विविधा

प्रवासी भारतीयों, ठोकरों के लिए तैयार रहो!

डॉ. मधुसूदन
*अभ्यागत मित्रों से वार्तालाप:

अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति (अमरिका) का द्वि-वार्षिक सम्मेलन, वॉशिंग्टन डी. सी. निकट हर्न्डन वर्जिनिया में गत २,३ और ४ अक्तुबर २०१५ को सम्पन्न हुआ।
प्रमुख वक्ता के नाते इस लेखक को आमंत्रित कर, सम्मान प्रदान करने के लिए, लेखक, सम्मेलन और समिति के अध्यक्ष डॉ. सतीष मिश्र जी को धन्यवाद देता है। लेखक का विषय था, *शब्द रचना एवं शब्द शोध* जिस पर अलग आलेख डाला जाएगा। पर आज एक अलग  विषय पर लेखक अपने संक्षिप्त विचार प्रस्तुत करता है। अभ्यागत मित्रों से वार्तालाप से जाना कि यह विषय बहुत ही सामयिक, गम्भीर  और महत्त्वपूर्ण है।
*अत्त्योचित महत्त्वका विषय:
यह विषय अपने आप में, आज की और विशेषतः आगामी, अमरिकावासी भारतीय मूल की पीढियों के, लिए अत्योचित महत्त्व रखता है। अनेक प्रवासी भारतीय संस्थाएँ भी इस विषय को निरुपयोगी मान कर, विषय की उपेक्षा करती आ रही हैं।
अतिरेकी मात्रा में धन के पीछे भागने वालों को, और “सर्वे गुणाः कांचनं आश्रयन्ते।” जैसी उक्तियों से अभिभूत सुशिक्षितों को जब देखता हूँ, तो अचरज होता है।

क्या सभी समस्याओं की जड धन का अभाव है?

*परिवारो में भी अंग्रेज़ी प्रयोग?
और देख कर पीडित हूँ, कि, अनेक परिवारो में अंग्रेज़ी का प्रयोग हो रहा है। यह प्रयोग स्वयं में, उतना बुरा नहीं है; जितना इस प्रयोग के कारण आप चले जाने के पश्चात आपकी अगली पीढी भारतीय संस्कार और संस्कृति से कट जाएगी। अंग्रेज़ी द्वारा उन्हें जोडकर भी तब ही रखा जा सकता है; जब हम उनके मन पर भारतीय संस्कृति की प्रखर छाप छोड कर जाएँ।
*अंग्रेज़ी की मर्यादाएँ।

अंग्रेज़ी में भी वेदान्त का ज्ञान अवश्य है, पर  वेदान्त में भी अनेक संस्कृत के आध्यात्मिक शब्दों का प्रयोग होता है। और उस अंग्रेज़ी का अर्थकरण करने वाले अच्छी संस्कृत या प्रादेशिक भाषाएँ जानने वाले ही होते हैं। और ऐसी वेदान्त या अन्य सोसायटियों से जुडकर कब तक आपकी अगली पीढियाँ रह पाएगी? यह प्रश्न भी मुझे चिंतित ही करता है।

अधिक चकित तब होता हूँ, जब, वार्तालाप में, मातृभाषा या हिन्दी भूलनेपर लज्जा नहीं पर गौरवानुभूति प्रतीत होती है। तथाकथित सांस्कृतिक संस्थाएं भी इस लेखक को हिन्दी वक्तव्य के लिए, मंच भी देती नहीं।

कुछ संस्थाएँ तो परामर्श भी देती हैं, कि, शुद्ध हिन्दी कोई समझता नहीं, इस लिए चालू हिन्दी ही बोला करो। कारण, अब हिन्दी भाषी भी शुद्ध हिन्दी समझते नहीं है।कुछ तो अंग्रेज़ी में ही बोलने का उपदेश देते हैं। और सोचिए सम्मेलन में उपस्थित संख्या से भी यही निष्कर्ष निकलता है।

हिन्दी का प्रचार करने कठिनाई अनुभव करता हूँ। एक ओर (मिडीया ने)समाचार माध्यमों ने हिन्दी को आधुनिक हिंग्लिस बना दिया है; और हिन्दी भाषी भी चालू हिन्दी को प्रोत्साहन चाह रहे हैं।

*गलती निकालो, पर, कुछ कहो तो सही।

अपने ही बंधुओं का दोष निकालना नहीं चाहता, पर कहें, तो किसे कहें?
इसकी कीमत हमारी अगली पीढी अवश्य चुकाएगी, संस्कृति खोकर, और उससे भी अधिक जीवन में दुखी होकर।
*दुःख कैसा होगा?

दुख दैहिक या शारीरिक नहीं, मानसिक और आध्यात्मिक होगा। आज भी उसका आगमन होते हुए, दिख रहा है। युवावस्था में जब सब कुछ ठीक ठाक चलता है, तब नहीं, पर वृद्धावस्था में अधिक चुभेगा।

भौतिकता में सहन-शक्ति कम होती है, तपस्या का अभ्यास नहीं होता, जिससे सुविधावादी और उपयोगितावादी, वृद्धावस्था की समस्याओं को सह सके, और उनसे  जूझ सके। अन्यों के दुःखों के प्रति ऐसी विचारधाराएँ  *पर दुःख शीतल*  होती हैं।
जिस अध्यात्म, और सहनशीलता  के कारण हमारी पीढी  जीवन में संतुष्टि पा सकी, उस अध्यात्म और सहन शक्ति के अभाव में, मात्र पैसों से अगली पीढी सुखी नहीं होगी।
इसी लिए, मैं अपने वक्तव्य के पहले, इस विषय पर पहले लिखना चाहता हूँ।
आलेख कुछ विशाल दृष्टि-कोण अपनाता है; जो अमरिका की अपेक्षा कुछ अधिक ही है, पर गलत नहीं लगता। ऐसी दृष्टि से आलेख लिखना एक चुनौती ही थी, पर प्रयास किया है।
*सर्वांगीण सुख-संभावना की संस्कृति 
युवा पीढी को सर्वांगीण रीति से सुखी करने हमें अपनी सांस्कृतिक धरोहर उनके मानस पटल पर अंकित करनी होगी। यह काम हमें जाने के पहले करना होगा।  कुछ मात्रा में, यह बडा कठिन काम होगा। क्यों कि ये तालियों की संस्कृति है, सस्ते प्रमाण पत्रों की संस्कृति है। झट पट संतुष्टि (push Button culture) की संस्कृति है। दूरदृष्टि और दूरगामिता यहाँ समझमें नहीं आती।

*दैहिकता और भौतिकता प्रधान संस्कृतियाँ
पश्चिमी संस्कृतियाँ दैहिकता, भौतिकता और उपयोगिता प्रधान होती हैं, वें दैहिक-सुख-प्रधान युवावस्था के (फेज़ ) अंतराल में प्रकृष्टता (Intense)से प्रबल प्रेरक होती है। पर इस अंतराल का अंत जब होता है, तो उसके पश्चात उससे प्रभावित मनुष्य, वृद्धोंको, निरुपयोगी और अडचन मानकर उनकी उपेक्षा कर सकता है। आज भी कुछ परिवारों में ऐसी प्रक्रिया घटते देख रहा हूँ। किसी वृद्धाश्रम को भेंट देने का और स्वयं निर्णय करने का अनुरोध है।

ये चालू संस्कृतियाँ मनुष्य को आजीवन (Life long) प्रेरणा देने में असमर्थ लगती है। युवाओं को भौतिक प्रलोभन अवश्य देती हैं, कुछ प्रौढता को भी प्रेरणा दे सकती है; पर वृद्धावस्था में आए हुए मनुष्य को एक अडचन के रूप में देखती है।

 *मानसिकता और बौद्धिकता प्रधान संस्कृतियाँ:  
जो संस्कृतियाँ मानसिक-बौद्धिकता प्रधान होती हैं, उनका भी प्रकृष्ट अंतराल विशेषकर प्रौढता प्रधान अंतराल तक ही सीमित होता है।
केवल आध्यात्मिकता प्रधान संस्कृति ही लेखक को सार्वकालिक, सार्वजनीन, सार्वलौकिक और सार्वदेशिक प्रतीत होती है।
आध्यात्मिकता की सुई सदैव उचित दिशा का निर्देश करने में लेखकने सक्षम पाई है। आध्यात्मिक प्राप्ति होती तो वैयक्तिक ही है। बाह्य दृष्टव्य चिह्नों से उसे सही सही नापा या परखा जाना कठिन होता है।
*हमारे पुरुषार्थ
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के सिद्धान्तों में अर्थ और काम की भी सुविधा है ही; उन्हें उपेक्षित नहीं किया गया है। और धर्म की भी सुविधा है। मोक्ष तो बाकी के तीन पुरूषार्थों की सफलता का निर्णायक परिणाम होता है।
पर समाज में स्थिरता और संतुलन स्थायी करने की दृष्टि से अर्थ और काम धर्म की मर्यादा में ही संयमित रखा गया है। यह बिन्दू भूला न जाए। समाज को अराजकता से इसी प्रकार बचाया जा सकता है; और वैयक्तिक आध्यात्मिक प्रगति का भी यह स्वयं स्वीकारा हुआ, संयमित बर्ताव को प्रोत्साहित करता है।
यह है हमारी सांस्कृतिक रचना। संतुलनकारी और उन्नति प्रेरक।
(सोलह)*सुशीलं जगद्येन नम्रं भवेत* और *कृण्वन्तो विश्वं आर्यम्*  की प्रेरणा।
उसी प्रकार ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम, और संन्यस्ताश्रम भी जीवन साफल्यता की कुंजी है। प्रत्येक आश्रम में कुछ प्रधान पुरूषार्थ होते हुए भी गौण पुरूषार्थों का विरोध नहीं है। अर्थ और काम की साधना भी धर्म विरोधी होने पर स्वीकार्य नहीं है। *धर्मात अर्थश्च कामश्च* का यही अर्थ होता है।

*जीवन के अलग अलग अंतराल

जीवन के अलग अलग अंतराल में अलग अलग इच्छाएँ प्रकृष्ट हुआ करती हैं।
जिस प्रकार किसी महामार्ग पर आरूढ होने के लिए, धीरे धीरे गति बढाकर, और धीरे धीरे मोड मोड कर गाडी चलाई जाती है; बस उसी प्रकार हमारे पुरखों ने जीवन के हर मोड पर अलग अलग आश्रम को प्राधान्य दिया है। मोड मोड पर संस्कारों की रचना भी इसी दृष्टि से लेखक देखता है।

*गोपालदास ‘नीरज’

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,

चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ पहन-पहन गये,
(हम धुआँ पहन कर ही तो जाएंगे !)
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का (संतान) उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।