बात कहेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो रात कहेंगे.
उपरोक्त वर्णित किसी भी घटना से अल्पसंख्यकों का भला हुआ हो ऐसा कहीं भी देखने को नहीं मिला. उल्टे नुकसान की चर्चा की जाए तो पूरे आलेख कम पड़ेंगे. अगर अल्पसंख्यक लाभान्वित हुए होते तो सच्चर आयोग को घड़ियाली आंसू नहीं बहाने पड़ते. सबसे ज्यादा समय तक इसी के सहारे राज करने वाली कांग्रेस की सरकार द्वारा प्रायोजित सच्चर आयोग द्वारा मांगे गये धर्म आधारित आंकड़े के कारण तो सेनाध्यक्षों का सिर भी शर्म से झुक गया था. उन्हें यह कहना पड़ा कि भारतीय सेनाओं में कोई मुसलमान, इसाई और पारसी नहीं है, हमारी सेनाओं में बस एक ही धर्म के लोग हैं और वह हैं भारतीय।
वस्तुत: कांग्रेस द्वारा अपनाये गये तुष्टिकरण के इस हथियार का विचार भी उनका मौलिक नहीं था. जैसी कि ऊपर चर्चा की गई है, यह भी अंग्रेजों से उधार लिया गया विचार था. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भारत को सफलता भले ही ना मिली हो, लेकिन फिरंगियों को यह बात समझ में आ गयी थी कि यदि भारत के सभी पंथ, खासकर हिन्दू-मुस्लिम एक रहे तो ज्यादा दिनों तक देश को गुलाम रखना संभव नहीं होगा. फलत: तभी से उन्होंने आसान निशाना समझ मुसलमानों की भावनाओं को भड़काना शुरू किया. उन्होंने इसी ‘तोड़क’ नीति को जारी रखकर 90 साल तक और राज करना संभव बनाया. 1906 में बंग- बंग-भंग इस दिशा में उनका सबसे बड़ा कदम था. हालाकि तब के राष्ट्रवादियों के जबरदस्त विरोध के कारण वो सफल नहीं हो पाये थे. लेकिन सोचकर आपको दुख होगा कि उस समय का मजबूत अंग्रेज शासन केवल बंगाल को धर्म के आधार पर बांट नहीं पाया, जबकि द्वितीय विश्वयुध्द के बाद के कमजोर साम्रयवादी जाते-जाते देश के पूर्वी और पश्चिमी हिस्से के टुकड़े करने में सफल हो गए. यह भी इसलिए संभव हुआ कि तत्कालीन कांग्रेस के नेतृत्व को देश से ज्यादा सत्ता प्यारी थी और सत्ता प्राप्ति का अधैर्य इतना कि गांधी के विरोध के बावजूद माँ के टुकड़े करना सहज स्वीकार कर लिया गया. प्रख्यात समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया ने अपनी पुस्तक भारत विभाजन के गुनाहगार में बंटवारे पर विस्तार से चर्चा की है। खैर?
कांग्रेसियों की लिप्सा यदि इतने पर ही रुक जाती तो गनीमत थी. लेकिन आजादी के बाद भी सत्ताधीशों द्वारा ऐसा कोई काम नहीं किया गया जिससे राष्ट्रवादी शक्तियों को प्रोत्साहन मिलता. पहले तो हिन्दू मान्यताओं के उलट ढेर सारे कानून बनाये गये और बहुसंख्यकों ने उसे वक्त की नजाकत समझ स्वीकार भी किया. लेकिन अल्पसंख्यकों की छह सौ साल पुरानी मान्यताओं में राई-रत्तीभर भी बदलाव नहीं कर उन्हें विशेष नागरिक की हैसियत प्रदान कर दी गयी. हालांकि इससे मुस्लिम समाज फायदे में रहा ऐसी बात नहीं लेकिन देश की एकता के लिए नुकसान के बीज तो पड़ ही गये. उसके बाद तो ऐसे उदाहरणों की लंबी श्रृंखला है. मुस्लिम पर्सनल लॉ से लेकर शाहबानो, अमरनाथ और अब फिर साम्प्रदायिक आरक्षण की कोशिश तक. आखिर अमरनाथ श्राइनबोर्ड को मिली कुछ हेक्टेयर जमीन को भी जमू-कश्मीर सरकार द्वारा छीन लेने से भी तो उसी तुष्टिकरण को बल मिला था न ? बहुसंख्यक लोग यह पूछने को तो विवश हुए ही थे कि जब दुनिया में इकलौते भारत में ही दिए जाने वाले हज सब्सिडी पर किसी को आपत्ति नहीं, हज टर्मिनल बनाने, संप्रदायों को दिये जाने वाले ढेर सारे अनुदानों पर भी कोई भी भारतीय विरोध दर्ज नहीं कराता तो करोड़ों हिन्दुओं की आस्था से जुड़ी कठिनतम यात्राओं में से एक अमरनाथ यात्रा को थोड़ा सा आसान बना देने में किसका क्या बिगड़ जाता ? इस्लामी आतंकवादियों के विस्फोट से थर्राते कश्मीर में तीर्थयात्रियों के लिए दो गज जमीन पर जुटाई गई कुछ अस्थायी सुविधायें आखिर पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचा देतीं ? लोक मानस में यह सारे सवाल उठने तो जायज हैं ही. इसी तरह का मामला पुराने बोतल से नयी शराब की तरह निकाले गए जिन्न इस इस नए तरह के आरक्षण का भी है. रंगनाथ कमिटी की रिपोर्ट और देश को होने वाले निकसान की विस्तृत चर्चा फिर कभी. मगर यहां इन सभी मुद्दों की जड इस तुष्टिकरण के दानव की चर्चा करना पहले प्रासंगिक था.
खैर? बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेहिं..! तमाम विसंगतियों के बावजूद फिर भी रहा है बाकी नामों-निशाँ हमारा। एक भारतीय के रूप में यही अपेक्षा की जा सकती है कि सभी हिन्दुस्तानी नागरिक एकमत हो देश को बांटने वाले किसी भी कारवाई का जम-कर विरोध करें. किसी भी तात्कालिक लाभ के लिए सरकार द्वारा फेके गए किसी भी टुकड़े को लेने से इनकार करे. शिकार को फेके जाने वाले टुकड़े की तरह से इन ‘बाटने’ वाले शिकारियों की नीयत को पहचान देश के समक्ष चुनौतियों से सामना करने एकजुट हों. जनप्रतिनिधियों (चाहे वे किसी पार्टी से हों) से भी यही अपेक्षा की जानी चाहिए कि ली गई शपथ के अनुसार वे स्वयं को राग-द्वेष से ऊपर उठाकर वोटों की क्षुद्र आस या किसी समर्थन के खो जाने के भय से स्वयं को मुक्त कर राष्ट्रहित में निर्णय लें।
तुलसी बाबा ने क्या खूब कही है-
सचिव, बैद, गुरु तीन जौं, प्रिय बोलहि भय आस।
राज, धर्म, तन तीन कर, होई वैगहि नाश॥
-पंकज झा
BAHUT BADHIYA LEKH HAI
LEKIN YE WAHI KAHAWAT HAI
“BHAIS KE AAGE BEEN BAJAI BHAIS RAHI PAGURAI”
सही विचार हे, राष्ट्रवादी विचारो वाले लोगो इस तरह के प्रयोगों का खुल कर विरोध करना चाहिए,