मेरे महबूब !
उम्र की
तपती दोपहरी में
घने दरख्त की
छांव हो तुम
सुलगती हुई
शब की तन्हाई में
दूधिया चांदनी की
ठंडक हो तुम
ज़िन्दगी के
बंजर सहरा में
आबे-ज़मज़म का
बहता दरिया हो तुम
मैं
सदियों की
प्यासी धरती हूं
बरसता-भीगता
सावन हो तुम
मुझ जोगन के
मन-मंदिर में बसी
मूरत हो तुम
मेरे महबूब
मेरे ताबिन्दा ख्यालों में
कभी देखो
सरापा अपना
मैंने
दुनिया से छुपकर
बरसों
तुम्हारी परस्तिश की है…
-फ़िरदौस ख़ान
Like this:
Like Loading...
Related
wah!!subhan allah!!…….aakhir mai to sirf mai hi hu….par tum to mere sbkuchh ho…..
आप की कविता दिल को छु गए वास्तव में इसमें दिल से लिखे शब्द
झलकते है….