तेरी वक्रोक्ति को लबों की सजावट समझकर
हम खिल खिलाते रहे मुस्कुराहट समझकर
जब जब घण्टी बजी किसी भी द्वार की
हम दौड कर आये तेरी आहट समझकर
ना आना था , ना आये तुम कभी
संतोष कर लिया तेरी छलावट समझकर
मजमून तो कोई खास नहीं था चिठी का
पर पढते रहे तेरी लिखावट समझकर
वो गिरते गये गिरने की हद से भी ज्यादा
हम उठाते रहे उनकी थिसलाहट समझकर
उनकी तो मंशा ही कुछ और निकली ” ठाकन”
हम तो झुकते रहे यों ही तिरिया हठ समझकर