‘आप’ हैं अराजकतावादियों के ‘बाप’

-राकेश कुमार आर्य-   aap
राजनीति  के लिए ‘अराजकतावाद’ का शब्द सर्वप्रथम क्रोपटकिन नामक राजनीतिक मनीषी ने दिया। क्रोपटकिन ने इस शब्द को यूं परिभाषित किया-”अराजकवाद जीवन तथा आचरण के उस सिद्धांत और वाद को कहते हैं जिसके अधीन समाज की कल्पना राज्यसंस्था से विरहित रूप में की जाती है। इस समाज में सामंजस्य उत्पन्न करने के लिए किसी कानून के पालन व किसी सत्ता की वशवत्रिता की आवश्यकता नहीं होती। इस समाज में सामंजस्य उत्पन्न करने का कार्यविविध प्रादेशिक व व्यावसायिक समुदायों द्वारा स्वेच्छापूर्वक किये गये, उन स्वतंत्र समझौतों द्वारा किया जाएगा, जिन्हें ये समुदाय आर्थिक उत्पादन व उपभोग के लिए और सभ्य प्राणी की विविध व अनंत आवश्यकताओं व आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए किया करेंगे।” विद्वानों ने क्रोपटकिन की अराजकवाद की इस परिभाषा को इस प्रकार व्याख्यायित किया है-
इस दशा में राज्य संस्था व सरकार का सर्वथा अभाव होगा।
इस दशा में कोई ऐसा कानून नहीं होगा, जिसका पालन करना मनुष्यों के लिए अनिवार्य हो,
कोई ऐसी सत्ता नहीं होगी, जिसके अधीन रहने के लिए मनुष्य विवश हों,
इस दशा में ऐसे समुदाय विद्यमान होंगे, जिनका निर्माण मनुष्य स्वेच्छापूर्वक कतिपय उद्देश्यों व प्रयोजनों को सम्मुख रखकर किया करेंगे।
कहने का अभिप्राय है कि अराजकतावाद वह स्थिति है, जिसमें कोई कायदे कानून, शर्म लिहाज, मान-मर्यादा नहीं चलती है। उसमें अराजकतावादी की केवल मनमानी चलती है, वह जो चाहे पूर्ण स्वतंत्रता से करे। उसकी स्वतंत्रता  पर किसी की कोई नकेल नहीं होगी, समाज की व्यवस्था को या राष्ट्र के तंत्र को वह जैसे चाहे चुनौती दे सकता है।
पिछले दिनों हमने दिल्ली पर कुछ स्वयंभू अराजकतावादियों का नियंत्रण होते देखा है। सत्ता उन्हें मिली नहीं है, अपितु दी गयी है, कांग्रेस ने केजरीवाल पर कृपा की और केजरीवाल से ही हारने वाली शीला दीक्षित ने सत्ता की चाबी उन्हें ही सौंप दी। नये लड़कों ने सत्ता पर कब्जा कर लिया। एक बुजुर्ग महिला ने ‘मुण्डों’ को दिल्ली का राजा बनवा दिया। उन ‘मुण्डों’ ने जल्दी ही सिद्घ कर दिया कि दिल्ली पर ‘गुण्डाराज’ कायम हो गया है। पुलिस से टकराहट मोल ली और पूरी दिल्ली को धरने प्रदर्शन की स्थिति में झोंक दिया। पूरे देश ने ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया ने देखा कि दिल्ली का ‘मुण्डाराज’ क्या कर रहा है? ‘मुण्डों’ के बादशाह ने बड़े ठाट से घोषणा कर दी कि ”मैं अराजकतावादी हूं।” सत्ता मिलते ही मान्यवर को लगा कि ‘क्रांति’ हो गयी है और अब जो चाहो सो करो। इसलिए पूरे देश के लोगों का और दिल्ली के सरकारी कर्मियों का आवाहन कर दिया कि वे एक दिन का अवकाश लेकर उनके धरने प्रदर्शन में सम्मिलित हों। मुझे एक प्रसंग स्मरण आ रहा है। बात 1857 ई. की है। जब देश में पहले स्वातंत्रय समर की हवा बह रही थी। तब हमारे कुछ क्रांतिकारियों ने दिल्ली के बूढ़े मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के भीतर ‘जवानी’ भर दी और उन्हें हिंद की क्रांति का नेता घोषित कर दिया। तब के ‘बूढ़े भारत’ अर्थात बहादुर शाह जफर की ओर संकेत करते हुए सुभद्रा कुमारी चौहान ने भी लिख दिया था-
चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी।
बूढ़े भारत में भी फिर से आयी नई जवानी थी।।
बहादुरशाह जफर ने खुद भी लिख दिया-
गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की।
तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।।
परंतु जब अंग्रेजों से लड़ाई हुई तो बूढ़े बादशाह को सच का पता चल गया और सुबह जो बादशाह उक्त पंक्तियों को गुनगुना रहा था वह युद्घ के दिन दोपहर तक ही टूट गया और कहने लगा :-
दमदमे में दम नहीं अब खैर मांगू जान की।
बस ‘जफर’ अब हो चुकी शमशीर हिंदुस्तान की।
यही स्थिति धरने पर बैठने वालों और धरने से उठने वाले अराजकतावादी मुख्यमंत्री केजरीवाल की थी। धरने पर बैठते समय उन्हें लग रहा था कि शायद सारी धरती को पलट कर ही उठेंगे, पर जनता ने कोई उत्साहवर्धक समर्थन नहीं दिया तो जान की खैर मांगने लगे। सुबह श्रीमान कह रहे थे कि ‘बीच का रास्ता’ क्या होता है और शाम को ‘बीच का रास्ता’ मानकर ही घर को  लौट आये। अब आप की भीतर की स्थिति पर विचार करते हैं। भारत जैसे देश में किसी भी राजनीतिक पार्टी को स्थापित करना और उसका ‘आप’ की तर्ज पर उत्थान होना, कम आश्चर्य की बात नहीं है। इतनी शीघ्रता से पार्टी को उठाने के लिए बहुत भारी धन की आवश्यकता होती है। इस धन को केजरीवाल को कहां से किन लोगों ने उपलब्ध कराया है, यह रहस्य अब अधिक रहस्य नहीं रह गया है। लोगों ने अमेरिका जैसे देशों की ओर संकेत किया है कि उसने कांग्रेस की डूबती लुटिया को देखकर तथा मोदी को सत्ता से दूर रखने के लिए ‘केजरी एण्ड कंपनी’ को आर्थिक मदद की है। कई आरोप ऐसे लगे हैं, जिनसे ‘आप’ की निष्ठा ही संदिग्ध हो गयी है, और उसका अराजकतावादी दृष्टिकोण भी लोगों की समझ में आ गया है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ‘केजरी एण्ड कंपनी’ के अराजकतावाद पर कड़ा संज्ञान लेकर स्थिति स्पष्ट कर दी है कि संविधान और कानून की धज्जियां उड़ाने की अनुमति किसी को भी नहीं दी जा सकती। अब देश के प्रधानमंत्री की योग्यता रखने वाले राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भी गणतंत्र दिवस के अवसर पर राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में अराजकतावाद गंभीर टिप्पणी की है। बात भी सही है कि यदि कोई व्यक्ति संविधान की सौगंध लेकर और विधि द्वारा स्थापित शासन को सुचारू रूप से चलाने की प्रतिज्ञा लेता है। अराजकतावादी बनता है तो उसे लोकतंत्र में ऐसी अनुमति नहीं दी जा सकती। वैसे भी अराजकतावाद लोक और तंत्र दोनों की मर्यादाओं का भक्षक है। लोकतंत्र अपने किसी भी व्यक्ति या राजनीतिक या सामाजिक संगठन को अपना विरोध प्रदर्शन करने का लोकतांत्रिक और संवैधानिक रास्ता बताता है, और उपाय भी उपलब्ध कराता है। उन सारे रास्तों को या उपायों को अपनाने की बजाए सीधे कानून को हाथ में लेने की डगर पर चलना देश की पूरी व्यवस्था को ही चुनौती देने के समान था और यह निश्चित है कि इतना बड़ा दुस्साहस करना विदेशी शक्तियों के इशारों के बिना संभव नहीं था। वैसे भी आप का भारतीय संस्कृति, धर्म, इतिहास और सांस्कृतिक मूल्यों से कोई संबंध नहीं है। उसने इन प्रतिमानों को कांग्रेस से भी अधिक बुरे ढंग से उपेक्षित किया है।
कश्मीर के विषय में प्रशांत भूषण ने जनमत संग्रह की जो बात कही है, वह चाहे अब कितनी ही पुरानी क्यों न हो गयी हो, परंतु यह आप का अपना चिंतन था। वह प्रशांत भूषण की राय नहीं थी। केजरीवाल ने भी प्रशांत भूषण के उस बयान पर यह नहीं कहा था कि कश्मीर का भारत में विलय अंतिम है और अब यहां किसी प्रकार के जनमत संग्रह को पार्टी उचित नहीं मानती है, इसलिए पार्टी प्रशांत भूषण से इस विषय में जवाब तलब करेगी और यदि आवश्यक हुआ तो उनके विरूद्घ कार्यवाही भी की जाएगी। इस सारे प्रकरण को देखकर यही लगा कि पार्टी ने प्रशांत को शांत वातावरण में आग  लगाने के लिए जानबूझकर प्रयोग किया और जब  लपटें उठती देखीं तो कश्मीर पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किये बिना ही उन लपटों से धीरे से प्रशांत को बचा लिया। कोई सोच नहीं, कोई दर्शन नहीं कोई सिद्घांत नहीं और कोई मान्यता नहीं, ऐसी है ‘आप’। फिर भी इसका उत्थान और स्थापना देश में हो गयी है तो इसके पीछे कारण केवल ये है कि देश की राजनीति से लोगों का मोह भंग हो रहा था, कांग्रेस के भ्रष्टाचार से लोग तंग थे, इसलिए कांग्रेस को धोकर सत्ता किसी अन्य दल को देना अच्छा माना जा रहा था। दिल्ली की जनता ने इसके उपरांत भी सत्ता मोदी की भाजपा को दी, परंतु सिरों की गिनती के खेल में भाजपा पिछड़ गयी तो जुगाडू़ लोकतंत्र की गाड़ी बनाकर सत्ता सुंदरी का अपहरण आप ने किया और राजनीतिक भ्रष्टाचार की एक मिसाल कायम कर दी। जिनसे सैद्घांतिक और मौलिक मतभेद थे, उन्हीं से सत्ता के लिए समझौता कर लिया। अब देश में धड़ाधड़ ‘आप’ का सदस्यता अभियान चलाने की बारी आयी। आप के जानकारों का कहना है कि यह अभियान भी एक नौटंकी है। आगामी लोकसभा चुनावों के लिए टिकटों का निर्धारण पहले ही हो गया है। अब जो खेल हो रहा है वह केवल सदस्यता अभियान के नाम पर पार्टी के लिए ‘फण्ड’ तैयार करने की नौटंकी मात्र है। एक ही व्यक्ति को एक निश्चित धनराशि और एक निश्चित सीमा तक सदस्यता भर्ती करने की अनिवार्यता बता दी गयी है, जिससे एक ही लोकसभा क्षेत्र में कई कई संभावित उम्मीदवार बोगस सदस्यता अभियान चला रहे हैं, और पार्टी के लिए ‘फण्ड’ की व्यवस्था कर रहे हैं। इससे करोड़ों रूपये का जुगाड़ एक ही लोकसभा क्षेत्र से हो जाना संभावित है। इसे ही कहते हैं ‘आम के आम गुठलियों के दाम’। आप ने धरना प्रदर्शन के माध्यम से एक सफलता भी प्राप्त की है। धरना प्रदर्शन के समय से अब इस पार्टी की आलोचना चाहे जितनी हो रही हो, परंतु अब इस पर अपने चुनावी वायदों को पूरा करने का मनोवैज्ञानिक दबाव तो कम हो ही गया है। जनता ने अनुभव कर लिया है कि वह ठगी गयी है और आप नेताओं ने स्पष्ट कह दिया है कि उन्हें कानून की कच्ची जानकारी थी, इसलिए कुछ चूकें हुई हैं। एक बात जो आपने स्वीकार नहीं की है वो ये है कि अभी इस पार्टी के नेताओं को सत्ता में आ जाने की उम्मीद नहीं थी, अभी ये दिल्ली की विधानसभा में विपक्ष में बैठकर हो-हल्ला करने तक का ही सपना देख रहे थे। इनके लिए उचित भी यही होता कि अभी इन्हें कुछ सीखने दिया जाता, परंतु भला हो कांग्रेस का कि हो-हल्ला वालों को ही सत्ता का मालिक बना दिया। हो-हल्ला वालों का कानून और संविधान से क्या मतलब? उन्हें तो हल्ला करना था सो करके दिखा दिया। जितनी जिसकी योग्यता होती है उससे अधिक की उससे अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। इस हल्ला योग्यता का दूसरा नाम ही अराजकता है। अब इस पार्टी के नाम से ‘आम’ समाप्त हो गया है और ‘अराजकतावादी आदमी पार्टी बनकर’ रह गयी है।
अराजकतावादियों का मानना है कि अराजक दशा में मनुष्यों व समुदायों का सामंजस्य होना तनिक भी कठिन नहीं है। यह सामंजस्य स्वयंमेव ही हो जाता है। फूरियर ने कहा है कि:-”कंकड़ों को लीजिए और उन्हें एक बक्स में डालकर हिला दीजिए। वे अपने आप एक ऐसे सुंदर आकार में सज जाएंगे जैसे कि कोई उन्हें सामंजस्यपूर्वक सजाने का प्रयत्न करने पर भी नहीं सजा सकता।” अब इन अराजकतावादियों को कौन समझाए कि बक्स में डाले गये (आप विधायक) कंकड़ों को हिलाने का नाम भी तो व्यवस्था ही है। आपके साथ समस्या ही ये है कि इसके कंकड़ हिलाए नहीं गये, और बिना हिले ही ये स्वयं को व्यवस्थित बता रहे हैं, तब तो आप अराजकतावादियों के भी बाप हैं।
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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

4 COMMENTS

  1. संविधान में कहीं नही लिखा क एक सीएम सड़क पर धरना नही दे सकता जहां तक मीडिया के अराजकता के रूदन का मामला है दिल्ली कि अधिकाँश जनता इस मुद्दे पर आप के साथ है लोकसभा चुनाव में साबित हो जाएगा.

    • और शायद इसीलिए काशमीर में उन हिंदुओ को आज तक वोट देने का अधिकार नहीं मिला जो पाकिस्तान से विस्थापित होकर भारत आए थे। क्योंकि संविधान में उनके बारे में कुछ लिखा ही नहीं गया।
      और शायद इसीलिए बांग्लादेश के घुसपैठियों को भारत से नहीं निकाला जा रहा है क्योंकि संविधान में उनके बारे में भी कुछ नहीं लिखा।
      और शायद इसीलिए अपने देश में ही काशमीर के लिए शरणार्थी कहे जा रहे है। कुछ लोग आज तक संविधान के पन्ने पलट पलट कर देख रहे है कि इन्हे शरणार्थी कहें या क्या कहें। पन्ने पलटने के इस खेल में हमें 67 साल बीत गए हैं।
      संविधान ने पंथनिरपेक्षता की भावना पैदा की और हमने उसका अर्थ लगा लिया “सर्व धर्म संभाव” । पंथनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य का कोई पंथ नहीं होगा पर हमने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर तुष्टीकरण का इतना घिनोना खेल खेलना शुरू कर दिया कि पंथसापेक्षता भी शर्मसार हो गई ।
      नैतिकता के नाम पर अनैतिकता को भड़ावा देना नितांत गलत होता है।
      धरणे के लिए विकल्प तब खुले होते है जब पहले अन्य लोकतान्त्रिक उपाय अपना लिए गए हों ।
      “लोक लुभावन अराजकता” पैदा करना कुछ देर के लिए अच्छा हो सकता है परंतु उसके परिणाम अछे नहीं आ सकते।
      तुष्टीकरण का नाम पंथनिरपेक्षता नहीं है अपितु सरदार पटेल उस कड़ी और स्पष्ट भाषा में पंथ निरपेक्षता छिपी हुई है कि अधिकार सबके समान हों पर पहले कर्तव्य निभाने में सब समान हों
      ऐसा नहीं हो सकता है कि कर्तव्य निभाने के लिए कोई और आए और अधिकार मांगने के लिए सब छाती पीटने लगें।

      • अति उत्तम विचार और .. बहुत सटीक प्रतिक्रिया की है आपने इस इक़बाल भाई कि बे-सिरपैर कि टिपण्णी पर…

        बधाई

        • आर त्यागी जी नमस्कार,
          इस देश की सबसे बड़ी समस्या ही ये है कि यहाँ वही होता है जो संविधान मे नही लिखा होता।लोक लुभावन राजनीति,तुस्टिकरण के लफड़ो ने नेताओ को केवल प्रपंची बनाकर रख दिया हैं।
          अभी पिछले दिनो में राजस्थान के जोधपुर मे था तब भी मुझे ऐसे ही लोगो की सोच पर तरस आ रहा था जो कहते है कि संविधान मे ऐसा नही लिखा…….. ।
          दूर-दूर तक राजस्थान की इस भूमि पर हरियाली का अभाव था ऐसे ही द्रशय देश के दूसरे कई राज्यो मे भी देखे जा सकते हैं ।मैं सोच रहा था कि इस भूमि को हरा भरा करने के प्रयास इसलिए नही किए गए कि ऐसा करना संविधान मे नही लिखा था ।
          जहां काम करना चाहिए वहाँ काम नहीं होता,यदि सही जगह काम किया जाये तो देश वास्तविक खुशहाली की ओर बढ़ सकता हैं।स्वामी विवेकानंद के वो शब्द आज भी हमारे लिए अनुकरणीय हो सकते हैं कि सब एक राष्ट्रदेव की आराधना के लिए एक साथ उठ खड़े हुए हो।लेकिन इस आराधना के स्वरो मे किसके स्वर नहीं मिलेंगे यह सब जानते हैं। उन स्वरो को यदि किसी ने मिलाने का प्रयास किया तो वह संप्रयदिक माना जाता हैं।
          हम आगे बढ़ रहे है या पीछे की ओर जा रहे हैं।

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