प्रमोद भार्गव
यह प्रबंध सनातन संस्कृति में ही निहित है, जिसमें प्रत्येक संस्कार को शारीरिक उपचार के प्राकृतिक शोध से जोड़कर समाज के प्रचलन में लाया गया है। इन्हीं में ही एक है यज्ञोपवीत अर्थात उपनयन या जनेऊ संस्कार। वैदिक काल में स्थापित इस संस्कार से तात्पर्य वेदों के पठन, श्रवण तथा अध्ययन-मनन से है। इन लक्ष्यों को पूर्ति के हेतु गुरु शिष्य को कहते है, ‘मैं तुम्हें यज्ञोपवीत धारण कराता हूं, जिससे तुम दीर्घायु, बल और तेजस्विता प्राप्त कर सर्वगुण संपन्न बन जाओ। दरअसल उस कालखंड में यज्ञोपवीत संस्कार के उपरांत ही ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए विद्यार्जन का द्वार खुलता था। बहुमुखी प्रतिभा विविध क्षेत्रों में विकसित करने और समाज में कीर्तिमान व प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन इसलिए आवश्यक था, जिससे एकाग्रता भंग न हो और चित्त विचलित न हो। अतएव कहा गया है…
आचार्यो उपनयमानो ब्रह्मचरिणं कृणुते गर्भमन्तः।
ते रात्रीस्तिस्त्र उदरे विभिततं जातं द्रश्टुमभिसम्पत्ति देवाः।।
याज्ञोपवीत संस्कार को ग्रहण करने के बाद ही गुरुकुलों में प्रवेश की सुविधा थी। यहां अनुशासित रहते हुए विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर ज्ञानी बन द्विज की श्रेणी में आते थे। यज्ञोपवीत संस्कार के लिए उस समय उम्र का भी निर्धारण था। ब्राह्मण के लिए आठ, क्षत्रिय के लिए ग्यारह और वैश्य बालकों के लिए बारह वर्ष की आयु में उपनयन कराया जाता था।
ब्रह्मचर्य को अकसर हम कामेन्द्रियों पर स्थायी रूप से नियंत्रण का उपाय मानने की भूल करते हैं। जबकि वास्तव में वेदों में ब्रह्मचर्य का पालन केवल विद्यार्जन के कालखंड तक बाध्यकारी माना है। जिसकी अधिकतम अवस्था पच्चीस वर्ष की आयु तक है। ऋग्वेद में ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचारिणी शब्दों के अर्थ कुमार (युवा) और कुमारी (कन्या) के संदर्भ में हैं। यथा,
ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्।
अनड्वान ब्रह्मचर्येणष्वों घासं जिगीर्शति।।
ऋग्वेदः11.5.18
अर्थात, ब्रह्मचारिणी कन्या ब्रह्मचर्य संपन्न युवा पति को प्राप्त करे। ब्रह्मचर्य के बल से संपन्न होने पर वृषभ और अश्व के समान पुरुश स्त्री का उचित भोग कर सकते हैं।
आज देखने में आ रहा है कि महानगरों में शिक्षारत युवा विद्यार्थी सभी प्रकार के अनुशासनों से मुक्त होकर विवाह पूर्व ही समागम कर यषस्वी जीवन को बर्बादी की ओर धकेल रहे हैं। फलतः व्यभिचार और आत्महत्याएं बढ़ रहे हैं। ऐसा सभी वर्ण के युवक-युवतियों में देखने में आ रहा है। सरकार इससे निपटने का उपाय कानून में देखती है और समाज थानों में प्रकरण दर्ज करा देने में ? शास्त्रसम्मत ज्ञान को इस परिप्रेक्ष्य में खूंटी पर टांग दिया है। अतएव गुरु और षिश्यों को सनातन ज्ञान से जोड़े बिना अविवाहित रहते हुए युवाओं के बढ़ते संसर्ग को अनुषासित करना कठिन है।
उपनयन संस्कार के अंतर्गत सूत के तीन धागों का जनेऊ धारण कराया जाता है। इस यज्ञोपवीत से तात्पर्य ओंकार (ऊं) को अपने शरीर पर धारण करना है। ओंकार के अर्थ में चित् तथा आनंद की अनुभूति के भाव हैं। ये तीन धागे भगवान विष्णु के तीन चरणों और ब्रह्मा, विश्णु तथा महेश के भी प्रतीक हैं। ये धागे गायत्री मंत्र के तीन चरणों एवं तीन आश्रमों के भी प्रतीक हैं। जनेऊ के तीन धागों को तिगुना करके निर्मित किया जाता है। अर्थात एक-एक धागे में नौ धागों का समावेषन करके नौ देवताओं, प्रजापति, ओंकार, अनंत, अग्नि, सूर्य, चंद्रमा, वायु, सर्प एवं पितृगणों का समावेष मानकर इनकी पवित्रता स्थापित मानी गई है। जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल रखी जाती है, क्योंकि जनेऊ धारण करने वाले विद्यार्थियों को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सिखाने का प्रयास कराया जाता है। 32 विद्याओं में चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्षन, तीन सूत्र ग्रंथ और नौ अरण्यक ग्रंथ षामिल रहते हैं। 64 कलाओं में भाषा,खगोलीय ज्ञान, ज्योतिश, स्थापत्य, व्यंजन ,चित्रकारी, साहित्य, दस्तकारी, यंत्र, अस्त्र-शस्त्र एवं आभूशण निर्माण की कलाएं सिखाने के साथ कृषि कार्य में भी युवाओं को दक्ष किया जाता है।
नौ की महिमा हमारे शरीर के नौ द्वारों से संबद्ध मानी गई है। वेदों में देह को नौ द्वारों की नगरी कहा गया है। यथा,
अष्टचक्रा नवद्वारा देवता पुरोयोध्या।
अर्थात, एक मुख, दो नासिका, दो आंखें, दो कान, एक लघुषंका और एक दीर्घषंका द्वार। यह जनेऊ धारण करने से इन द्वारों के तंत्रिका तंत्र से जुड़ी इंद्रियां नियंत्रित होती हैं और मनुश्य में क्रमषः मानवीय गुणों का विकास होता है। ये तीन धागे मनुश्य के देवऋृण, गुरुऋण और पितृऋण के भी द्योतक हैं। यज्ञोपवीत में तीन या पांच ब्रह्म-गांठे भी लगाई जाती हैं। इस कारण इसे ब्रह्मसूत्र भी कहा जाता है। जनेऊ की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए शौच एवं लघुषंका के समय इसे तीन चक्रों में दाहिने कान पर लपेटने का विधान है।
जनेऊ को कान पर चढ़ाने का वैज्ञानिक कारण भी है, जिसे अनदेखा कर दिया जाता है। आयुर्वेद के अनुसार ‘लोहतिका‘ नाड़ी दाहिने कान से होकर व्यक्ति के मल-मूत्र द्वार तक जाती है। यदि दाहिने कान की इस नाड़ी को थोड़ा सा अंगुलियों से दबा दिया जाए तो व्यक्ति का मूत्र द्वार स्वमेव खुल जाता है। इस नाड़ी का अंडकोश से सीधा संबंध है। हर्निया नामक बीमारी पर नियंत्रण के लिए आज भी वैध इसी कान की नाड़ी को छेद देने का सुझाव देते हैं। अतएव यह तथ्य विज्ञानसम्मत है कि जनेऊ को कान पर तीन चक्रों में चढ़ाने से मूत्र द्वार पूरी तरह खुल जाता है। ऋषि शंख ने स्त्रियों को भी यज्ञोपवीत धारण करने की अनुमति दी थी।
जनेऊ बाएं कंधे से दायीं कमर तक पहना जाता है। इस अवस्था में यह हृदय को स्पर्ष करता हुआ गुजरता है। ऐसे में हृदय रोग की संभावनाएं न्यूनतम हो जाती हैं, क्योंकि यह रक्त संचार को गतिषील बनाए रखने में मदद करता है। कान पर जनेऊ धारण करने से सूर्य नाड़ी जागृत रहती है, जो मस्तिष्क के तंत्रिका तंत्र को ऊर्जावान बनाए रखने का काम करती है। पेट संबंधी रोगों से भी बचाव होता है। क्योंकि इसे कान पर लपेटने से आंतों की सक्रियता आष्चर्यजनक ढंग से बढ़ जाती है। नजीततन मल विसर्जन सरलता से होता है। इस कारण कब्ज या कुपच नहीं होती है। हमारे ऋशियों ने भौतिक षरीर में 72,000 नाड़ियां खोजी हैं। परंतु इनमें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियां प्रमुख हैं। इन्हें ऋशियों ने तीन धागों का प्रतीक मानते हुए जैविक ऊर्जा का प्राकृतिक स्रोत माना है। अतएव यज्ञोपवीत धारण करना कोई पाखंड या आडंबर न होते हुए वेदों में निहित विज्ञान की प्राकृतिक चिकित्सा से जुड़ा अत्यंत साधारण सनातन उपाय है, जो मानव शरीर को स्वस्थ बने रहने का उपाय स्वाभाविक रूप से करता रहता है।
प्रमोद भार्गव