“पश्चिमी चिंतन की मर्यादाएँ”

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western thoughts
डॉ. मधुसूदन
सूचना:

विषय कुछ कठिन लग  सकता है, पर भारतीय चिंतकों को सामान्य रीति से इस विषय का, पता नहीं है; ऐसी मेरी धारणा है। इस लिए आज का आलेख प्रस्तुत किया है। सूक्ष्मताएं न भी समझ में आएँ, तो भी सार समझना पर्याप्त और भारत की अस्मिता के, हित में मानता हूँ।

(एक) भारत की संसार को,अनुपम देन
भारत की संसार को, एक अमूल्य और अनुपम देन “पतंजलि का योगदर्शन” माना जाता है।
शारीरिक योगासन तो है ही; पर मानसिक स्वास्थ्य के लिए ध्यानयोग अत्युत्तम है। तनाव के इस युग में तनाव को दूर कर मानसिक शांति के लिए ध्यानयोग अतीव परिणामकारी  पाया जा रहा है। अनेक मनोरोग चिकित्सक (Psychiatrists) ध्यानयोग के उपयोगसे रोगियों का उपचार कर, उन्हें स्वस्थ कर रहे हैं।

दो अलग स्तरोंपर इसका बहुमूल्य योगदान होने की प्रबल संभावना देखता हूँ। वैयक्तिक स्तरपर तनाव को घटाने में तो सर्वपरिचित है ही; पर इसका दूसरा बहुमूल्य योगदान जो किसी ने स्पष्टतया सोचा हुआ दिखाई नहीं देता, वह है, संकीर्ण विचार प्रणालियों को उनकी संकीर्णता से, मुक्त करने में।

और ऐसा प्राथमिक संकेत देने वाले और भी, जाने माने विद्वान है; जोसेफ वॉरन, और डेब्रा डेविस। यह दोनों भी इसी विषय का संकेत दे रहे हैं, पर वें पश्चिमी आधुनिक साय्कोलॉजी को ही संकीर्णता से मुक्त करने की बात करते हैं। इस विज्ञान का उपयोग साम्प्रदायिक संघर्ष को घटाने में भी हो सकता है, यह इस लेखक का मत है।

(दो) इतिहासकार  अर्नोल्ड टोयन्बी
इतिहासकार  अर्नोल्ड टोयन्बी भी कुछ ऐसा ही कह चुके हैं।
एक दूसरे हिंदुइस्म के विशेषज्ञ,  डॉ. क्लौस क्लोस्टरमायर जो रिलिजस स्टडिज़ के प्रोफ़ेसर हैं, वे भी ऐसे “ज्ञान” में भारत का  विशेष और अनोखा  योगदान मानते हैं। उनकी दृष्टि में, भारत का दिया हुआ यह  “ज्ञान” ही महत्तम योगदान है।

१९३३ के, भौतिकी विषय के, नोबेल विजेता श्रोडिन्जर भारत के आध्यात्मिक ज्ञान से अत्यंत  प्रभावित थे। वे भारतीय ऋषियों (द्रष्टाओं) से भी अतीव प्रभावित थे। उनके विचार में आध्यात्मिक ज्ञान किसी भी भौतिक ज्ञान की अपेक्षा  अधिक महत्व रखता है।
इसी संदर्भ में, उनका उद्धरण क्लोस्टरमायर देते हैं, ==>”Rather than criticizing the Indian sages for what they did, or had neglected to do, Schrodinger thought that they had an important contribution to make to our scientific world”:
“The subject of every science is always the spirit and there is only that much true science in every endeavor, as it contains spirit.” –“He (Schrodinger) wished to see some blood transfusion from East to West” so as to save West from spiritual anemia.पूर्व से पश्चिम को रक्तदान मिलना चाहिए। वे बल पूर्वक कहते थे, कि वेदान्तिक ज्ञान दृष्टि ही सच्ची  ज्ञान दृष्टि है।

(तीन) साम्प्रदायिक संघर्षों में पतंजलि

पतंजलि इस संसार को साम्प्रदायिक और धार्मिक संघर्षों से भी  तार सकते है, यह अतिशयोक्ति नहीं है। सारे पादरी, मुल्ला, योगी, रब्बायों को यदि ध्यान-योग (सिखाकर)ध्यान में बैठाया जाता है। तो ध्यान की उच्चावस्था में उन्हें अद्वैत की, अनुभूति होना प्रारंभ होगी ही । उस अवस्था में ध्यान पहुंचा देता है, जब, वें अपना नाम, लिंग, देश, भाषा,संप्रदाय,पंथ सब भूलकर, इन सारी संकीर्णताओं से ऊपर उठ जाते हैं। और सभी में एक तत्त्व ही  विराजमान है, यह स्पष्ट सत्त्य चारों ओर से सूर्य प्रकाश-सा झलकने  लगता है। उस समय किसी का द्वेष, वैर, शत्रुता, ऐसी हीन और नकारात्मक भावनाएं जागती ही नहीं। एक बार भी इस परम सत्य का अनुभव होनेपर सत्य, भूला नहीं जा सकता। वैदिक ऋषियों के ऐसे अनुभव से ही उनके मुखसे वचन निःसृत हुए होंगे। जैसे– (क)”एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति।”
या (ख)सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु, सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित्‌ दुःखभाग भवेत॥

ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव यदि सारे तथाकथित रिलिजन या मज़हब वाले नेता करें, तो यह परस्पर संघर्ष समाप्ति के मार्गपर अग्रसर हुए बिना नहीं रहेगा। कमसे कम उनके नेतृत्व नें करने की आवश्यकता मानता हूँ।
यह पतंजलिका नगण्य योगदान नहीं है। आर्ष-विद्या गुरूकुलम्‌  के स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे ऋषितुल्य व्यक्तित्व ऐसा काम कर,अतुल्य योगदान कर सकते हैं। छोटे मुंह बडी बात रख रहा हूँ, क्यों कि बात बडी है। कहनेवाले की इससे अधिक योग्यता नहीं है। कुछ वर्ष पहले आप सैंकडों धर्मगुरुओं को लेकर UNO में हिन्दुत्व का दृष्ट-कोण रख आए हैं।

(चार)जोसेफ वॉरन, और डेबरा डेविस

जोसेफ वॉरन, और डेबरा डेविस,निम्न छः बिंदुओं में पश्चिम के मनोविज्ञान का सार व्यक्त करते हैं।
(१) पश्चिमी विज्ञान वास्तविकता को, मर्यादित पाँच इंद्रियों द्वारा ही अनुभव करता है। और उसी मर्यादित और आंशिक रूप में, भाषा एवं तर्क के आधार-प्रमाण से शब्दांकित करता है। इंद्रियों से ही सत्त्यापित या प्रमाणित करना-कराना पश्चिम के विचारकों को ही जकडकर मर्यादा में बाँध देता है। इस प्रकार पश्चिम का वैचारिक क्षेत्र  ही, इंद्रियों की बाह्य मर्यादाओ के बंदिघर में बंद है। उस मर्यादा के बाहर जाकर  अनुभव किए  हुये सत्त्यों को भी इंद्रियों की मर्यादाओं में ही प्रमाणित करना होता है। यह उसकी विवशता है।

(२)पश्चिमी मनोविज्ञान का ढाँचा अहं (कार) केंद्रित है।उसी खूंटी से बंधकर, जो अनुभव करता है, उसी को सच मानकर सारे ज्ञान की प्रगति भी उसीका विस्तार मानता है। किंतु उस में इस अहंकार से, या अहं से परे जाने की क्षमता नहीं है,  अपने से उपर उठने की क्षमता नहीं रखता।

(३) उसका ऐसा अहंकार केंद्रित  ढाँचा विचार को सीमित कर अवरुद्ध कर देता है। इसके कारण आध्यात्मिक या वैचारिक चिंतन भी मुक्त रीति से नहीं कर  पाता। इस लिए पश्चिमी मनुष्य का चेतना-बोध (Awareness)प्रतिबंधित होता है। और किसी न किसी खूँटी से बँधा बँधा ही, प्रकट होता है। इसी कारण से, वह स्व केंद्रित हो जाता है, और फलतः सभी का, नियंत्रण करना चाहता है। सभीपर सत्ता पाना चाहता है।
(४) कुछ लोगों का मानना है, कि, इसी कारण पश्चिम में मनुष्य अस्वस्थ है, और अधिक मानसिक तनाव में भी जी रहा है। पश्चिम का आध्यात्मिक चिन्तन भी आध्यात्मिक नहीं है, सांप्रदायिक है। ऐसे साम्प्रदायिक चिन्तन को  आध्यात्मिक मानना भूमिके एक अंश को पृथ्वी मानने जैसा है। अपने घर पर के सीमित आकाश को सारे आकाश के बराबर मानने जैसा है।
{लेखक ==>यही संकीर्णता, उन्हों ने अपने भगवान पर भी आरोपित कर दी है। उनका स्वर्ग में बैठा भगवान भी भेदभावी है। इन्हों ने पृथ्वीपर ही नहीं पर स्वर्ग में भी भेदभाव निर्यात किया है। इनके अनुसार,अच्छे कर्म कर गांधी भी स्वर्ग में नहीं जा सकता। क्यों कि वह जिसस को स्वीकार नहीं करता। सूरज की किरणें इन्हींपर पड सकती है, अन्य धर्मियों को प्रकाश से वंचित रखा गया है। इनका बस चले तो सूर्य को भी ईसाइयों के सिवा, अन्यों पर प्रकाश फेंकने से रोक दे।}
(५) {लेखक==> इस पृथ्वीपर विचार या चिंतन भी इन का मुक्त नहीं है, जब मुक्ति की संकल्पना या अवधारणा भी  मुक्त नहीं है, तो मरने के पश्चात मुक्ति इन्हें क्या खाक मिलनेवाली है?
इसी संकीर्ण  संकल्पना की अभिव्यक्ति उनके भेदभाव में प्रतीत होती है।अमुक को मुक्ति मिलेगी, अमुक को नहीं मिलेगी। जैसे भगवान बनिया है, या बीमा दलाल है, उसी से बीमा खरीदने पर आप स्वर्ग या जन्नत जा सकते हो, अन्यथा नहीं।}
(६)
पश्चिम का आधुनिक मानस (शास्त्र)विज्ञान मर्यादित है।
प्राचीन भारतीय ज्ञान का  प्रकाश, आधुनिक पश्चिमी मानस (विज्ञान )को संकीर्णता से, मुक्त कर,  विस्तृत आयाम में सत्य का साक्षात्कार कराने के लिए समर्थ और अनिवार्य है।

“पश्चिमी सभ्यता के पास पूर्ण विकसित मानस शास्त्र (आज) भी नहीं है, जो व्यक्ति को अपने आप में गहरा उतार सके, जैसा ध्यान की अवस्था में संभव होता है।आधुनिक मानस विज्ञानकी (Modern psychology) भी, ध्यान-समाधि की सामर्थ्य और  गहराइयों की अपेक्षा कुछ भी नहीं। इसकी कोई तुलना नहीं।”
“भारत की प्राचीन परम्पराओ में ही आधुनिक पश्चिमी विचारधाराओं को अपनी कुंठित मानसिकता से मुक्त करने की क्षमता है। जो अंतश्चेतना को सभी संकीर्ण सीमाओं  से परे ले जाना चाहते हैं, उनके लिए, प्राचीन भारत की देन है, अनन्त मुक्ति का मार्ग।” अब पश्चिम को अवसर है, भारत के इस सर्वस्पर्शी  सर्वसुलभ ज्ञान से लाभ ले।  भारत ही, इस मुक्तिविद्या का जगद्गुरू है, विश्वगुरू है, परम गुरू है।

(पाँच) आधुनिक पश्चिमी मनोविज्ञान
ये दोनों विद्वान, आधुनिक पश्चिमी (Psychology) मनोविज्ञान को  मर्यादित मानते हैं।
उससे विपरित प्राचीन भारतीय मानस (पातंजल मानस विज्ञान) शास्त्र को अधिक सर्वग्राही और मौलिक मानते हैं।
उनके निम्न शीर्षक वाले आलेख का सार प्रस्तुत करनेका प्रयास ही, उपर किया है।
Limitations of Modern Thought with the Ancient Light of India
: (Freeing the Modern Mind to see the Truth in a New Dimension )
Joseph A. Warren and Deborah Davis
उनका कहना है, कि, “प्राचीन भारतीय मानस शास्त्र के  प्रकाश में पश्चिमी  चिंतन  की  मर्यादाएँ जाँची और परखी जा सकती है।”
“–इस ज्ञान के,  दीपक से, प्रकाशित कर, (पश्चिमी) आधुनिक मानस (चिंतन) को उसकी संकीर्णता से मुक्त किया  जा सकता है, सत्य को नये (वस्तुनिष्ठ- तटस्थ )आयाम में देखा- परखा जा सकता है।
उनके शब्दों में “It is dawning of the golden age of expanded awareness.”
“यह विस्तरित चेतना बोध के स्वर्ण युग का सबेरा है”
“जिस प्रकार से एक कपडे के पीछे का प्रकाश उस कपडे के तानों बानों को ही नहीं, पर छेद, दरारें, और टूटे-फटे धागों को भी उजागर कर दिखला देता है।” उसी प्रकार, भारतीय मानस शास्त्र के प्रकाश में, मन के तानो बानों को, छेदों दरारों को, उजागर करने की  क्षमता है; ऐसा  इन दो लेखकों का कहना है।
(छः)पतंजलि का प्राचीन योगदर्शन
पतंजलि का प्राचीन योगदर्शन अर्वाचीन (आधुनिक) मानस विज्ञान से भी आगे था, यह सच्चाई भी कुछ प्रवासी भारतीय विद्वानों को भी असमंजस में डाल देती है। पर, भारतीय (पतंजलि?) मानस विज्ञान के प्रकाश में, पश्चिम का आधुनिक मानस विज्ञान भी, उन्मुक्त  हो कर नये आयाम में विस्तार कर सकता है।
हमारा पतंजलि प्रणीत ध्यान-योग ही, व्यक्ति को, आँखे मुंदवाकर, और निःशब्द बनाकर ही नहीं, पर सारी इंद्रियों का बाह्य संबंध कटवा कर, इंद्रियों से मन में खिंचवा लेता है। फिर क्रमशः मन से बुद्धि में पिरोया जाता है; और फिर अंत में बुद्धि से भी आत्मा तक अंदर की ओर खिंचता चला जाता है। जैसे जैसे वह अंदर खिंचता चला जाता है, वैसे वैसे वह अपनी ही पहचान (परिचय) विस्तरित करता जाता है।  इसे अंग्रेज़ी में आयडेन्टीटी कहा जा सकता है। जब आपकी पहचान(आयडेन्टीटी) ऐसी विस्तरित हो बदल जाती है,विस्तरित हो जाती है।
पहले इंद्रियों के अनुभवो में बंधा हुआ। वहांसे मन की परिधि में पहुंचता है। वहांसे बुद्धि में चला जाता है। और ध्यान विधि का अगला पडाव फिर आत्मा में होता है।

इस अवस्था में उसे आत्मा की ही विशाल (आयडेन्टीटी) पहचान प्राप्त होती है। और आत्मा को कोई लिंग नहीं होता, नाम नहीं होता, न राष्ट्रीयता होती है। न पुरूषत्व या स्त्रीत्व होता है। न धर्म होता है।

यह लेखक मानता है, कि ऐसी ही उन्नत ध्यानावस्था में ही त्रिकालाबाधित सनातन सत्यों को हमारे पुरखों ने अनुभव किया था।

जब वह आत्मा की हि पहचान में पहुंच जाता है, तो वह अपना नाम, धर्म, देश, इत्यादि संकीर्णताओं से बिलकुल परे हो जाता है। जैसे कि वह अपने शरीर से बाहर कूद गया हो। इस(शरीर से)बाहर कूदे हुए जैसी, अवस्था में ही उसे विशुद्ध सच्चाईयाँ स्पष्टता से सामने से आकर मिलती है। ढूंढनी  नहीं पडती। जिस प्रकार से आप एक आदर्श पिता बनने पर अपने बालकों के प्रति,समता का अनुभव करते हैं; तटस्थता से निर्णय दे सकते हैं।

तट्स्थ होने भर से ही, अनेक मानसिक समस्याएं पिघल जाती है।तटस्थ  (या दूसरों की) दृष्टिसे समस्याएं देखने की क्षमता पाकर, हल निकालने में सहायता, यह  सबसे बडी उपलब्धि मानी  जा सकती है।

(सात ) मॉरिन चेन
मॉरिन चेन, एक ऑस्ट्रेलियन महिला क्या कहती है?
“भारत ने निःसंदेह इस क्षेत्र में पहल और वैश्विक नेतृत्व किया है।”
“मैं कृतज्ञता से  भावविभोर हो उठती हूँ, और अनुभव करती हूँ, कि मुझे ध्यान के आध्यात्मिक दर्शन और संस्कृति का यह स्रोत “भारत के ही राजयोग” द्वारा  प्राप्त हुआ।  मैं भारत आयी और बहुत निकटता से जान और सीख पायी कि आध्यात्मिकता क्या होती है; और कैसे जिया जाता है। यह उदगार हैं, मॉरिन चेन,  एक ऑस्ट्रेलियन महिला के। आगे कहती है,  “आज का युवा, प्रेरणा और जीवन का  उद्देश्य खो बैठा  है। यह प्रेरणा और उद्देश्य, दोनो बहुत मात्रा में ध्यान (राज योग) द्वारा प्राप्त किए जा सकते हैं।”

(आँठ )एलेनॉर स्टार्क।

एक पुस्तक लिखी गयी है; नाम है  “The  Gift unopened” (बिन खोला उपहार)जिसका प्रकाशन अभी अभी बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में हुआ, और लेखिका है एलेनॉर स्टार्क। २४२ पृष्ठों की यह पुस्तक भारतीयों के लिये  भी पठनीय है, विशेषतः उन भारतीयों के  लिए जो नहीं जानते कि भारत की विशेषता क्या है?
The Gift Unopened नाम बहुत समीचीन है। Gift अर्थात  “उपहार”’ से संकेत है “विवेकानंद जी के “आध्यात्मिक संदेश” से जो उन्हों ने चिकागो की सर्व धर्म परिषद में दिया था। इस संदेश को ही “उपहार” माना गया है। यह दिव्य संदेश विवेकानंद जी प्रायः एक सौ बीस वर्ष पहले दे कर गए, उस संदेश रूपी “उपहार को, अमरिका ने एक कोने में बिना खोले ही, उपेक्षित कर फेंक दिया  है। लेखिका अमरिका को उस संदेश का स्मरण कराना चाहती है। कहना चाहती है, उस संदेश को पढो, उसपर सोचो। उस संदेश में आज की अमरिका के लिए भी उपयोगी सामग्री है।
दस दिन प्रवास पर रहूंगा। टिप्पणियों के उत्तरों के लिए देरी होगी–क्षमा करें।

 

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डॉ. मधुसूदन
मधुसूदनजी तकनीकी (Engineering) में एम.एस. तथा पी.एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त् की है, भारतीय अमेरिकी शोधकर्ता के रूप में मशहूर है, हिन्दी के प्रखर पुरस्कर्ता: संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती के अभ्यासी, अनेक संस्थाओं से जुडे हुए। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति (अमरिका) आजीवन सदस्य हैं; वर्तमान में अमेरिका की प्रतिष्ठित संस्‍था UNIVERSITY OF MASSACHUSETTS (युनिवर्सीटी ऑफ मॅसाच्युसेटस, निर्माण अभियांत्रिकी), में प्रोफेसर हैं।

9 COMMENTS

  1. पश्चिमी विद्वानों के उपरोक्त कथन बहुत प्रभावी हैं क्योंकि हम भारतीय उन्हें बहुत श्रद्धा से देखते और सुनते हैं..
    हम अपने विद्वानों को उनसे कम सम्मान देते हैं. जो की हमारी गुलामी मानसिकता की निशानी है..
    आज के पाठ्यक्रम में बच्चों को इतिहास भी अंग्रेजों द्वारा लिखा गया इतिहास पढ़ाते हैं ..
    “योग’ की खोज विश्व की सबसे अधिक महत्वपूत्न खोज है जो भारत के रिशियों ने की है..
    इसके द्वारा ही हमें मन बुद्धि शरीर और आत्मा का सही सम्बन्ध ज्ञात हुआ है.. जब की पश्चिम को आज भी यह ज्ञात नहीं है..
    आज भारत की स्थिति बहुत संकटमय है, तेज़ी से ठोस कार्य करने की आवश्यकता है..
    आपको साधुवाद की आप जागृति का कार्य कर रहे हैं ..
    विश्वमोहन तिवारी

    • लेख का शीर्षक भ्रामक है।यह लेख प्राचीन भारतीय चिन्तन के पक्ष में पश्चिमी चिन्तकों की अनुशंसाओं का मात्र लेखाजोखा है। जैसे शास्त्रार्थ में एक पक्ष अपनी युक्तियाँ प्रस्तुत कर रहा हो।
      डॉक्टर साहब से अपेक्षा है थी कि पश्चिमी संस्कृति के उन पहलुओं पर रोशनी डालेंगे जिन्होंने उसे आज की दुनिया का एजेण्डा एवम् स्वरुप निर्धारण करने की हैसियत दी है। भारतीय प्रतिभाएँ भी वहीं पर परवान चढ़ती हैं।

      • आ.गंगा नंद जी….टिप्पणी के लिए कृतग्यता व्यक्त करता हूं।

        (१) यह आज के मनोविग्यानियों के विचार हैं।प्राचीन योग दर्शन से तुलना आज के पश्चिमी मनोविग्यानकी की गयी है।इस लिए शीर्षक।
        (२) आप की दूसरी अपेक्षाः
        मेरे अपने दृष्टिकोण से, और विचार से,( १ से २ सप्ताह) आलेख बनाकर दूंगा।

        इसी प्रकार सुझाव देते रहें।धन्यवाद।

  2. हमें एक आदत हो गयी है पश्चिम के लोगों से संस्कृत का भी प्रमाणपत्र जुटाने की – वैसे वेद आधारित हिन्दू धर्म वेदांत या उपनिषद जिस दूध का मख्हन है सार्वदेशिक सार्वभौमिक है अतेव विदेशीयों के उद्धरण लेना समुचित है अब प्रश्न है की हमारे देश के लोग जो वेद वेदांत से दूर हो रहे हैं कैसे इसके निकट आवे
    अपने अच्छा संकलन किया है- Wendy Doniger एक अमेरिकन महिला धर्मशास्त्र के प्रोफेसर Professor at the Divinity School, University of Chicago, की ओन हिंदूइस्म किताब पर एक परिचर्चा कल के टाइम्स ऑफ़ इंडिया में आ ई है- उदारवादी हिन्दू मत वैश्विक समस्याओं को सुलझाएगा

    • डॉ. ठाकुर
      यह आलेख संस्कृत पर नहीं है।
      शायद कोई अलग आलेख की टिप्पणी गलति से यहां लगाई हो सकती है।
      सादर —

  3. राकेश जी और परशुराम कुमार जी, बहुत बहुत धन्यवाद.
    अनुरोध:
    भारत के इस वास्तविक योगदान का ज्ञान अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे, इस लिए या तो मित्रोंको आलेख की कडि भेजें, या प्रति भेजें.
    खोई हुयी अस्मिता प्राप्त किए बिना हम आगे बढ़ भी गए तो आत्म विस्मृत ही रहेंगे.
    राकेश जी की बिनती परमात्मा की कृपा से, पूरी करनेका प्रयास अवश्य करूँगा.
    प्रवास पर समयाभाव के कारण लघु उत्तर के लिए क्षमा याचना.

  4. डा० साहब,
    सादर नमस्कार
    ब्यूटीफुल I ऐसा सुंदर विवेचन मेरे भारतवर्ष की पुनाप्र्तिस्थाकरण में बहुत सहायक होगा; बशर्ते की जन जन तक पहुंच पाए i
    अति उत्तम आलेख के लिए हार्दिक धन्यवाद।

  5. श्रद्धेय डा० साहब,
    सादर नमस्कार
    उत्तम विचारों की सुगंध को समेटता आलेख …..विचार मोतियों को माला में पिरोहकर प्रस्तुत किया गया आलेख….माँ भारती के सेवा में प्रस्तुत किया गया एक उत्तम पुष्पहार।
    निवेदन-इसी श्रंखला को और बढ़ाकर विद्वान लेखक प्रवक्ता के पाठकों को उपकृत करें। आनंद आएगा। उत्तम आलेख के लिए हार्दिक धन्यवाद।

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