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आपने सुना, पशु-पक्षी भी गे /लेस्बियन होते हैं ………..

homosex समलैंगिकता के समर्थकों से बहस टेढी खीर है । महाभारत काल से लेकर वात्स्यायन के कामसूत्र तक का जिक्र झटके में हो जाए तो कोई भी साधारण आदमी घबरा कर इधर-उधर ताकता नजर आता है । अरे इनकी माने तो दुनिया के आरम्भ से ही समलैंगिकता का स्थान मानव जीवन में बना हुआ है और कई प्राचीन ग्रन्थ उसके साक्षी हैं । ये वही प्रगतिशील लोग हैं जो इन्ही ग्रंथों को काल्पनिक बताते हैं , रामायण और महाभारत काल जैसी घटनाएँ इनके लिए अतीत न होकर मिथक है ! आज अपनी मानसिक विकृतियों के बचाव में उन्ही के संदर्भों का सहारा लेना क्या इनका दोगलापन नही है ? अरे – अरे , गलती हो गई भाई ! मैं तो भूल ही गया था १९८० में अमेरिकी मनोचिकित्सकों के संघ ने इसे मतदान की प्रक्रिया के सहारे मानसिक विकृतियों की सूची से मुक्ति दे दी थी । आज तो इसे सामान्य व्यवहार कहा जाने लगा है । बड़े -बड़े अख़बारों में , नामचीन लेखकगण कलम की स्याही घस रहे हैं । आज ही जनसत्ता में किसी ने इसकी वकालत में डार्विन को भी उतार दिया । बकौल लेखक डार्विन ने कहा था कि यह व्यवहार मानव समेत सभी जानवरों में पाया जाता है । वाह क्या बात है ! पर कहने से काम नही चलेगा चाहे किसी ने भी कहा हो । आप लोगों में से किसी ने भी अपने जीवन में पशुओं को समलिंगिक यौनाचार करते देखा है क्या? कुछ भी हो एक कुत्ता भी अपने लिए कुतिया ही खोजता है !

यह बहस व्यक्तिगत न होकर सार्वजनिक है और जब समाज की बात आती है तो व्यक्ति का गौण हो जाना ही उचित है । नैतिकता -अनैतिकता तथा प्राकृतिक-अप्राकृतिक होने से ज्यादा सामाजिक -गैरसमाजिक होने से फर्क पड़ता है । लोक-व्यवहार में उन बातों को ग़लत माना जाता है जिसकी प्रवृति कम लोगों में हो । “गे- कल्चर ” को अब तक भारत में सामाजिक मान्यता नहीं मिली है बावजूद इसके व्यक्तिगत स्वतंत्रता की छतरी लगाये अनैतिकता से बचने की कोशिश जारी है। समलैंगिक सेक्स पहले भी होता रहा है। किशोरावस्था में सेक्सुअल शारीरिक बदलावों से उत्पन्न उत्सुकता की वज़ह से एक्के -दुक्के लोग ऐसा करते थे । आज की तरह तब कोई लेस्बियन /गे समाज नही था। समाज की नजर में ये तब बुरी बात थी बहुत हद तक आज भी है। पर कहीं न कहीं आज ये सब फैशन बनता जा रहा है। समलैंगिक होना अप्राकृतिक है यह सब जानते -बुझते हैं। भला एक पुरूष -पुरूष के साथ ,एक स्त्री-स्त्री के साथ पूरा जीवन कैसे गुजार सकती है ? उनके मध्य वो भावनात्मक जुडाव कैसे आ सकता है जो दो विपरीत लिंगों के प्रति एक स्त्री-पुरूष के मध्य होता है। इस बात को विज्ञान भी मानता है। आज कदम -कदम पर आधुनिकता के नाम पर सामाजिक दायरे, सदियों से चली आ रही परम्पराए तोड़ी जा रही हैं। मुझे पता है आप कहेंगे कि परम्पराएँ टूटनी ही चाहिए। ठीक हैं मैं भी कहता हूँ, हाँ पर वो परम्पराएँ ग़लत होनी चाहिए। ध्यान रहे कभी प्रथाएं नहीं टूटी बल्कि कुप्रथाएं तोड़ी गई । इसे बदलाव नहीं आन्दोलन कहा गया। वर्तमान समय में युवा वर्ग मानसिक तौर पर उत्तर आधुनिक है या बनना चाहता है। आज का प्रगतिशील युवा अक्सर परम्पराओं को रूढ़ी कहना ज्यादा पसंद करता है। और इसको तोड़ कर ख़ुद को विकास की दिशा में अग्रसर समझता है। यहाँ हमें परम्पराओं तथा रुढियों में अन्तर करना सीखना होगा। समय रहते चेतिए । आधुनिकीकरण और विकसित बनने के चक्कर में कहीं आने वाली नस्लें केवल भोगवादी न हो जाए । इसी भोग ने सदियों से पूर्व और पाश्चात्य का भेद बना कर रखा है। दौर चाहे भूमंडलीकरण का हो या बाजारीकरण का हमें इस बात को समझना चाहिए कि भारत के चारो ओर भौगोलिक ही नहीं वरण सांस्कृतिक और संवेदनात्मक घेरा भी है ।