राजनीति

राहुल का करिश्मा कब तक

-डा. सुभाष राय

कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी की भूमिका प्रतिपक्ष जैसी है। सरकार जो नहीं कर सकती, वह राहुल करने की कोशिश करते हैं। उन पर जिस तरह लोग भरोसा कर लेते हैं, सरकार पर नहीं कर सकते। वे जिस तरह युवकों, गरीबों, दलितों और आदिवासियों का मन मोह लेते हैं, सरकार नहीं कर पा रही। कारण बहुत साफ है। सरकार पर तमाम जिम्मेदारियां हैं, उससे लोगों की उम्मीदें बाबस्ता हैं और लोग देख रहे हैं कि वह जनता की, देश की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पा रही है। सरकार के भीतर भी तमाम राष्ट्रीय सवालों पर मतभिन्नता की स्थिति है। संगठन और सरकार की आवाज में भी फर्क देखा जा सकता है। कई कांग्रेसी नेता अपने ही मंत्रियों के विरुद्ध बोलते सुने जाते हैं। जब जिम्मेदारी हो, तब मूल्यांकन भी होता है, स्वयं जनता करती है। पैमाना बहुत सीधा सा होता है। उसकी कठिनाइयां कम हुईं या नहीं, उसकी सहूलियतें बढ़ीं या नहीं। देश में शांति है या नहीं। भ्रष्टाचार कम है या बढ़ रहा है। ये बहुत छोटी-छोटी बातें तय करती हैं कि सरकार जिम्मेदारी से काम कर रही है या नहीं। पर जिस पर कोई जिम्मेदारी न हो, जिसे केवल बोलना हो, दूसरों की कमियां और गलतियां निकालनी हों, जिसे अपने चेहरे पर दूसरों से चेहरे का अक्स भर लाना हो, उसके लिए क्या कठिनाई है। यह तो बहुत आसान काम है। जो भी नेता विपक्ष में होते हैं, उनके पास सिर्फ यही काम बचता है। वे बखूबी इसका निर्वाह करते हैं। कुछ भी बोलते हैं, किसी की भी आलोचना करते हैं, कभी-कभी गालियां भी दे लेते हैं। इससे चर्चा ज्यादा होती है, नाम होता है, जनता की नजर में ऐसा नेता खरा बहादुर बन जाता है।

राहुल गांधी समझदार लगते हैं। असहज और दुखद परिस्थिति में पिता राजीव गांधी की मृत्यु, अपने राजनीतिक भविष्य के बारे में निर्णय ले पाने में मां सोनिया के ऊहापोह और विपक्ष के नेताओं द्वारा उनके विदेशी मूल को लेकर किये गये वितंडावाद से उपजी परेशानियों में वे अपनी मां के बहुत करीब रहे। इन संकटों ने उन्हें बहुत कुछ सीखने का मौका दिया। वे चाहते तो मंत्री या कदाचित प्रधानमंत्री भी बन सकते थे पर उन्होंने बहुत ही सधा हुआ और सटीक फैसला किया, राजनीति की प्रयोगशाला में रहकर सीखने का। राजनीति में शुरू में वे बहुत सीमित भूमिका में सामने आये। मां के बहाने अमेठी और रायबरेली की जमीन पर लोगों के बीच जाना, उनसे मिलना, उनकी बातें सुनना और कभी-कभी उनसे रूबरू होकर बातें करना उनके आत्मप्रशिक्षण का हिस्सा था। इस अभ्यास से धीरे-धीरे उनके व्यक्तित्व में मुखरता आती गयी। स्वभाव से वे या तो सहज रहे या फिर लोगों के दुख-दर्द को करीब से देख पाने के कारण उनमें सहजता और कुछ करने का संकल्प पैदा हुआ। युवा मन वैसे भी अधिकतर साफ-सुथरा, संवेदनशील और स्वप्नदर्शी होता है। यह बात जरूर है कि उन्होंने अपनी यह सहजता और धैर्य बनाये रखा, सीखने का क्रम जारी रखा। पहली बार जब उन्होंने संसद में वक्तव्य दिया था, तब इस बात के संकेत मिल गये थे कि वे अपने भीतर एक राजनीतिक शख्सियत विकसित करने के लिए निरंतर मेहनत कर रहे हैं। हाल के दिनों में उन्होंने जिस राजनीतिक चेतना का प्रदर्शन किया है, उससे साफ है कि अब राहुल गांधी दो साल पहले वाले राहुल गांधी नहीं रह गये हैं। वे राजनीतिक मुद्दों को पहचानने लगे हैं, बड़े और दिग्गज विरोधियों को भी सटीक जवाब देने लगे हैं और कुछ बात कहने एवं कुछ छिपा जाने के कौशल में भी काफी निपुण हो गये हैं।

केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है, इसलिए राहुल गांधी के लिए यह कठिन नहीं है कि वे लोगों में उम्मीदें जगायें और कभी-कभी उन्हें पूरा भी करें। इससे उन्हें खुद की प्रामाणिकता और विश्सनीयता स्थापित करने में मदद मिल सकती है। उन्हें कांग्रेस भी विकास के सिपाही की तरह प्रस्तुत करने में जुटी है। उन्होंने उत्तर प्रदेश से अपना अभियान शुरू किया पर अब उनके आपरेशन का दायरा बढ़ गया है। अचानक किसी दलित बस्ती में पहुंच जाना, लोगों से मेल-मुलाकात, उनके साथ खाना खाने से लेकर उनकी दिक्कतों पर संसद और सरकार के स्तर पर बातचीत से उनकी एक ऐसी छवि बनी है कि वे गरीबों के भाग्य को लेकर चिंतित हैं और उनके लिए कुछ करना चाहते हैं। मुख्यमंत्री मायावती के तीखे एतराज के बावजूद उन्होंने अपनी कार्य शैली में कोई परिवर्तन नहीं किया है। उनकी सहजता और भोलेपन का प्रभाव तो उत्तर प्रदेश की जनता पर महसूस किया जाने लगा है। मायावती सरकार चिंतित भी है इसीलिए न केवल बुंदेलखंड संबंधी पैकेज पर राज्य सरकार ने टांग अड़ाने की कोशिश की बल्कि राहुल की यात्राओं को लेकर भी उसके तेवर तल्ख दिखते हैं। किसान आंदोलन की भनक लगते ही जिस तरह राहुल अचानक अलीगढ़ के टप्पल कस्बे में पहुंच गये और भारी बरसात और कीचड़ के बाद भी पैदल चलकर पीड़ित किसानों के गांव तक गये, वह किसी को भी मोहने वाली बात हो सकती है। राहुल को बहुत जल्दी नहीं लगती, पर वे ऐसा कोई मौका नहीं छोड़ते, जो कांग्रेस की सेहत के लिए लाभदायक हो सकता है। कहना नहीं होगा कि उनके इन प्रयासों से राज्य में लगभग मरी हुई कांग्रेस अपने थके हुए पांव सम्हालकर उठ खड़ी हुई है।

कालाहांडी में भी उन्होंने आदिवासियों का दिल जीत लिया। दो साल पहले जब वे वहां गये थे तो वादा कर आये थे कि उनकी जमीनों के लिए लड़ेंगे और इस बार जब केंद्र सरकार ने नियामगिरी पहाड़ियों में वेदांत उद्योग समूह को बाक्साइट खनन की इजाजत देने से इनकार कर दिया, उन्होंने लांजीगढ़ में आदिवासियों की सभा की और वहां न केवल उनकी जीत का एलान किया बल्कि भावनात्मक निकटता का प्रदर्शन करते हुए यह भी कहा कि राहुल गांधी दिल्ली में उनका सिपाही है और जब भी वे आवाज देंगे, उनके बीच हाजिर मिलेगा। आदिवासियों के लिए दोहरा संकट था। नियामगिरी की वे पूजा करते हैं, अगर यहां खनन होता तो उनका पूज्य पर्वत बहुत समय तक खड़ा नहीं रह पाता। दूसरे वेदांत की एल्यूमीनियम परियोजना के विस्तार में उनकी जमीनें भी जातीं। फिलहाल यह संकट टल गया है। पर्यावरण कारणों और वन कानून के उल्लंघन के बहाने केंद्र ने वेदांत के खनन करार को रद कर दिया है। विकास विरोधी होने के आरोपों पर राहुल का कहना है कि आदिवासी संस्कृति के विरुद्ध होकर नहीं, उसके साथ सामंजस्य बिठाकर ही विकास संभव है। यह सब सरसरी नजर से देखने में बहुत अच्छा लगता है, गैरराजनीतिक समझ वाले लोगों को यह भी लग सकता है कि राहुल कितने करिश्माई नेता हैं पर सच का एक पहलू यह भी है सरकार बहुत ही नियोजित तरीके से राहुल गांधी की छवि लोगों के दिल में बिठाने में जुटी हुई है। इक्का-दुक्का मामलों में लोकप्रिय फैसले सरकार के लिए बहुत मुश्किल नहीं। अन्य तमाम मोर्चों पर अपनी विफलता के बावजूद वह ऐसा कर सकती है। उसे मालूम है कि अगले चुनाव तक मनमोहन सरकार अपनी उपलब्धियों के आधार पर चुनाव लड़ने की हालत में नहीं होगी, ऐसे में एक ऐसे नेता की जरूरत पड़ेगी, जिसके प्रति लोग आश्वस्त हो सकें। राहुल गांधी अगर लोगों की उम्मीदों के नये केंद्र बन सकें तो कांग्रेस की यह कठिनाई थोड़ी आसान हो सकती है। राहुल का जो चेहरा दिखायी पड़ रहा है, वह वक्त की जरूरतों के अनुसार रचा गया है, रचा जा रहा है। पर यह भी कड़वा सच है कि जब राहुल के सामने पूरा देश होगा, सारी समस्याएँ होंगी, तब वे शायद इतने करिश्माई न साबित हो सकें।