लावण्य रूप मोहती,
उत्कृषठ बुद्धि धारती,
अपार शक्ति व्यापती,
नारी शक्ति भारती।
स्त्री विमर्श त्यागती,
स्वयं को पहचानती,
आरक्षण नहीं मांगती,
संरक्षण नहीं चाहती।
स्नेह आदर स्वीकारती,
दासता धिक्कारती,
कर्तव्य सब निर्वाहती,
स्नेह से दुलारती।
लावण्य रूप मोहती,
उत्कृषठ बुद्धि धारती,
अपार शक्ति व्यापती,
नारी शक्ति भारती।
स्त्री विमर्श त्यागती,
स्वयं को पहचानती,
आरक्षण नहीं मांगती,
संरक्षण नहीं चाहती।
स्नेह आदर स्वीकारती,
दासता धिक्कारती,
कर्तव्य सब निर्वाहती,
स्नेह से दुलारती।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पत्रकारिता ने जन-जागरण में अहम भूमिका निभाई थी लेकिन आज यह जनसरोकारों की बजाय पूंजी व सत्ता का उपक्रम बनकर रह गई है। मीडिया दिन-प्रतिदिन जनता से दूर हो रहा है। ऐसे में मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठना लाजिमी है। आज पूंजीवादी मीडिया के बरक्स वैकल्पिक मीडिया की जरूरत रेखांकित हो रही है, जो दबावों और प्रभावों से मुक्त हो। प्रवक्ता डॉट कॉम इसी दिशा में एक सक्रिय पहल है।
प्रभु की अनुपम कृति ,
अनुपम रचना,वह है नारी,
सो जब रचा था प्रभु ने इस कृति को,
सोचा सब अर्पण कर दूँ ,
इसकी खाली आँचल को खुशियों से भर दूँ ।
सो दिया उन्होंने
रूप रंग,सोंदेर्ये ,
वह सामर्थ औ सहनशीलता
वह अतुलनीय नारी शक्ति ।
प्रभु को गर्व हुआ
अपनी इस कृति पर
सोचा क्यों न इसे ओर ऊँचा उठाऊँ ,
क्यों न इसे जगत जननी बनाऊँ,
क्यों न इसी से इस दुनिया पर राज कराऊँ ।
पर वह कृति वह नारी अब बोल पड़ी
” मै माता , मै जननी पावन बन जाऊँगी
धरा धाम पर रंग-बिरंगे नव पुष्प खिलाऊँगी ,
अपने उदरो में संसार समाऊँगी
लेकिन मै ठहरी चिर प्यासी,
अपने प्रियवर की अभिलाषी,
मै अपने जीवन को प्रियवर के चरणों मे पाऊँगी,
उनके चरणो की धूल अपने माथे से लगाऊँगी
हाथ पकड़कर उनका ,मै दुर्गा, मै काली बन जाउँगी ।
लकिन क्षण तक
मै प्यासी
अभिलाषी
प्रियवर की चरणों की दासी “
बहुत सुन्दर .
सहमति।
गोयल जी की टिप्पणी नें ध्यान आकर्षित किया। दोनों कविताएं अपने आप में सुन्दर हैं।
धन्यवाद।