एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता- पंडित दीनदयाल उपाध्याय

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-समन्वय नंद

जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष पं. दीनदयाल उपाध्याय का स्थान भारतीय चिंतन परंपरा में काफी महत्वपूर्ण है। भारतीय चिंतन परंपरा में उनकी महत्ता इसलिए है कि उन्होंने पश्चिम के खंडित दर्शन के स्थान पर भारतीय जीवन पध्दति में समाहित एकात्म मानववाद के दर्शन को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत किया है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की विकास की अवधारणा पश्चिमी अवधारणा से बिलकुल विपरीत है। इतना तो सब मानते हैं कि मानव जीवन के समस्त क्रियाकलापों का उद्देश्य सुख की प्राप्ति है और मानव के यह क्रियाकलाप ही उसके विकास का रास्ता है। पश्चिम के लोग और शायद हमारे देश के नीति निर्धारक भी यह मानते हैं कि जहां ज्यादा उपभोग होते हैं वहां ज्यादा सुख होता है और वही विकास की प्रतीक होता है। परंतु पंडित दीनदयाल उपाध्याय उपभोग या सुख को विकास का पर्याय नहीं मानते थे। वे इसके लिए एक अत्यंत सुंदर उदाहरण दिया करते थे। वह कहते थे कि व्यक्ति को गुलाब जामुन खाना अच्छा लगता है। व्यक्ति को लगता है कि गुलाब जामुन खाने से सुख प्राप्त हो रहा है। कई वह व्यक्ति सचमुच यह मान लेता है कि गुलाब जामुन में ही सुख है। गुलाम जामुन का उपभोग करने से ही सुख प्राप्त होता है। लेकिन मान लीजिये कि जब व्यक्ति गुलाब जामुन खा रहा हो तो उसके पास उसके किसी परिजन के देहांत की खबर आ जाए। तब व्यक्ति भी वही रहेगा और उसके हाथ में वही गुलाब जामुन रहेगा लेकिन सुख उसके पास नहीं होगा। अगर गुलाब जामुन में ही सुख है तो फिर उस समय भी व्यक्ति को सुख प्राप्त होना चाहिए था। लेकिन ऐसा होता नहीं है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि मन की स्थिति ही सुख की अवधारक है। मन पर नियंत्रण ही वास्तविक विकास है। वह स्पष्ट तौर पर कहते थे कि उपभोग के विकास का रास्ता राक्षसत्व की और जाता है और मन को नियंत्रित करने का विकास का रास्ता देवत्व की ओर जाता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस देवत्व के रास्ते का अनुसंधान कर रहे थे । परंतु यह ठीक है कि यह नया रास्ता नहीं था। भारतीय साधु संत तथा सामान्य जन हजारों-हजारों वर्षों से इसकी साधना कर रहे थे । महात्मा गांधी भी एक सीमा तक उपभोग के खिलाफ थे ।

मनुष्य की जितनी भौतिक आवश्यकताएं हैं उनकी पूर्ति का महत्व को भारतीय चिंतन ने स्वीकार किया है, परंतु उसे सर्वस्व नहीं माना। मनुष्य के शरीर, मन, बुध्दि और आत्मा की आवश्यकता की पूर्ति के लिए और उसकी इच्छाओं व कामनाओं की संतुष्टि और उसके सर्वांगीण विकास के लिए भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ चतुष्टय की जो अवधारणा है पंडित दीनदयाल उपाध्याय उसे आज के युग में भारत के समग्र विकास का मूल आधार मानते थे । पुरुषार्थ के यह चार अवधारणाएं है- धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। पुरुषार्थ का अर्थ है उन कर्मों से है जिनसे पुरुषत्व र्साथक हो। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की कामना मनुष्य में स्वाभविक होती है और उनके पालन से उसको आनंद प्राप्त होता है।

जैसा कि पहले ही उल्लेख किया गया है कि मनुष्य की भौतिक आवश्यकता व अन्य आवश्यकताओं को पश्चिम की दृष्टि में सुख माना गया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार अर्थ और काम पर धर्म का नियंत्रण रखना जरुरी है और धर्म के नियंत्रण से ही मोक्ष पुरुषार्थ प्राप्त हो सकता है। यद्यपि भारतीय संस्कृति में मोक्ष को परम पुरुषार्थ माना गया है. तो भी अकेले उसके लिए प्रयत्न करने से मनुष्य का कल्याण नहीं होता। वास्तव में अन्य पुरुषार्थ की अवहेलना करने वाला कभी मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता।

इसी प्रकार धर्म आधारभूत पुरुषार्थ है लेकिन तीन अन्य पुरुषार्थ एक दूसरे के पूरक व पोषक हैं। यदि व्यापार भी करना है तो मनुष्य को सदाचरण, संयम, त्याग, तपस्या, अक्रोध, क्षमा, धृति, सत्य आदि धर्म के विभिन्न लक्षणों का निर्वाह करना पडेगा। बिना इन गुणों के पैसा कमाया नहीं जा सकता। व्यापार करने वाले पश्चिम के लोगों ने कहा कि आनेस्टी इज द बेस्ट पालीसी अर्थात सत्य निष्ठा ही श्रेष्ठ नीति है। भारतीय चिंतन के अनुसार आनेस्टी इज नट ए पालीसी बट प्रिसिंपल अर्थात सत्यनिष्ठा हमारे लिए नीति नहीं है बल्कि सिध्दांत है। यही धर्म है और अर्थ और काम का पुरुषार्थ धर्म के आधार पर चलता है। राज्य का आधार भी हमने धर्म को ही माना है। अकेली दंडनीति राज्य को नहीं चला सकती। समाज में धर्म न हो तो दंड नहीं टिकेगा। काम पुरुषार्थ भी धर्म के सहारे सधता है। भोजन उपलब्ध होने पर कब, कहां, कितना कैसा उपयोग हो यह धर्म तय करेगा। अन्यथा रोगी यदि स्वस्थ्य व्यक्ति का भोजन करेगा स्वस्थ व्यक्ति ने रोगी का भोजन किया तो दोनों का अकल्याण होगा। मनुष्य की मनमानी रोकने को रोकने के लिए धर्म सहायक होता है और धर्म पर इन अर्थ और काम का नियंत्रण को सही माना गया है।

पंडित दीनदयाल जी के अनुसार धर्म महत्वपूर्ण है परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्थ के अभाव में धर्म टिक नहीं पाता है। एक सुभाषित आता है- बुभुक्षित: किं न करोति पापं, क्षीणा जना: निष्करुणा: भवन्ति। अर्थात भूखा सब पाप कर सकता है। विश्वामित्र जैसे ऋषि ने भी भूख से पीडित हो कर शरीर धारण करने के लिए चांडाल के घर में चोरी कर के कुत्ते का जूठा मांस खा लिया था। हमारे यहां आदेश में कहा गया है कि अर्थ का अभाव नहीं होना चाहिए क्योंकि वह धर्म का द्योतक है। इसी तरह दंडनीति का अभाव अर्थात अराजकता भी धर्म के लिए हानिकारक है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार अर्थ का अभाव के समान अर्थ का प्रभाव भी धर्म का द्योतक होता है। जब व्यक्ति और समाज में अर्थ साधन न होकर साध्य बन जाएं तथा जीवन के सभी विभुतियां अर्थ से ही प्राप्त हों तो अर्थ का प्रभाव उत्पन्न हो जाता है और अर्थ संचय के लिए व्यक्ति नानाविध पाप करता है। इसी प्रकार जिस व्यक्ति के पास अधिक धन हो तो उसके विलासी बन जाने की अधिक संभावना है।

पश्चिम में व्यक्ति की जीवन को टुकडे-टुकडे में विचार किया जबकि भारतीय चिंतन में व्यक्ति के जीवन का पूर्णता के साथ संकलित विचार किया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार हमारे चिंतन में व्यक्ति के शरीर, मन बुध्दि और आत्मा सभी का विकास करने का उद्देश्य रखा है। उसकी सभी भूख मिटाने की व्यवस्था है। किन्तु यह ध्यान रखा कि एक भूख को मिटाने के प्रयत्न में दूसरी भूख न पैदा कर दें और दूसरे के मिटाने का मार्ग न बंद कर दें। इसलिए चारों पुरुषार्थों को संकलित विचार किया गया है। यह पूर्ण मानव तथा एकात्ममानव की कल्पना है जो हमारे आराध्य तथा आराधना का साधन दोंनों ही हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने पश्चिम के खंडित अवधारणा के विपरीत एकात्म मानव की अवधारणा पर जोर दिया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि उपाध्याय जी के इस चिंतन को व्यावहरिक स्तर पर उतारने का प्रयास किया जाए।

4 COMMENTS

  1. महामना दीनदयाल का सिद्धांत तो बीज है. उस विचार परम्परा पर बहस होनी चाहिए जिससे उसे अपनाने लायक कि स्थिती मे लाया जा सके. उपभोक्तावाद के सन्दर्भ मे उनके विचार सत्य है. वह स्पष्ट तौर पर कहते थे कि उपभोग के विकास का रास्ता राक्षसत्व की और जाता है और मन को नियंत्रित करने का विकास का रास्ता देवत्व की ओर जाता है. लेकिन हम चरम उपभोक्तावाद की स्थिती मे पहुच चुके है, बडा परिवर्तन वांछनीय तो है लेकिन संभव नही दिखता. हमे विचार करना होगा की उनके सत्य विचारो को हम कैसे लोगु कर सकते है.

    चरम उपभोक्तावाद को यह वसुधा बर्दास्त नही कर सकेगी. चरम उपभोग का अर्थ है प्राकृतिक संशाधनो का अधिकतम दोहन. जब यह विश्व दीनदयाल जी के विचारो की सत्यता को समझेगा तो हो सकता है की बहुत देर चुकी होगी. हम उन विचारो को लागु करने की युक्ति ढुढ ले तो इस वसुधा को बचा पाएंगें.
    अब शनैः शनैः परिवर्तन हि संभव है.

  2. “एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता- पंडित दीनदयाल उपाध्याय” – – समन्वय नंद

    (१) देश के भूखों की भूख मिटाना सर्वोपरि कार्य है.

    (२) इस कार्य के लिए भ्रष्टाचार मिटाना सर्वप्रथम कार्य होना चाहिये.

    (३) इस काम के लिए दीनदयाल जी का धर्म आधारित पुरुषार्थ करने का सिधांत अपनाने में कुछ दोष नहीं है. इसके विरोध में कुछ नहीं दीखता.

    (४) धर्म आधारित पुरुषार्थ के लिए, कोई dress code नहीं है. किसी भी रंग की टोपी पहन सकते हैं. नंगे सर भी सेवा कर सकते हैं.

    (५) सफारी पहनो, कुरता पजामा, धोती, नंग धडंग – सब चलेगा.

    (६) गरीबी हटाओ – भूख मिटाओ. कोई भी मार्ग लीजीये.

  3. श्री राम तिवारी जी आप के शब्द नीचे उद्धृत करता हूं। निम्न वाक्य आप ने, दीनदयाल जी के, किस लेख या लिखित के आधार पर किया? क्या, स्पष्ट करने की कृपा कर पाएंगे?
    shriram tiwari says
    “अब खालिस देशी विचारधारा का अलख जगाने वालों को अंग भभूत मलकर नंग धडंग दंड कमंडल हाथों में लेकर निकल पड़ना होगा -और कहेंगे –भवति भिक्षाम देहि .इसी का पर्याय है एकात्म मानवतावाद …”

  4. भारत में महान व्यक्ति के विचार नहीं बल्कि उस महान व्यक्ति की मूर्ती पूजी जाती है .हलाकि सार्वभोम सत्य यही है की महान लोग सारे संसार की थाती होते हैं .इसी तरह उनके विचार भी सकल जगत के कल्याणर्थ हुआ करते हैं .अज्ञानी लोग उन्हें राष्ट्र की सीमाओं में बांधकर देखते हैं .वर्ना जो भारत में जन्मा -उस गौतम वुद्ध के विचार सारे दक्षिण एशिया में मान्य हैं .इसी तरह दुनिया में अधिकांस वैज्ञनिक यूरोप या अमेरिका में हुए किन्तु उनके आविष्कारों से आकंठ डूबे नादाँ लोग उसे विदेशी कहकरनहीं ठुकरा सकते क्योकि भारत में अपने ही ढंग की जिन्दगी वह फिर कैसी भी हो किन्तु होगी अंधकारमय ही -क्योकि बिजली .टेलीफोन इन्टरनेट सबके सब विदेशी .अब खालिस देशी विचारधारा का अलख जगाने वालों को अंग भभूत मलकर नंग धडंग दंड कमंडल हाथों में लेकर निकल पड़ना होगा -और कहेंगे –भवति भिक्षाम देहि .इसी का पर्याय है एकात्म मानवतावाद …

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