आपातकाल और लोकतंत्र

-विजय कुमार-
emergency

-आपातकाल (26 जून) की 39वीं वर्षगांठ पर-

जून महीना आते ही आपातकाल की यादें जोर मारने लगती हैं। 39 साल पहले का घटनाक्रम मन-मस्तिष्क में सजीव हो उठता है। छह दिसम्बर, 1975 को बड़ौत (वर्तमान जिला बागपत) में किया गया सत्याग्रह और फिर मेरठ जेल में बीते चार महीने जीवन की अमूल्य निधि हैं। वह मस्ती और जुनून अब एक सपना सा लगता है। 1975 को याद करने के लिए उसकी पृष्ठभूमि में जाना होगा। 1971 में पाकिस्तान पर भारत की अभूतपूर्व विजय हुई थी। इसमें सेना के साथ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का साहस भी प्रशंसनीय था। यद्यपि ‘शिमला समझौते’ में उन्होंने बिना शर्त 93,000 बंदियों को छोड़कर अच्छा नहीं किया। इसकी आलोचना भी हुई, पर विजय के उल्लास में यह आलोचना दब गयी।

इसके बाद इंदिरा गांधी निरंकुश हो गयीं। कांग्रेस का अर्थ इंदिरा गांधी हो गया था। देवकांत बरुआ जैसे चमचे ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’ का राग अलापने लगे। संगठन और शासन, दोनों के सब सूत्र इंदिरा गांधी के हाथ में थे। ऐसे माहौल में ही सत्ताधीश तानाशाह हो जाते हैं। इंदिरा गांधी के आसपास बंसीलाल, विद्याशंकर शुक्ल, संजय गांधी, सिद्धार्थशंकर रे आदि का मनमानी करने वाला समूह बन गया। उधर समाजवादी नेता राजनारायण ने इंदिरा गांधी के रायबरेली चुनाव में गलत साधन अपनाने पर मुकदमा ठोक रखा था। इंदिरा गांधी के स्टेनो यशपाल कपूर ने सरकारी सेवा में रहते हुए उनके चुनाव मेें काम किया था। न्यायालय में उनके हारने की पूरी संभावना थी। इससे वे बहुत परेशान थीं। इधर गुजरात के छात्रों ने चिमनभाई पटेल के भ्रष्ट शासन के विरुद्ध ‘नवनिर्माण आंदोलन’ छेड़ दिया था। गुजरात से होता हुआ यह आंदोलन बिहार पहुंच गया। वहां इंदिरा गांधी के प्रिय अब्दुल गफूर की भ्रष्ट सरकार चल रही थी। युवाओं के उत्साह को देखकर वयोवृद्ध जयप्रकाश नारायण ने इस शर्त पर नेतृत्व स्वीकार किया कि आंदोलन में हिंसा बिल्कुल नहीं होगी। पूरे देश और विशेषकर उत्तर भारत में ‘जयप्रकाश का बिगुल बजा तो, जाग उठी तरुणाई है; तिलक लगाने तुम्हें जवानो क्रांति द्वार पर आयी है। हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा। जयप्रकाश है नाम देश की चढ़ती हुई जवानी का।’ आदि नारों से गांव, नगर और विद्यालय गूंजने लगे।

इंदिरा गांधी ने आंदोलन को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भारतीय जनसंघ के नानाजी देशमुख, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के गोविन्दाचार्य और सुशील मोदी आदि भी पूरी तरह सक्रिय थे। चार नवम्बर, 1974 को हुई पटना रैली में लाठीचार्ज से जेपी को बचाने के लिए नानाजी उनके ऊपर लेट गये। इससे उनका हाथ तो टूट गया; पर जेपी बच गये। 12 जून, 1975 को प्रयाग उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्तकर उन पर छह साल तक चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया। इसी दिन गुजरात में चिमनभाई पटेल के विरुद्ध विपक्षी जनता मोर्चे को भारी विजय मिली। इस दोहरी चोट से इंदिरा गांधी बौखला गयीं। 25 जून, 1975 को दिल्ली में हुई विराट रैली में जेपी ने पुलिस और सेना के जवानों से आग्रह किया कि शासकों के असंवैधानिक आदेश न मानें। अब तो इंदिरा गांधी पर जुनून सवार हो गया। उन्होंने जेपी को गिरफ्तार कर लिया।

पूरे देश में इंदिरा गांधी पर त्यागपत्र देने के लिए दबाव पड़ने लगा; पर विधिमंत्री सिद्धार्थशंकर रे ने आपातकाल का प्रस्ताव बनाया और राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को रात में ही जगाकर हस्ताक्षर करा लिये। मंत्रिमंडल को भी इसका पता अगले दिन ही लगा। इस प्रकार 26 जून को देश में आपातकाल लग गया। विरोधी दल के अधिकांश नेताओं तथा संघ के प्रमुख कार्यकर्ताओं को बंदी बना लिया गया। तब चन्द्रशेखर, रामधन, कृष्णकांत और मोहन धारिया भी कांग्रेस में थे। ये इंदिरा जी के इस रवैये के विरोधी थे। इन्हें ‘युवा तुर्क’ कहा जाता था। इन्हें भी बंद कर दिया गया। मीडिया पर सेंसर लगा दिया गया। देश एक ऐसे अंधकार-युग में प्रवेश कर गया, जहां से निकलना कठिन था।

आगे की कहानी बहुत लम्बी है। इस तानाशाही के विरोध में ‘लोक संघर्ष समिति’ बनायी गयी। इसके बैनर तले सत्याग्रह हुआ, जिसमें देश भर में डेढ़ लाख लोगों ने गिरफ्तारी दीं। इनमें 95 प्रतिशत संघ वाले थे। वस्तुतः इस आंदोलन का सूत्रधार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही था। इंदिरा जी ने सबको बंदकर सोचा कि अब आंदोलन दब गया है। अतः उन्होंने लोकसभा के चुनाव घोषित कर दिये; पर संघ का भूमिगत संजाल पूर्णतः सक्रिय था। जेल में बंद नेताओं से तुंरत सम्पर्क कर ‘जनता पार्टी’ के बैनर पर चुनाव लड़ने का आग्रह किया गया। अधिकांश बड़े नेता तो हिम्मत हार चुके थे; पर जब उन्होंने जनता का उत्साह देखा, तो वे राजी हो गये।

इंदिरा गांधी की भारी पराजय हुई। त्यागपत्र देने से पहले उन्होंने अपनी कलम से संघ से प्रतिबंध हटा दिया। उन्होंने बाद में माना कि संघ पर प्रतिबंध लगाना उनकी सबसे बड़ी भूल थी। चुनाव के बाद जनता पार्टी का शासन आया; पर उसमें अधिकांश कांग्रेसी और समाजवादी थे, अतः वे कुर्सियों के लिए लड़ने लगे। जिस संघ के त्याग, बलिदान और परिश्रम के कारण वे सत्ता में पहुंचे थे, उसे ही उन्होंने नष्ट करना चाहा। परिणामस्वरूप जनता पार्टी टूट गयी। ढाई साल बाद हुए चुनाव में इंदिरा गांधी फिर से जीत गयीं।

जनता पार्टी ने अपने ढाई वर्ष के कार्यकाल में संविधान में ऐसे प्रावधान कर दिये, जिससे फिर आपातकाल न लग सके। यद्यपि इसके बाद देश में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव बढ़ा है। कांग्रेस की देखादेखी वंशवाद प्रायः सभी दलों में पहुंच गया है। ऊपर से देखने पर लोकतंत्र तो है; पर वह कुछ परिवारों के पास बंधक बन कर रह गया है। लोकतंत्र की पालकी वे दल ढो रहे हैं, जिनमें स्वयं आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। अत्यधिक खर्चीले होने के कारण सामान्य व्यक्ति चुनाव लड़ ही नहीं सकता। अंग्रेजों से उधार ली गयी चुनाव प्रणाली ने भारत को जाति और क्षेत्र के मकड़जाल में फंसा दिया है।
2011 में नानाजी देशमुख द्वारा 1979 में लिखी पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ को फिर प्रकाशित किया है। इसकी भूमिका में वे लिखते हैं, ‘आज की राजनीतिक कार्यप्रणाली का 28 वर्षों तक गहन अध्ययन और अनुभव प्राप्त करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि आज जिस प्रकार की राजनीति चल रही है, उसके माध्यम से न तो ऐसे नेता जन्म ले सकते हैं, जिनका रचनात्मक दृष्टिकोण हो और न कोई सकारात्मक दृष्टिकोण सामने आ सकता है। देश को वर्तमान राजनीतिक कार्यप्रणाली के स्थान पर कोई नयी कार्यप्रणाली, जिसका दृष्टिकोण रचनात्मक हो, खोजनी होगी। मेरी इच्छा है कि अपनी अल्पक्षमता और दुर्बलताओं के रहते हुए भी मैं अपने शेष आयु इसी खोज में बिता दूंगा।’

नानाजी ने अपने अनुभव से जो निष्कर्ष निकाले थे, वे गलत नहीं लगते। क्योंकि आपातकाल विरोधी अधिकांश नेता और दल अब कांग्रेस की ही गोद में बैठे हैं। अपवाद है, तो केवल संघ और संघ विचार की सामाजिक और राजनीतिक संस्थाएं। यद्यपि नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना इस अंधेरे में एक प्रकाश की किरण तो है; पर वे इस व्यवस्था को कितना बदल पाएंगे, कहना कठिन है। क्योंकि वे भी तो इसी में से होकर शीर्ष पर पहुंचे हैं। 1975 जैसे काले दिन तो शायद फिर न आयें; पर सच्चा लोकतंत्र भारत में कब आएगा, यह प्रश्न उन लोगों को चिंतित जरूर करता है, जो लोकतंत्र की रक्षार्थ जेल गये थे या फिर जिन्होंने भूमिगत रहकर आंदोलन का संचालन किया था।

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