300 रामायण : कथ्य और तथ्य

 डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री

राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है ,

कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है .राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त

कुछ समय पहले अमरीका की यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो के प्रोफ़ेसर , ए के रामानुजन ( 1929 – 1993 ) के ‘ 300 Ramayanas ‘ शीर्षक लेख की चर्चा समाचारों में रही . यह लेख दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विषय के बी.ए. (आनर्स) स्‍तर के पाठ्यक्रम में 2006 से निर्धारित था. अतः यह कहना उचित होगा कि विद्वानों की दृष्टि में यह एक उपयोगी लेख है ; पर कुछ लोगों को इसकी विषयवस्तु आपत्तिजनक लगी और उन्होंने इसे पाठ्यक्रम से हटाने की मांग की . विश्वविद्यालय के न मानने पर मामला सुप्रीम कोर्ट में गया . कोर्ट के आदेश पर इस लेख की जांच करने के लिए इतिहास विभाग के चार सदस्यों की एक विशेषज्ञ समिति बनाई गई . यद्यपि चार में से केवल एक ही सदस्य ने इसके विपक्ष में राय दी, फिर भी विश्वविद्यालय ने बढ़ते विवाद को देखकर इसे 2011 में पाठ्यक्रम से हटा दिया. इस निर्णय को कुछ लोगों ने सत्य की जीत बताया तो कुछ ने सत्य की हार.

अन्य लोगों की भांति मैंने भी बचपन में रामायण कहानी के रूप में सुनी थी . तब हम लोग रामकथा से संबंधित किसी भी कहानी / ग्रन्थ को रामायण ही कहते थे ( आम आदमी आज भी इसी शब्द का प्रयोग करता है ) . बाद में तुलसी कृत “ रामचरित मानस “ और वाल्मीकि कृत “ रामायण “ पढ़ने का तथा दोनों की रामकथाओं में जो अंतर है, उसे जानने का अवसर मिला ; पर जब डा. कामिल बुल्के (1909 – 1982 ) का शोधग्रंथ ” रामकथा : उत्पत्ति और विकास ” (1950 ) पढ़ा तो रामकथा के सम्बन्ध में वह सब जानने को मिला जो अभी तक अज्ञात था. बुल्के जी के इस ग्रन्थ को डा. धीरेन्द्र वर्मा जैसे विद्वान ने उस समय ” रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश ” कहा था. बुल्के जी जब तक जीवित रहे , अपनी पुस्तक के नए संस्करण में नवीन सामग्री देकर इसे अद्यतन करते रहे. मैंने सोचा कि रामानुजन का उक्त लेख स्नातक स्तर के इतिहास के विद्यार्थियों के लिए निर्धारित किया गया है. यह अवश्य ही अद्यतन सामग्री से युक्त होगा, अतः मैंने उसे पढ़ने का निश्चय किया.

रामानुजन का उक्त लेख ( इसका आकार The Collected Essays of A. K. Ramanujan में 30 पृष्ठों का है ) इस प्रश्न से प्रारम्भ होता है – “ कितनी रामायण ? तीन सौ ? तीन हज़ार ? “ ( फादर बुल्के ने अपने अनुसन्धान में लगभग 300 रामकथाओं का उल्लेख किया है. रामानुजन ने अपने लेख के शीर्षक में उसी संख्या को आधार बनाया है ) और फिर इस प्रश्न का उत्तर देने वाली जो लोक कथाएं प्रचलित हैं, उनमें से एक कहानी की रामानुजन ने विस्तार से चर्चा की है . राम सभा में बैठे थे , एकाएक उनकी अंगूठी अंगुली से निकलकर गिर गई और ज़मीन में छेद करते हुए उसमें गायब हो गई. राम ने हनुमान को अंगूठी ढूँढने का काम सौंपा. हनुमान अलौकिक शक्ति संपन्न थे. अतः अतिलघु शरीर धारण कर उस छेद में घुस गए और पीछा करते – करते पाताल लोक पंहुच गए.

इधर राम के दरबार में ब्रह्मा और वशिष्‍ठ जी आए और राम से एकांत में बात करने की इच्छा व्यक्त की. निश्चय यह हुआ कि अगर एकांत में कोई विघ्न डाले तो उसका सिर काट दिया जाए. अतः एकांत की व्यवस्था सुनिश्चित करने की दृष्टि से राम ने लक्ष्मण को द्वार पर खड़े रहने को कहा. अन्दर एकांत वार्ता चल रही थी कि विश्वामित्र जी आए और तुरंत राम से मिलना चाहा . लक्ष्मण ने रोका तो उन्होंने अयोध्या को भस्म कर देने की धमकी दी . विवश होकर लक्ष्मण विश्वामित्र के आने की सूचना देने के लिए अन्दर गए. यद्यपि तब तक एकांत वार्ता समाप्त हो चुकी थी जिसमें राम को यह बताया गया कि मर्त्यलोक में आपका कार्य पूरा हो चुका है, अतः अब आपको रामावतार रूप त्याग कर ईश्वर रूप धारण कर लेना चाहिए ; और यद्यपि राम ने विश्वामित्र की बात जानने के बाद लक्ष्मण के अन्दर आने को गलत नहीं बताया, पर लक्ष्मण ने अपने को एकांत वार्ता के सम्बन्ध में राम के आदेश का पालन न करने का दोषी मानते हुए सरयू में जाकर शरीर त्याग दिया . तो फिर राम ने भी लव – कुश का राज्याभिषेक करके सरयू में प्राण त्याग दिए .

उधर पाताल में भूत निवास कर रहे थे. इस आगंतुक बन्दर को वहां भूत-राजा के सामने पेश किया गया . उसने हनुमान से आने का प्रयोजन पूछा . अंगूठी की बात कहने पर उसने एक थाल में हज़ारों अंगूठियाँ दिखाईं और हनुमान से पूछा कि तुम इनमें से कौन सी अंगूठी ढूंढ रहे हो. सभी अंगूठियाँ एक सी थीं . अतः हनुमान अंगूठी पहचान ही नहीं पाए. तब भूतों के राजा ने कहा कि इस थाली में जितनी अंगूठियां हैं, उतने ही राम अब तक हो चुके हैं. जब तुम धरती पर लौटोगे तो तुम्हें राम नहीं मिलेंगे . राम का यह अवतार अपनी अवधि पूरी कर चुका है . जब भी राम के किसी अवतार की अवधि पूरी होने वाली होती है, उनकी अंगूठी गिर जाती है. मैं उसे उठा कर रख लेता हूं . यह सुनकर हनुमान वापस लौट आए.

इस प्रकार इस लोक कथा के अनुसार तो अनेक रामायणों की आवश्यकता “ राम के विभिन्न अवतारों “ का वर्णन करने के लिए हुई, पर यह जिज्ञासा बनी ही रहती है कि फिर उपलब्ध सभी राम कथाओं की मूल कथावस्तु एक ही क्यों है ? लेखक ने भी इसकी कोई चर्चा नहीं की है . हाँ, उसने आश्चर्य के साथ इस तथ्य का उल्लेख अवश्य किया है कि ” रामायण ” का प्रभाव केवल इस देश में नहीं, बल्कि दक्षिण तथा दक्षिण -पूर्व एशिया के देशों तक पहुंचा. इसीलिए देशी – विदेशी विभिन्न भाषाओं में अलग – अलग नामों से ” रामायण ” मिलती है . वास्तविकता यही है कि रामकथा को अपने काव्य का आधार बनाने वाले प्रथम कवि वाल्मीकि अवश्य हैं, पर बाद के कवियों ने वाल्मीकि का अनुकरण करने के बजाय इस कथा में अपनी कल्पना के अनुरूप नए – नए रंग भरे हैं, यही कारण है कि उनमें पर्याप्त अंतर मिलते हैं .

लेखक ने कुछ प्रसंग लेकर इन अंतरों की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया है . जैसे, अहल्या संबंधी कथा . ( यह ध्यान रखने योग्य है कि वाल्मीकि रामायण में अहल्या की कथा उन्हीं दोनों काण्डों – बालकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड में आती है, जिन्हें प्रक्षिप्त माना गया है .) अपने निबंध में लेखक ने पहले वाल्मीकि रामायण ( संस्कृत ) और कंबन के रामावतारम ( तमिल ) के इस कथा से संबंधित अंश का अंग्रेजी में अनुवाद प्रस्तुत किया है . वाल्मीकि रामायण में अहल्या छद्मवेशधारी इंद्र को आते ही पहचान लेती है, इसके बावजूद रतिक्रिया के लिए उनका निमंत्रण स्वीकार करती है ,जबकि रामावतारम में वह बाद में – रतिक्रिया के दौरान उसे पहचान तो लेती है, फिर भी रतिक्रिया से विरत नहीं होती . गौतम मुनि का शाप भी दोनों ग्रंथों में अलग तरह का है. रामायण में वे इन्द्र को अंडकोष विफल होने का शाप देते हैं, और अहल्या को शाप देने के साथ ही स्वयं शापमोचन की बात भी कह देते हैं , जबकि रामावतारम में इन्द्र के शरीर पर सहस्र योनियाँ हो जाने का शाप देते है जिसे बाद में देवताओं की प्रार्थना पर सहस्र आँखें हो जाने में बदल दिया जाता है, और अहल्या जब शापग्रस्त होने पर क्षमायाचना करती है तब उसे शाप मुक्ति का उपाय बताया जाता है .

निबंध में लेखक ने दोनों ग्रंथों की कथा में जो अंतर है, उसे स्पष्ट करते हुए लिखा है , ” इन दोनों विवरणों के कुछ अंतरों को देखिए . वाल्‍मीकि के यहां इंद्र जिस अहल्या का शीलभंग करते हैं, वह स्‍वयं इच्‍छुक है . कम्‍बन के यहां अहल्या यह अनुभव तो करती है कि वह गलत कर रही है, लेकिन वह उस निषिद्ध आनंद को छोड़ भी नहीं पाती क्योंकि पहले ही यह संकेत किया जा चुका है कि उसका विद्वान पति पूरी तरह अध्‍यात्‍मलीन है . …………इन्द्र को हज़ार योनियाँ धारण करने का शाप मिलता है, जिसे बदल कर बाद में हज़ार आंखें कर दिया जाता है . अहल्या एक जड़ पत्‍थर में बदल जाती है . दोनों अपराधियों को दंडित करने वाला काव्‍यात्‍मक न्‍याय (Poetic justice ) उनके दुष्‍कर्मों के अनुरूप है . इंद्र उसी वस्‍तु के चिह्नों को धारण करते हैं जिसके लिए वे लालायित हो रहे थे, जबकि अहल्या किसी भी चीज़ के प्रति अनुक्रियाशील होने की क्षमता से वंचित कर दी जाती है .”

ऐसा ही एक और प्रसंग सीता के जन्म का देखिए . वास्तविकता तो यह है कि प्रारम्भिक रामकथाओं में इस विषय से सम्बन्धित तथ्यों का अभाव था , अतः बाद के साहित्य में अनेक प्रकार की एक – दूसरी से सर्वथा भिन्न कथाएं ( जनकात्मजा, भूमिजा, दशरथात्मजा , रावणात्मजा ) प्रचलित हो गईं ; पर लेखक ने इस विवाद की कोई चर्चा करने के बजाय एक लोककथा की चर्चा की है जिसमें बताया गया है कि रावण (यहाँ उसका नाम रावुला है ) और मंदोदरी संतानहीन हैं , अतः दुखी हैं . वन में जाकर वे दोनों तपस्या करते हैं जहाँ उनकी भेंट एक योगी से होती है जो और कोई नहीं, साक्षात शिव ही हैं. वे रावण को एक चमत्कारी आम देते हैं और पूछते हैं कि इसे पत्‍नी के साथ कैसे बांट कर खाओगे . रावण कहता है कि इस फल का मीठा गूदा मैं अपनी पत्नी को दूंगा और स्वयं इसकी गुठली चूसूंगा. योगी को संदेह होता है . अतः वह कहता है कि अगर तुम मुझसे झूठ बोलोगे तो अपने कर्मों का फल निश्चित रूप से भोगोगे. वस्तुतः रावण सोचता कुछ और है, पर करता कुछ और है . इसीलिए जब आम खाने की बारी आती है तो वह सारा गूदा स्वयं खा जाता है और मंदोदरी को गुठली देता है . परिणाम यह होता है कि रावण के ‘ गर्भ ‘ ठहर जाता है . रावण परेशान है पर गर्भ पलता जाता है और जब शिशु के जन्म का समय आता है तो रावण जोर से छींकता है , बस इसी छींक से जो शिशु बाहर आता है उसे रावण ” सीता ” नाम देता है . यह लोककथा कर्नाटक में प्रसिद्ध है जहाँ कन्नड़ भाषा बोली जाती है और कन्नड़ में ‘ सीता ‘ शब्द का अर्थ ही है, ” उसने छींका ” ; जबकि संस्कृत में सीता का अर्थ ” हल से बनी रेखा ” है. लेखक ने दोनों भाषाओं में सीता शब्द के इस अर्थगत अंतर की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए इसे ही संस्कृत और कन्नड़ काव्यों में सीता के जन्म संबंधी अलग – अलग कथाओं का आधार बताया है.

रामकथा से संबंधित कतिपय प्रसंगों का तुलनात्मक विवेचन करने के लिए लेखक ने विभिन्न काव्य ग्रंथों ( प्रमुख रूप से वाल्मीकि कृत रामायण , कंबन कृत रामावतारम , विमल सूरि कृत पउम चरिय, अध्यात्म रामायण , और स्याम देश की थाई भाषा की राम कियेन ) के साथ देश – विदेश में मौखिक रूप से प्रचलित लोक – कथाओं का, विशेष रूप से आदिम जातियों में प्रचलित लोककथाओं का भरपूर सहारा लिया है और आवश्यकतानुसार अपनी टिप्पणियां भी दी हैं . इस तरह, लेखक ने इस वास्तविकता से एक बार फिर हमारा साक्षात्कार कराया है कि हमारे पास वाल्‍मीकि द्वारा संस्‍कृत में कही गई एक ही रामकथा नहीं है, बल्कि दूसरों द्वारा कही गई अनेक रामकथाएं भी हैं जिनके बीच अच्छे – ख़ासे अंतर मौजूद हैं.

रामायण को लेकर हमारे समाज की विचित्र स्थिति है. एक ओर तो वह वर्ग है जो राम और अपने – अपने समाज में प्रचलित वर्तमान रामकथा को इतिहास की एक घटना मानता है. उसने जिस भी रूप में रामायण सुनी / पढ़ी है, उसी रूप को ऐतिहासिक मानता है, प्रामाणिक मानता है , वास्तविक मानता है, विश्वसनीय मानता है, अंतिम सत्य मानता है, वेद वाक्य मानता है. प्रचलित रामायण की अतिरंजित – अस्वाभाविक बातों को ” भगवान राम ” का तथा अन्य पात्रों के दैवीय स्वरूप का प्रताप मानता है. समाज के एक वर्ग के लिए गोस्वामी तुलसीदास केवल कवि – साहित्यकार नहीं, ” धर्म गुरु ” हैं और रामचरित मानस ” धर्म पुस्तक ” है . अतः उसमें किसी भी प्रकार का विचलन उसे स्वीकार नहीं है ( यह दूसरी बात है कि जब हमारे कथावाचक “ अलौकिक तत्व “ बढ़ाने वाली कथाएं विभिन्न स्रोतों से लाकर उसमें जोड़ते हैं तो उन्हें सामान्य व्यक्ति अबोध – अज्ञानी बनकर श्रद्धापूर्वक भक्ति भाव से चुपचाप स्वीकार कर लेता है ) . संयोग से यह वर्ग संख्या की दृष्टि से बहुत बड़ा है . दूसरी ओर एक वर्ग वह है जो राम और रामकथा को इतिहास की घटना नहीं, पूरी तरह मनगढ़ंत पौराणिक कथा ( mythology ) मानता है . संख्या की दृष्टि से यह वर्ग भले ही छोटा हो, पर अपने को बुद्धिजीवी मानता है , सुशिक्षित मानता है, और संयोग से वर्तमान एकेडेमिक क्षेत्र में अपना विशेष दखल रखता है . इन दोनों के बीच कई वर्ग हैं . कोई पूरी की पूरी रामकथा को या उसके प्रमुख अंशों को रूपक मानता है और उसकी अपने ढंग से आध्यात्मिक व्याख्या करता है , तो कोई रामकथा को इतिहास की घटना मानते हुए उसके अतिरंजित – अस्वाभाविक तत्वों को प्रक्षिप्त मानता है , इसलिए उन्हें रामकथा से बाहर कर देना चाहता है . इन विरोधों के बावजूद एक ऐसी बात है जो इन सभी वर्गों पर लगभग समान रूप से लागू होती है, और वह यह कि रामकथा से संबंधित मूल ग्रंथों को पढ़ने वाले लोग बहुत कम , लगभग नहीं के बराबर हैं. जिस वाल्मीकि रामायण को रामकथा का आदिग्रंथ कहा जाता है, उसके पढ़ने वाले तो चिराग लेकर ढूँढने पड़ेंगे.

 

रामानुजन के लेख का विरोध करने वालों का कहना था कि इसमें ऐसी बातें कही गई हैं जो प्रचलित रामकथा से भिन्न हैं . अतः हमारी आस्थाओं पर प्रहार करती हैं. हमारे समाज के एक बहुत बड़े वर्ग ने ( इसमें हिदू, मुसलमान , सिख , ईसाई आदि सब शामिल हैं ) धार्मिक आस्थाओं के नाम पर सत्य की परख के अपने ऐसे मानदंड विकसित कर लिए हैं जिनका सत्य – असत्य का निर्णय करने के लिए न्याय शास्त्र , मीमांसा शास्त्र आदि में ऋषियों के बताए ” प्रमाणों ” से ( जो प्रत्यक्ष , अनुमान आदि तीन से लेकर आठ तक हैं ) या वर्तमान ऐतिहासिक खोजों से, पुरातत्वीय खोजों से कोई लेना – देना ही नहीं . लगभग दो वर्ष पूर्व तुलसीपीठ चित्रकूट के जगतगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य ( संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के स्वर्णपदक विजेता, पी-एच. डी., डी.लिट.) ने जब आठ वर्ष के अनुसंधान के बाद तुलसी कृत रामचरित मानस के उपलब्ध पुराने संस्करणों से एवं हस्तलिखित पांडुलिपियों से मिलान करके वर्तमान प्रचलित संस्करण में 3000 ( तीन हज़ार ) अशुद्धियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया ( अशुद्धियाँ विभिन्न प्रकार की मिलीं , जैसे , नई पंक्तियाँ जोड़ दी हैं , अर्थ बदलने के लिए अनेक शब्द बदल दिए हैं आदि) और संशोधित संस्करण ( 2008 ) तैयार किया तो उनके कार्य की सराहना करने के बजाय अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् के महंत ज्ञानदास, राम जन्मभूमि न्यास के नृत्य गोपालदास जैसे तमाम साधु – संत विरोध में खड़े हो गए और न्यायालय तक पहुँच गए ( टाइम्स ऑफ़ इंडिया, मुंबई , 1 नवम्बर, 2009 . पृष्ठ 17 ) स्वामी रामभद्राचार्य जी को अपने कार्य को सही बताते हुए भी “ आस्थाओं को आहत करने के लिए ” क्षमा मांग कर अपनी जान छुड़ानी पड़ी .

 

रामानुजन का यह लेख विश्वविद्यालय के “ इतिहास “ के पाठ्यक्रम में शामिल करने के कारण चर्चा का विषय बना ; पर मजेदार बात यह है कि इतिहास की दृष्टि से इसमें कुछ है ही नहीं . इसे पढ़कर रामकथा या उसके विकास के प्रति कोई ऐतिहासिक दृष्टि विकसित नहीं होती . जिन ‘ रामायणों ‘ की चर्चा इस लेख में की गई है, उनके बारे में यह तक नहीं बताया गया कि उनकी रचना किस कालखंड में हुई . इस लेख में यह तो स्पष्ट किया गया है कि रामकथा कहने वाले वाल्मीकि एकमात्र कवि नहीं हैं , पर यह नहीं बताया कि ” रामायण ” के सभी उद्गाता ( चाहे वे वाल्मीकि हों या कंबन आदि ) ” कवि ” हैं , ” साहित्यकार ” हैं , “ कलाकार “ हैं ; “ इतिहासकार ” नहीं . यह भी नहीं बताया कि जिस मूल घटना को आधार बनाकर इन्होंने अपने – अपने ढंग से काव्य रचना की है, वह घटना ( रामानुजन की दृष्टि में ) ऐतिहासिक है या नहीं. यह भी नहीं बताया कि जिस राम को वाल्मीकि ने ” आदर्श मानव ” के रूप में चित्रित किया था , उसे बाद के कवियों ने ” भगवान विष्णु का अवतार ” क्यों, कैसे और कब बना दिया. यह भी नहीं बताया कि रामकथा के कौन से प्रसंग किन ग्रंथों में मिलते या नहीं मिलते हैं . यह भी नहीं बताया कि रामकथा की ऐसी कौन सी विशेषताएं हैं जिनके कारण यह सभी भारतीय भाषाओं का तो कंठहार बनी ही, भारत के बाहर भी साहित्यकारों को सदियों तक आकर्षित करती रही . इस लेख को पढ़कर रामकथा कहने वाले कुछ कवियों की स्वतन्त्रता ( और एक सीमा तक ” स्वच्छंदता ” ) का तो पता चल सकता है , पर यह पता नहीं चलता कि इसके लिए उन्होंने ” रामकथा ” को ही क्यों चुना ?

मेरा सुझाव है कि यदि विश्वविद्यालय रामकथा के सम्बन्ध में विद्यार्थियों को प्रामाणिक जानकारी देना चाहता है तो उसे डा. कामिल बुल्के के ग्रन्थ को आधार बनाना चाहिए ( डा. बुल्के का मूलग्रन्थ तो हिंदी में है, पर कैनबरा विश्वविद्यालय , आस्ट्रेलिया के प्रो. रिचर्ड बार्ज ने उसका अंग्रेजी में अनुवाद भी किया है ) . रामानुजन ने तो केवल कुछ प्रसंगों की जांच – पड़ताल की है, वह भी अधूरी की है ; बुल्के ने अपने ग्रन्थ में पूरी रामकथा से संबंधित देश – विदेश में उस समय तक उपलब्ध लिखित – मौखिक सभी प्रकार की सामग्री का व्यवस्थित ढंग से उपयोग किया है, और तर्कसंगत निष्कर्ष निकाले हैं. उसका अध्ययन करने से राम और रामकथा का इतिहास भी पता चलता है और यह भी पता चलता है कि किन कवियों ने अपनी किस प्रकार की कल्पनाओं से उसे कब – कब नया रूप दिया . पाठक के मन में कोई दुविधा नहीं रहती , और हर चित्र स्पष्ट होता जाता है. रामानुजन के लेख को पढ़ने के बाद मैं तो यही कहूँगा कि बुल्के का ग्रन्थ आज भी ” रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश है ” .

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डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री
जन्म लखनऊ में, पर बचपन - किशोरावस्था जबलपुर में जहाँ पिताजी टी बी सेनिटोरियम में चीफ मेडिकल आफिसर थे ; उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में स्नातक / स्नातकोत्तर कक्षाओं में अध्यापन करने के पश्चात् भारतीय स्टेट बैंक , केन्द्रीय कार्यालय, मुंबई में राजभाषा विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त ; सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी बैंक में सलाहकार ; राष्ट्रीय बैंक प्रबंध संस्थान, पुणे में प्रोफ़ेसर - सलाहकार ; एस बी आई ओ ए प्रबंध संस्थान , चेन्नई में वरिष्ठ प्रोफ़ेसर ; अनेक विश्वविद्यालयों एवं बैंकिंग उद्योग की विभिन्न संस्थाओं से सम्बद्ध ; हिंदी - अंग्रेजी - संस्कृत में 500 से अधिक लेख - समीक्षाएं, 10 शोध - लेख एवं 40 से अधिक पुस्तकों के लेखक - अनुवादक ; कई पुस्तकों पर अखिल भारतीय पुरस्कार ; राष्ट्रपति से सम्मानित ; विद्या वाचस्पति , साहित्य शिरोमणि जैसी मानद उपाधियाँ / पुरस्कार/ सम्मान ; राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर का प्रतिष्ठित लेखक सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान , लखनऊ का मदन मोहन मालवीय पुरस्कार, एन सी ई आर टी की शोध परियोजना निदेशक एवं सर्वोत्तम शोध पुरस्कार , विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का अनुसन्धान अनुदान , अंतर -राष्ट्रीय कला एवं साहित्य परिषद् का राष्ट्रीय एकता सम्मान.

1 COMMENT

  1. बधाई हो ! आपका लेख खोजपूर्ण और अंधों की आँखे खोलने वाला है !! हमारे देश में पढ़े लिखे गवांरों की संख्या बहुत जायदा है ! इस कारण धार्मिक मामलों में सत्य या तथ्य नहीं गप्प का ज्यादा महत्त्व है !! धन्यवाद

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