आर्यसमाज चकराता (देहरादून) व चकराता विषयक हमारे कुछ संस्मरण

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मनमोहन कुमार आर्य

देहरादून में आर्यसमाज की स्थापना अक्तूबर, सन् 1880 में हुई थी जब ऋषि दयानन्द दूसरी बार देहरादून पधारे थे। देहरादून से लगभग 87 किमी. दूरी पर पर्वतीय व पर्यटक स्थल चकराता है। मसूरी की ही भांति चकराता भी पर्वतीय व वनाच्छादित होने के साथ मसूरी से अधिक ऊंचाई पर है परन्तु यह छावनी स्थान  होने से पर्यटन के रूप में इसका विकास नहीं किया गया है। यहां शीत ऋतु में मसूरी से अधिक हिमपात होता है। अनेक सुन्दर पर्यटन स्थल भी यहां पर हैं। गर्मियों में भी यहां ठण्ड रहती है। मई-जून में भी यहां कम्बल ओढ़कर सोते हैं। सायं के समय यदि यहां के चकराता चौक पर बैठ जायें तो देद्वार के वृक्षों की वायु से संगीत के स्वर प्रफुटित होते हैं जो प्रकृति प्रेमियों को बहुत प्रिय लगते हैं। हमने 50 वर्ष पूर्व यहां इसका आनन्द लिया है। पहले 12 वर्ष की आयु में जब हम कभी चकराता में कार्यरत अपने पिता से मिलने गये थे तो यहां जाने के लिए अनुमति लेनी होती थी। कालसी-सहिया-चकराता सड़क भी तंग थी जिससे यहां गेट सिस्टम हुआ करता था। एक तरफ से गाड़िया चलती थी तो दूसरी ओर से गाड़िया पूरी तरह से बन्द हो जाती थी। अब चकराता से चलकर सभी गाड़िया सहिया पहुंच जाती थी। तब सहिया से चकराता के लिए गाड़ियों का काफिला चलता था। इस बीच चकराता से सहिया की ओर आने वाली सभी गाड़ियों को चकराता रोककर रखा जाता था। इसी प्रकार सहिया और कालसी के बीच भी गाड़ियों के संचालन के लिए गेट सिस्टम था। पहली बार जब हम चकराता गये तब हम कक्षा 7 में पढ़ते थे। इससे एक बार पूर्व भी हम अपनी माताजी व बहिनों के साथ चकराता व सहिया के बीच जौनसार बाबर के एक गांव कोरूवा गये थे और कई दिनों तक वहां रहे थे। उन दिनों हमारे पिता यहां कार्य कर रहे थे। हमें याद है कि वहां पांच छः फीट ऊंचाई वाले कमरों के दो मजिला भवन ही होते थे। नीचे की मंजिल में ग्रामीण अपने बकरी व भेड़ आदि पशुओं को रखते थे और ऊपरी मंजिल में मनुष्य रहा करते थे। जिन दिनों में हम चकराता रहे, वहां अंग्रेजों के समय के एक बंगला नं. 34 में रहते थे। वहां अन्य भी अनेक लोग रहा करते थे जो हमारे पिता के साथ काम करते थे। वहां कुछ गधे व खच्चर भी पाली हुईं थी। यदा कदा रात्रि में चीता या शेर आ जाता था। वहां के लोग अग्नि जलाकर उससे बचाव करते थे। हमारे निवास काल में भी दो तीन बार वहां शेर प्रजाति का कोई पशु आया था। प्रातः उठने पर हमें अपने पिता व वहां के लोगों से इसकी जानकारी मिलती थी। उन दिनों वहां भारतीय सेना की तिब्बती बटालियन रहा करती थी। दिन में कई बार सैनिक हमें अपने साथ भोजन भी कराते थे। हमें याद है कि दाल में दाल कम ही दिखाई देती थी और नमकीन पानी ही होता था। रोटी भी घर जैसी गोलाकार व अच्छी सिकी हुई नहीं होती थी। फिर भी मग्गा प्लेट में हमें यह भोजन अच्छा लगता था। 12 वर्ष की आयु में सैनिकों से मिलना, उनसे बाते करना व उनकी बातें सुनना हमें अच्छा लगता था। गर्मियों की छुट्टियां समाप्त होने पर जुलाई, 1965 में हम देहरादून लौट आये थे। जब हम सरकारी सेवा में थे तो एक बार लोकसभा व विधान सभा के एक साथ चुनाव हुए थे। इन चुनावों में हमारी निर्वाचन ड्यूटी लगी थी। हमें पोलिंग आफीसर बनाया गया था। तब हमें चकराता व त्यूणी होते हुए कथियान तक जाना पड़ा था और वहां से लगभग पांच किमी. दूर एक ग्राम पंचायत के प्राइमरी स्कूल में हमारी ड्यूटी लगी थी। इसके बाद कभी हमारा चकराता जाना नहीं हुआ। यह भी बता दें कि चकराता से लगभग 55 किमी. दूरी पर ‘लाखामण्डल’ एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। बतातें हैं कि यहां पाण्डव रहे थे। उनके समय के अनेक अवशेष, बड़े बड़े भवन आदि अब भी वहां हैं जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है कि उस प्राचीन समये में ऐसे अच्छे व बड़े भवन कैसे बने होंगे। चकराता के हमारे निवास स्थान से लाखामण्डल हमें दिखाई देता था। तब वहां आते जाते उसे देखा करते थे और वहां जाने के बारे में सोचा था परन्तु अभी तक वहां जाना नहीं हो सका। आज श्री प्रेम प्रकाश शर्मा, आर्यनेता देहरादून से बात हुई है। अक्तूबर 2017 व उससे पूर्व जिला सभा के पदाधिकारियों के साथ वहां जाने का कार्यक्रम बन सकता है।

चकराता में आर्यसमाज की स्थापना सितम्बर, सन् 1924 से पूर्व हुई थी। समाज मन्दिर के भवन निर्माण का कार्य 13 सितम्बर, सन् 1924 को किया गया था। इस अवसर पर वहां भवन की नींव में एक ताम्र पत्र सहित अनेक वस्तुओं को रखा गया था। कुछ वर्ष पूर्व जब वहां के जीर्ण भवन का देहरादून आर्यसमाज के वर्तमान के सबसे सक्रिय नेता श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी के नेतृत्व में पुनर्निर्माण किया गया तो पुरानी नीवों को खोद कर पुनः नयी नींव डाली व बनाई गई। यह कार्य करते हुए पुरानी वह पेटी वा काल पात्र मिला जिसमें समाज विषयक कुछ विवरण सहित अन्य वस्तुएं भी प्राप्त हुई थी। इस अवसर पर श्री प्रेम प्रकाश शर्मा के साथ हमारे देहरादून के गुरुकुल पौंधा के यशस्वी आचार्य डा. धनंजय जी भी थे। जो ताम्रपत्र निकला उस पर जो खुदा वा लिखा था, उसकी उन्होंने प्रतिलिपि कर ली थी। आचार्य धनंजय जी के जन्म दिवस 11 जुलाई, 2017 को गुरुकुल जाने पर उन्होंने वह पत्र हमें दिया जिसमें दी गई जानकारी को आज हम पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। उस ताम्रपत्र की प्रतिलिपि में लिखी सभी बातें अक्षरक्षः निम्न हैं:-

 

ऋक्                                                                                        यजुः

ओ३म् तत्सत्

वेद·खिलो धर्म मूलम् (मनु.)

 

वानप्रस्थो महाभागो महात्मा लक्ष्मणो व्रती।

भाद्रशुक्ल पंचदश्यां शनिवारे शुभे दिने।।

 

सूर्यदिग्ग्रहचन्द्राब्दे पंचविंशे महोत्सवे।

शिलामेतां न्यधाच्छ्रीमानार्याणां हितकाम्यया ।।

 

शुभोदर्कमिदं भूयात्सर्वदा धर्ममन्दिरम्।

जौनसारजनानन्दाधायक धर्मवर्द्धकम्।।

 

अधिकारिणः

1- श्री ला. गंगाप्रसाद जी प्रधान, 2- श्री ला. मथुराप्रसाद जी, उपप्रधान, 3-  श्री ला. देवीदयाल जी, मन्त्री,

4- श्री ला. बाबूराम जी उपमन्त्री। 5- श्री ला. राधाकृष्ण जी कोषाध्यक्ष, 6-  श्री ला. रामप्रसाद जी पुस्तकाध्यक्ष।

(एवं) श्री बा. गिरधारी लाल जी सहित एस. बी. अय्यर।

 

वेदों का पढ़ना पढ़ाना व सुनना सुनाना आर्यों का परम धर्म है. (नियम 3)

 

निम्नलिखित पुस्तकें (नींव में) रक्खी गई हैं।

1- चारों वेद (मूल), 2- षट्शास्त्र (मूल),  3-उपनिषद् (गुटका), 4- सत्यार्थप्रकाश, 5-आर्यसमाज के नियमोपनियम, 6- श्री महर्षि स्वा. दयानन्द सरस्वती का चित्र।

 

आर्य संवत् 1972949026 मिति भाद्रपद शुक्ल 15 विक्रमीय संवत् भाद्र. शु. 15 शनिवार 1981.

सन् ईसवी 1924 सितम्बर 13

दयानन्द जन्म-शताब्दि

 

नोट- श्री ला. रामचन्द्र जी ने खोदा यह (ताम्र) पत्र (इसका तात्पर्य यह लगता है कि ताम्रपत्र पर इस विवरण को श्री रामचन्द्र जी ने लिखा या खोदा था।)

 

आर्य समाज चकराता की वर्तमान स्थिति जानने के लिए हमने आज देहरादून के प्रमुख निष्ठावान आर्यनेता व हमारे प्रमुख सहयोगी श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी से बातचीत की। आपने बताया कि चकराता बसस्टाप से चकराता बाजार की ओर 250 मीटर की दूरी पर पैदल मार्ग पर आर्यसमाज मन्दिर स्थित है। यदि अपनी कार आदि से वहां जायें तो दूरी डेढ़ से 2 किमी. के मध्य है। आर्यसमाज मन्दिर व इसकी सम्पत्ति दो भागों में है। एक भाग आवासीय भवन है जिसमें दो मंजिलें हैं। नीचे का भाग में 1 परिवार रहता है। यह शायद आर्यसमाज का किरायेदार है। इसका ऊपरी भाग आर्यसमाज के पास है। पहले इसकी व्यवस्था श्री बहादुर सिंह नाम के एक व्यक्ति करते थे परन्तु बाद में पता चला कि उनका खानपान शुद्ध नहीं है। अब वह रहते तो आर्य समाज में ही हैं परन्तु उनकी धर्मपत्नी समाज में सफाई आदि के कुछ काम कर देती हैं। आर्यसमाज के भवन का पुनर्निर्माण देहरादून के प्रेमनगर आर्यसमाज के स्वामी विवेकानन्द जी की देखरेख में हुआ था। उन्होंने ही इस व्यक्ति को आर्यसमाज के कार्यों के लिए रखा था। इस दो मंजिले भवन के ऊपरी भाग में दो कमरे हैं जो आर्यसमाज के पास हैं। आर्यसमाज की इस सम्पत्ति के साथ की दूसरी सम्पत्ति में एक हाल वा सभागार है। यहां 30-35 व्यक्तियों के निवास की सुविधा है। 2 कमरे हैं और 5 बैड वाली 1 डोरमैट्री है। 2 शौयालय भी बने हैं जिसका उपयोग अतिथि करते हैं। समाज में यहां पृथक से यज्ञशाला नहीं है, सभागार में ही हवनकुण्ड रखकर यज्ञ कर लिया जाता है। श्री तीर्थ सिंह कुकरेजा जी इस समाज के प्रधान एवं श्री राणा जी समाज के मंत्री है। आपकी चकराता बाजार में दुकानें हैं।  चकराता में सीमित संख्या में पर्यटक आते हैं। हम अनुभव करते हैं कि यदि कोई विरक्त, वानप्रस्थी या संन्यासी यहां के आर्यसमाज में रहे तो इसका कल्याण हो सकता है। इच्छुक योग्य व समर्थ व्यक्ति श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी से फोन नं. 09412051586 पर सम्पर्क कर सकता है। यहां समाज के सदस्यों की संख्या नगण्य होने व उनमें भी उत्साह की कमी के कारण यहां नियमित सत्संग नहीं हो पाता। यह स्थिति वर्तमान के आर्यसमाज चकराता की है जो हमने पाठकों के लिए प्रस्तुत की है।

 

आर्यसमाज, धामावाला देहरादून ने 1 से 3 नवम्बर, 1980 को अपनी शताब्दी मनाई थी। इस अवसर पर एक स्मारिका का प्रकाशन भी किया गया था। इसका सम्पादन श्री यशपाल आर्य ने किया था। इसमें आर्यसमाज चकराता की संक्षिप्त जानकारी दी गई है। वह समस्त जानकारी हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। सम्पादक महोदय चकराता आर्यसमाज का परिचय देते हुए लिखते हैं कि ‘देहरादून जिले का अति स्मरणीय स्थल चकराता-सेना की छावनी है। बाहर के आदमी यहां आकर बसे। सरकार सदा से इसे हतोत्साह करती रही है। 7200 फुट की ऊंचाई पर स्थित यह छोटा सा पर्वतीय नगर अपने प्राकृतिक सौन्दर्य और जलवायु के कारण विख्यात है। इस समय समाज का कोई कार्यकर्ता न होने के कारण विशाल भवन नगर के मध्य स्थित होने पर भी अनाथ के समान खड़ा है। जब तक राधाकृष्ण जी (यहां) रहे (फर्म मोहन लाल नत्थूमल) या श्री प्रभुलाल जी रहे तब तक कुछ न कुछ गति थी, अब प्रायः निर्जीव सी है। इस समाज की उन्नति में बक्शी गोमती प्रसाद (कारिन्दे फर्म लेखराज केवलराम कालसी वाले) व बा. गंगा प्रसाद जनरल मर्चेंट जो अक्सर प्रधान भी रहे, का सहयोग सदा मिलता रहा। अंग्रेज के जमाने में यहां आर्यसमाज मन्दिर पर सरकार ने गोली चलायी थी जिसमें एक बलिदान इस समाज को देना पड़ा था। आर्यसमाज की राष्ट्र भक्ति व देश प्रेम के लिए यही इनाम अंग्रेज दे भी सकता था।’

 

देश के एक प्रमुख स्थान चकराता में आर्यसमाज का अपना भवन व सम्पत्ति है। स्वर्णिम इतिहास भी है। सम्पत्ति पर लोगों ने कब्जा कर रखा है। जो सम्पत्ति हमारे पास है उसकी भी समुचित व्यवस्था व रखरखाव हम नहीं कर पाते। साप्ताहिक सत्संग की व्यवस्था भी नहीं हो पाती। यह स्थिति हमारे लिए चिन्ता का कारण होनी चाहिये। हम श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी को साधुवाद देना चाहते हैं कि वह आर्यसमाज की सम्पत्तियों की रक्षा के लिए अपना लगभग पूरा समय देते हैं। वैदिक साधन आश्रम तपोवन देहरादून के भी आप यशस्वी व सुयोग्य मंत्री है। हमें स्वयं देहरादून में उनका कोई उत्तराधिकारी दृष्टिगोचर नहीं होता। यह भी हमारे लिए कई बार चिन्ता का विषय बना है। आर्यसमाज का शोषण करने वाले संस्कार विहीन तो अवसर ढूंढा करते हैं परन्तु संस्कारी व सेवाभावी सुयोग्य ऋषिभक्तों का अभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। देश व प्रदेश के आर्यसमाज के नेता इस पर विचार करें। क्या हम आर्यसमाज की सभी सम्पत्तियों की सुरक्षा व आर्यसमाजों एक जीवित जाग्रत संस्था का रूप प्रदान कर सकने के लिए तैयार हैं।

 

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  1. महृषि दयानन्द ने १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को बहुत नजदीक से देखा था और उसमे जिन समूहों या जातियों ने सहयोग नहीं दिया था वहां , मार्शल कही जाने वाले समुदायों में और सैनिक छावनी वाले क्षेत्रों में आर्य समाज की स्थापना स्वयं महऋषि जी ने की थी, यह बात बहुत साल पहले आर्य समाज देहरादून के एक कार्यक्रम में स्व. श्री प्रकाशवीर शास्त्री जी ने बताई थी! मेरठ और देहरादून के आर्य समाज सैनिक छावनी वाले स्थानों में थे! पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट, राजपूतों, त्यागियों में आर्य समाज के काम को काफी बढ़ाया गया था! पंजाब में आर्य समाज की स्थापना भी इसी योजना का हिस्सा थी! और वहां से आगे चलकर श्याम जी कृष्ण वर्मा, लाला लाजपत राय और फिर भगत सिंह जैसे क्रन्तिकारी आर्य समाज की देशभक्ति की विचारधारा के प्रसार का ही परिणाम था! इस दिशा में शोध अपेक्षित है! चकराता के बारे में पढ़कर अच्छा लगा! मेरे अपने अनुभव ताज़ा हो गए!साधुवाद!

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