अभी तक नहीं पच रही जीत

-सुरेश हिन्दुस्थानी-
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वर्तमान में देश में जिस प्रकार का राजनीतिक परिदृश्य उपस्थित हुआ है, उससे कई दल के नेता आघात के बाद की स्थिति में चले गए हैं। इस सदमे की स्थिति से उबरने का उन्हें कोई मार्ग भी समझ आ रहा। जहां तक कांग्रेस पार्टी की बात की जाए तो कांगे्रस के नेताओं ने अभी भी हार से सबक नहीं लिया। इसके विपरीत हार के वास्तविक कारणों पर एक ऐसा परदा डालने का बेशरमी भरा खेल चल रहा है। जो कांग्रेस आज देश में विपक्षी दल की मान्यता भी प्राप्त नहीं कर सकी, उस कांग्रेस के नेता सोनिया और राहुल की चाटुकारिता करने में लग गए हैं। यानी पराजय के वास्तविक कारणों का बोध होते हुए भी उसको नजरअंदाज कर रहे हैं। चुनाव परिणामों के बाद कांगे्रस किस शर्मनाक अवस्था में हैं, इसका अंदाजा इससे हो जाता है कि देश के 17 राज्यों में कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला। इतना ही उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सहित ऐसे कई राज्य हैं, जहां कांग्रेस को पूरी तरह से नकार दिया गया है, हम जानते हैं कि सोनिया और राहुल की जीत कांग्रेस की जीत न होकर केवल व्यक्तिगत जीत है, यानी उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस का सूपड़ा साफ। इसी प्रकार का हाल मध्यप्रदेश का है, मध्य प्रदेश में कांग्रेस के मात्र दो उम्मीदवार ही जीते हैं, सब जानते हैं कि ये निर्दलीय भी खड़े हो जाते तो भी जीत जाते, इसलिए इनको भी कांग्रेस की जीत नहीं कहा जा सकता।

जहां तक समाजवादी पार्टी की बात करें तो यहां भी हालात कांग्रेस से इतर नहीं कहे जा सकते, इसके कुल चार सांसद एक ही परिवार के हैं, यानी केवल मुलायम सिंह के परिवार से। इस जीत पर सपा प्रमुख मुलायम ने अपने बेटे मुख्यमंत्री अखिलेश से कहा कि मैं संसद में किसके साथ बैठूंगा, यानी परिवार के साथ तो घर में भी बैठ सकता हूं। रही बात बसपा प्रमुख मायावती की तो इस बार के चुनाव में उनकी जमीन ही खिसक गई, अगर इन दलों को इज्जत बचाने लायक सीट प्राप्त हो जातीं तो फिर इनकी भूमिका राजनीतिक तूफान वाली होती। यह एक प्रकार से अच्छा ही हुआ, कम से कम लोकतंत्र तो जिन्दा रहेगा।

लोकसभा चुनावों के परिणाम के बाद देश में बहुत सालों के बाद एक स्थायी सरकार का उदय हुआ है, वह भी अप्रत्याशित बहुमत के साथ, अप्रत्याशित इसलिए क्योंकि इस बहुमत की आशा ही नहीं थी। समस्त राजनीतिक दल इस परिणाम को देखकर अचंभित हैं। उन्हें अचंभित होना भी चाहिए क्योंकि उनके पास मुंह दिखाने लायक भी सीटें भी नहीं हैं। सबसे बुरी गत तो उन राज्यों की हुई है जहां गैरभाजपा दलों की सरकारें थीं। वर्तमान में उन सभी राज्यों के मुख्यमंत्री अपनी पार्टी की हार के सदमे से उबर भी नहीं पा रहे हैं। अब बिहार की ही बात की जाए तो पिछले तीन दिनों से बिहार में जैसी राजनीति की जा रही है वह देश के उत्थान के लिए अत्यंत ही घातक ही कही जाएगी। क्योंकि जिस प्रकार से बिहार को भाजपा और जदयू ने लालू के जंगलराज से बाहर निकाला, ठीक उसके विपरीत नीतिश कुमार अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते एक बार फिर बिहार को जंगलराज की ओर ले जाने की राजनीति खेल रहे हैं। इसके पीछे नीतिश को प्रेरणा कहां से मिली। क्या इसके पीछे विदेशी शक्तियां सक्रिय हैं? इसका जवाब उन बयानों के आधार पर हां में हो सकता है, जिसमें कहा गया था कि नीतिश कुमार विदेशी हाथों में खेल रहे हैं, जनता दल यूनाइटेड के एक नेता ने ही एक बार नीतिश कुमार पर यह आरोप लगाया था कि उन्हें दुश्मन देश से पैसा मिलता है। अब यह तो यह तो साफ है कि जो भी देश पैसा देता है वह अपने हिसाब से ही काम कराएगा। हम जानते हैं कि भारत को विकास के रास्ते पर ले जाने के लिए प्रयासरत भाजपा के नरेन्द्र मोदी को कई दुश्मन देश केवल इसलिए नापसन्द करते हैं क्योंकि इनके नेतृत्व में भारत जब शक्ति संपन्न हो जाएगा, तब यहां के शक्तिहीन नेताओं के माध्यम से वे अपने मुताबिक काम नहीं करा पाएंगे। वर्तमान में भारत के शत्रु देश इस बात की संभावनाएं जरूर तलाश रहे होंगे कि जो भी दल उनके अनुसार काम करने के लिए तैयार हो सकता है, उसकी सहायता अवश्य करना चाहिए। हो सकता है इस सबके पीछे यही अवधारणा काम कर रही हो, अगर इस भावना के साथ नीतिश कुमार राजद के लालू से हाथ मिलाने को तैयार हो रहे हैं तो यह देश के लिए अत्यंत ही घातक है।

इस प्रकार की सोच देश के लिए विनाशकारी ही साबित होगी। हम जानते हैं कि लालू प्रसाद यादव, नीतिश कुमार, मुलायम सिंह, मायावती और ममता बनर्जी जिस प्रकार की भाषा का उपयोग करते हैं और जिस प्रकार की राजनीति करते हैं, वैसी भाषा कम से कम भारत के किसी भी नेता की नहीं होना चाहिए। वास्तव में होना यह चाहिए कि देश ने जो जनमत दिया है उसका सम्मान पूरे देश को करना ही चाहिए, यही लोकतंत्र कहता है। आज भारतीय जनता पार्टी को जो जनादेश मिला है, वह कई दलों को केवल इसलिए नहीं पच रहा क्योंकि वे दल जानते ही नहीं हैं कि लोकतंत्र होता क्या है। अगर जानते होते तो कम से कम पराजित दलों को सरकार लेकर सरकार बनाने की कवायद नहीं की जाती। वर्तमान में पूरे देश में यही खेल चल रहा है कि कैसे भी करके देश की सत्ता हासिल की जाए, अगर भाजपा को मिले परिणामों में दस सीटें भी कम हो जातीं तो यह सारे दल एक होकर लोकतंत्र का गला घोंटने के लिए सहर्ष तैयार हो जाते। हमारे देश में केवल विरोध करने की राजनीति हाबी होती जा रही है, वास्तव में अच्छे कार्यों की दिल खोलकर प्रशंसा करना ही स्वस्थ राजनीति का सूत्र है, और देश में इसी प्रकार की राजनीति होना चाहिए। बिहार में जो कुछ चल रहा है ऐसी राजनीति को प्रारंभ से ही खारिज करना चाहिए, क्योंकि यह राजनीति केवल विरोध पर आधारित है। लोकतांत्रिक रूप से इसका कोई आधार ही नहीं है। भारत में सच्चे लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए सच को सच कहने का साहस ही भारत देश को विकास के रास्ते पर ले जा सकता है। आज सारे दलों को भारत के विकास के मुद्दे पर नरेन्द्र मोदी का दिल खोलकर साथ देना चाहिए। अगर वह कोई देश विरोधी कार्य करते हैं तो उनका निश्चित ही विरोध करें, अन्यथा नहीं।

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  1. कांग्रेस में परिवार से अलग देश या पार्टी का कभी अस्तित्व नहीं रहा है। तिलक की मृत्यु के बाद १९२० से मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस पर कब्जा कर लिया और गान्धी को मुखौटे की तरह इस्तेमाल करते रहे। दोनों ब्रिटेन द्वारा भारत को गुलाम बनाये रखने की योजना के अधीन काम कर रहे थे। नेहरू परिवार के विरुद्ध सुभाष बोस ने चुनाव जीता तो गान्धी ने उनके विरुद्ध सत्याग्रह कर दिया। यही हाल स्वाधीनता के बाद रहा । प्रधानमन्त्री के लिये उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त बाकी सभी राज्यों ने सरदार पटेल का समर्थन किया तो पुनः गान्धी का अनशन नेहरू के काम आया। एक बार प्रधान मन्त्री बनते ही पटेल, नरेद्र कृपलानी, पुरुषोत्तम टण्डन आदि को जल्द ठिकाने लगा दिया। लाल बहादुर शास्त्री को भी पाकिस्तान पर जीत होते ही ठिकाने लगा दिया गया। कांग्रेस के भीतर भी सोनिया के रास्ते में कोई नहीं बचा-संजय गान्धी, इन्दिरा गान्धी, राजीव गान्धी और प्रियंका के परिवार में उसके पति को छोड़ कर कोई भी व्यक्ति। केवल नरसिंह राव को बुरे स्वास्थ्य के कारण् अप्रधान मन्त्री बनाया गया था कि वे जल्द ऊपर चले जायेंगे। पर वे बचे रहे और बाकी मन्त्रियों के विरुद्ध मुकदमे कर वे सत्ता में बने रहे। क्या कांग्रेस में सोनिया, राहुअ प्रियंका की असफलता के बाद नेतृत्व के लिये कोई चिदम्बरम, अमरिन्दर सिंह, पृथ्वीराज चौहान, अजीत जोगी, या रेड्डी का नाम लेने का भी साहस कर सकता है। वाईएस आर रेड्डी को इसाई होने के कारण आन्ध्र का मुख्य मन्त्री बनाया तो गया पर उन पर अधिक आमदनी कर कम हिस्सा देने का सन्देह हुआ तो उनकी विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गयी और उनके पुत्र को भी प्रायः १ वर्ष तक जेल में रहना पड़ा। उनको जमानत देने का साहस करने वाले जज को भी जेल जाना पड़ा। यह कांग्रेसी प्रजातन्त्र की महिमा है।

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