युवा और राजनीति

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विजय कुमार

 

राजनीति में युवाओं की भूमिका कैसी हो, इस पर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है। पिछले दिनों राहुल गांधी ने विभिन्न माध्यमों से युवा पीढ़ी से सम्पर्क किया। विश्वविद्यालयों में जाकर उन्होंने युवाओं से राजनीति को अपनी आजीविका (कैरियर) बनाने को कहा; पर उनका यह विचार कितना समीचीन है, इस पर विचार आवष्यक है।

 

 

यह तो सच ही है कि भारत एक युवा देश है। पिछले लोकसभा चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी बनाम राहुल गांधी की लड़ाई में युवा होने के कारण राहुल भारी पड़े। यद्यपि पर्दे के आगे मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं; पर सरकार में सबसे अधिक सोनिया और राहुल की ही चलती है। राहुल की इस सफलता से सब दलों को अपनी सोच बदलनी पड़ी। सबसे बड़े विपक्षी दल भाजपा ने तो अपना अध्यक्ष ही 52 वर्षीय नितिन गडकरी को चुन लिया। अब सब ओर युवाओं को आगे बढ़ाने की बात चल रही है। भावी राजनीति के एजेंडे पर निःसंदेह अब युवा आ गये हैं।

 

 

लेकिन युवाओं का राजनीति से जुड़ना और उसे आजीविका बनाना दोनों अलग-अलग बातें हैं; पर राहुल गांधी दोनों को एक साथ मिलाकर भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं।

 

 

सबसे पहली बात तो यह है कि राजनीति नौकरी, व्यवसाय या खेती की तरह आजीविका नहीं है। नौकरी शैक्षिक या अनुभवजन्य योग्यता से मिलती है, जबकि खेती और व्यापार प्रायः पुश्तैनी होते हैं। यद्यपि कांग्रेस और उसकी देखादेखी अधिकांश दलों ने राजनीति को भी पुश्तैनी बना लिया है; पर यह सैद्धान्तिक रूप से गलत है। प्रत्याशी भी चुनाव में हाथ जोड़कर वोट मांगते समय यही कहते हैं कि इस बार हमें सेवा का अवसर दें। जनता किसे यह अवसर देती है, यह बात दूसरी है; पर इससे स्पष्ट होता है कि राजनीति आजीविका न होकर समाज सेवा का क्षेत्र है।

 

 

भारतीय लोकतंत्र एवं संविधान लगभग ब्रिटिश व्यवस्था की नकल है। उसी के अनुरूप यहां जन प्रतिनिधियों को वेतन तथा अन्य भत्ते दिये जाते हैं। जन प्रतिनिधि लगातार अपने क्षेत्र में घूमते हैं। सैकड़ों लोग उनसे मिलने हर दिन आते हैं, जिनके चाय-पानी में बड़ी राशि व्यय होती है। यह राशि सरकार दे, इसमें आपत्ति नहीं है; पर राजनीति किसी के घर चलाने का एकमात्र साधन बन जाए, यह नितांत अनुचित है।

 

 

राजनीति में उतार-चढ़ाव आते ही हैं। लोग चुनाव हारते और जीतते रहते हैं। यदि राजनीति ही आजीविका का एकमात्र साधन होगी, तो चुनाव हारने पर व्यक्ति अपना घर कैसे चलाएगा ? यह बिल्कुल ऐसा ही है, जैसे किसी की नौकरी छूट जाए, या उसे व्यापार में घाटा हो जाए या खेती धोखा दे जाए। ऐसे में व्यक्ति अपने मित्रों, परिजनों या बैंक के कर्ज आदि से फिर काम को जमा लेता है; पर राजनीति में तो ऐसा सहयोग नहीं मिलता। फिर उसके परिवार का क्या होगा ? या तो वह चोरी-डकैती करेगा या आत्महत्या। और यह दोनों ही अतिवादी मार्ग अनुचित हैं।

 

 

एक दूसरे दृष्टिकोण से इसे देखें। यदि सब जन प्रतिनिधि युवा ही बन जाएं, तो भी कुल मिलाकर कितने युवा आजीविका पा सकेंगे। लोकसभा, राज्यसभा, देश भर की विधानसभा और विधान परिषद को मिला कर संभवतः 10,000 स्थान बनते होंगे। यदि इसमें जिला और नगर पंचायतों के प्रतिनिधि मिला लें, तो संख्या 25,000 होगी। यदि इसमें देश की पांच लाख ग्राम पंचायतें और जोड़ लें, तो यह संख्या सवा पांच लाख हो जाएगी। यदि हर युवा राजनीति को ही आजीविका बनाने की सोच ले, तो शेष 40-45 करोड़ युवा क्या करेंगे ?

 

 

कौन नहीं जानता कि राजनीति और चुनाव का चस्का एक बार लगने पर आसानी से छूटता नहीं है। व्यक्ति चाहे हारे या जीते; पर वह इस क्षेत्र में ही बना रहना चाहता है। आजकल राजनीति पूर्णकालिक काम हो गयी है। इसमें अत्यधिक पैसा खर्च होता है, जिसकी प्राप्ति के लिए व्यक्ति भ्रष्ट साधन अपनाता है। इसीलिए स्थानीय नेता प्रायः ठेकेदारी करते मिलते हैं। इस दो नंबरी धंधे से वे एक झटके में लाखों-करोड़ों रु0 पीट लेते हैं। कई नेता एन.जी.ओ बनाकर सेवा के नाम पर घर भरते हैं। क्या राहुल गांधी ऐसे ही भ्रष्ट युवाओं की फौज देश में तैयार करना चाहते हैं ?

 

 

यदि किसी को भ्रम हो कि युवा लोग भ्रष्ट नहीं होते, तो राजीव गांधी को देख लें। प्रधानमंत्री बनते ही देश ने उन्हें ‘मिस्टर क्लीन’ की उपाधि दी थी। उन्होंने कांग्रेस को सत्ता के दलालों से दूर करने का आह्नान किया था। सबको लगा था कि राजनीतिक उठापटक से दूर रहा यह व्यक्ति सचमुच कुछ अच्छा करेगा। इसीलिए सहानुभूति लहर के बीच जनता ने उसे संसद में तीन चौथाई बहुमत दिया; पर कुछ ही समय में पता लग गया कि वह भी उसी भ्रष्ट कांग्रेसी परम्परा के वाहक हैं, जिस पर उनके नाना, मां और आम कांग्रेसी चलते रहे हैं। मिस्टर क्लीन बोफोर्स दलाली खाकर अंततः ‘मिस्टर डर्टी’ सिद्ध हुए।

 

 

अपनी अनुभवहीनता और देश की मिट्टी से कटे होने के कारण राजीव गांधी के अधिकांश निर्णय नासूर सिद्ध हुए। उन्होंने ही अंग्रेजीकरण को अत्यधिक बढ़ावा दिया, जिससे ग्राम्य प्रतिभाओं के उभरने का मार्ग सदा को बंद हो गया। पहले गरीब व्यक्ति अपने बच्चों को पाठशाला में भेजकर संतुष्ट रहता था; पर आज अंग्रेजी बोलने वाले ही नौकरी पा सकते हैं। इसलिए अपना पेट काटकर भी लोग बच्चों को महंगे अंग्रेजी विद्यालय में भेजने को मजबूर हैं। अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण भारत में स्थानीय भाषा और बोलियों का मरना जारी है। यह सब राजीव गांधी की ही देन हैं।

 

 

विदेश नीति के मामले में भी राजीव गांधी अनाड़ी सिद्ध हुए। उन्होंने तमिलनाडु की राजनीति में कांग्रेसी प्रभाव बढ़ाने के लिए श्रीलंका में लिट्टे को बढ़ावा दिया; पर जब लिट्टे सिर पर सवार हो गया, तो उन्होंने वहां शांति सैनिकों को भेज दिया। इससे भारत के सैकड़ों सैनिक मारे गये और विश्व भर में हमारी थू-थू हुई। श्रीलंका जैसे मित्र देश की एक बड़ी जनसंख्या के मन में भारत के प्रति स्थायी शत्रुता का भाव पैदा हो गया। राजीव की हत्या भी इसीलिए हुई। स्पष्ट है कि राजनीति में यौवन की अपेक्षा देश-विदेश के मामलों का अनुभव अधिक महत्वपूर्ण है।

 

 

लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि युवा पीढ़ी राजनीति से अलिप्त हो जाए; उसे देश के वर्तमान और भविष्य से कुछ मतलब ही न हो ? यदि ऐसा हुआ, तो यह बहुत ही खतरनाक होगा। इसलिए उन्हंे भी राजनीति में सक्रिय होना चाहिए; पर उनकी सक्रियता का अर्थ सतत जागरूकता है। ऐसा हर विषय, जो उनके आज और कल को प्रभावित करता है, उस पर वे अहिंसक आंदोलन कर देश, प्रदेश और स्थानीय जनप्रतिनिधियों को अपनी नीति और नीयत बदलने पर मजबूर कर दें। ऐसा होने पर हर दल और नेता दस बार सोचकर ही कोई निर्णय लेगा।

 

 

स्वाधीनता के आंदोलन में हजारों युवा पढ़ाई छोड़कर कूदे थे। क्या भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू, आजाद आदि राजनीतिक रूप से निष्क्रिय थे, चूंकि उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा ? 1948 में गांधी हत्या के झूठे आरोप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगे प्रतिबंध के विरुद्ध लगभग 70,000 स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया। उनमें से अधिकांश युवा थे। सत्तर के दशक में असम में घुसपैठ विरोधी आंदोलन हुआ। 1974-75 में इंदिरा गांधी के भ्रष्ट प्रशासन, आपातकाल और फिर संघ पर प्रतिबंध के विरुद्ध भी एक लाख लोग जेल गये। श्रीराम मंदिर आंदोलन में लाखों हिन्दुओं ने कारावास स्वीकार किया। यद्यपि इनमें से दस-बीस लोग सांसद और विधायक भी बने; पर क्या शेष लोग राजनीतिक रूप से निष्क्रिय माने जाएंगे, चूंकि उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा ?

 

 

स्पष्ट है कि राजनीतिक सक्रियता का अर्थ चुनाव लड़ना नहीं, सामयिक विषयों पर जागरूक व आंदोलनरत रहना है। बहुत से लोगों के मतानुसार वोट देने की अवस्था भले ही 18 वर्ष कर दी गयी हो; पर चुनाव लड़ने की अवस्था 50 वर्ष होनी चाहिए। जिसे नौकरी, खेती, कारोबार और अपना घर चलाने का ही अनुभव न हो; जिसने जीवन के उतार-चढ़ाव न देखें हों, वह अपने गांव, नगर, जिले, राज्य या देश को कैसे चला सकेगा ?

 

 

भारतीय जीवन प्रणाली भी इसका समर्थन करती है। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ के बाद 25 वर्ष का वानप्रस्थ आश्रम समाज सेवा को ही समर्पित है। इस समय तक व्यक्ति अपने अधिकांश घरेलू उत्तरदायित्वों से मुक्त हो जाता है। उसे दुनिया के हर तरह के अनुभव भी हो जाते हैं। काम-धंधे में नयी पीढ़ी आगे आ जाती है। यही वह समय है, जब व्यक्ति को समाज सेवा के लिए अपनी रुचि का क्षेत्र चुन लेना चाहिए, जिसमें से राजनीति भी एक है। हां, यह ध्यान रहे कि उसे 75 वर्ष का होने पर यहां भी नये लोगों के लिए स्थान खाली कर देना चाहिए।

 

 

यदि युवा पीढ़ी तीन सी (बपदमउंए बतपबामज – बंतममत . सिनेमा, क्रिकेट एवं कैरियर) से ऊपर उठकर देखे, तो सैकड़ों मुद्दे उनके हृदय में कांटे की तरह चुभ सकते हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार, कामचोरी, राजनीति में वंशवाद, महंगी शिक्षा और चिकित्सा, खाली होते गांव, घटता भूजल, मुस्लिम आतंकवाद, माओवादी और नक्सली हिंसा, बंगलादेशियों की घुसपैठ, हाथ से निकलता कश्मीर, जनसंख्या के बदलते समीकरण, किसानों द्वारा आत्महत्या, गरीब और अमीर के बीच बढ़ती खाई आदि तो राष्ट्रीय मुद्दे हैं। इनसे कहीं अधिक स्थानीय मुद्दे होंगे, जिन्हें आंख और कान खुले रखने पर पहचान सकते हैं।

 

 

आवश्यकता यह है युवा चुनावी राजनीति की बजाय इस ओर सक्रिय हों। उनकी ऊर्जा, योग्यता, संवेदनशीलता और देशप्रेम की आहुति पाकर देश का राजनीतिक परिदृश्य निश्चित ही बदलेगा।

2 COMMENTS

  1. युवा और राजनीति – by – विजय कुमार

    श्री विजय कुमार जी का विचार है कि युवा का राजनीती से जुड़ना और उसे आजीविका बनाना अलग विषय हैं. युवा सजग हो, विचार रखे, परन्तु चुनाव राजनीती से दूर रखा जाये.

    राहुल गाँधी दोनों को मिला कर भ्रम पैदा कर रहे हैं.

    राजनीती समाजसेवा है.

    राजनीती को आजीविका बनाना तो ऐसा होगा जैसे समाजसेवा को पुश्तैनी व्यापार एवं खेती बनाना.

    विजय कुमार जी चुनाव-राजनीती को ५० से ७५ वर्ष की आयु तक में सीमित रखना चाहेंगे जो समय वानप्रस्थ आश्रम का है.

    यह इस लिए कि राजनीती में यौवन के अपेक्षा द्रेश-विदेश के मामलों का अनुभव अधिक महत्व पूर्ण है.

    पठन-पाठन (२५ वर्ष आयु तक), सांसारिक व्यापार-नौकरी-खेती का अनुभव (२५ से ५० वर्ष आयु तक) के उपरांत, श्री गडकरी की भांती ५०-५२ की आयु में कुशल राजनीती कर सकता है.

    इसके मुकाबले राहुल गाँधी तो महाविद्यालय-विश्वविद्यालयो से व्यावसायिक हैसियत के २२-२५ वर्ष के राजनैतिक भर्ती करने के चक्कर में है.

    २१ वर्ष आयु से चुनाव उमीदवार बना जा सकता है परन्तु देश के हित के लिए चुनाव ५० वर्ष आयु के उपरांत.

    माननीय विजय कुमार जी ने एक महत्वपूर्ण विषय उठाया है. इसकी व्यापक चर्चा होनी चाहिए.

    – अनिल सहगल –

  2. hmara desh ne anek areas me tarrki hai prantu nako parivar aj bhi gulam hai rajneti me anako parivaro ke gulam hai jaise gandhi parivar ;chaudhrycharansinh parivar ,mulayam parivar ,lalu parivar,etc rahul gandhi is parivar me paidha na hote to pm to dhoor gaon ki panchayat ke member banne ke liye adhi umar nikal jati yeh parivar aaj rajneti me private farm ho gaye hai jiske liye hum jimmedar hai inka bhasan bhi kai log likhte hai jis bhi rajay me inse hatkar aye us rayaya ne alag hi taraki ki hai atay mera sujav hai ki har hindustani in parivaro se hatkar alag jo nai nai vichare se jude varna bhavisya me bharat ka patan ho jayga

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