एफडीआईः आर्थिक सुधार की बड़ी पहल

1प्रमोद भार्गव
केंद्र की राजग सरकार ने एक साथ कई बड़े क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश बढ़ाने का जो फैसला किया है, वह अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाने की दृष्टि से एक अहम् निर्णय है। लेकिन एफडीआई को अतिरिक्त प्रोत्साहन और उसी के भरोसे अर्थव्यवस्था को धकेलने के उपाय भविष्य में घातक भी साबित हो सकते हैं। दरअसल रक्षा क्षेत्र में 100 फीसदी एफडीआई की छूट देते हुए छोटे हथियारों का निर्माण भी विदेशी कंपनियां भारत में करने लगेंगी। इससे मझोले व लघु उद्योगों को हानि हो सकती है ? दूसरे एफडीआई में पहले यह शर्त थी कि स्थानीय कारखानों से 30 फीसदी कल-पुर्जे खरीदने होंगे। इस शर्त को अब खत्म कर दिया गया है। इससे भी छोटे भारतीय उद्योग व उद्यमी प्रभावित हो सकते हैं। इस लिहाज से जरूरी यह भी है कि देशी पूंजी की ताकत को समझने के साथ युवा उद्यमियों के कौशल को भी समझा जाए ?
भारतीय रिर्जव बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के जाने के एलान के दो दिन बाद ही भारत सरकार ने एफडीआई के परिप्रेक्ष्य में बड़ा फैसला ले लिया है। रक्षा, विमानन, ई-काॅमर्स, नई दवा कंपनी, केबल नेटवर्क, डीटीएच और मोबाइल टीवी के निर्माण से जुड़ी विदेशी कंपनियां अब अपनी शत-प्रतिशत पूंजी से भारत में अपनी औद्योगिक-प्रौद्योगिकी इकाइयां शुरू करने को स्वतंत्र हैं। इसके साथ ही पुरानी दवा कंपनियों और निजी सुरक्षा एजेंसी के क्षेत्र में 74 फीसदी निवेश की छूट पहले ही थी। इन क्षेत्रों में अधिकतम उदारता बरतते हुए 100 फीसदी निवेश की सुविधा के साथ मौलिक अर्थात नई तकनीक साझा करने की शर्त भी खत्म कर दी गई है। आम्र्स एक्ट 1959 में शामिल छोटे हथियारों के निर्माण में भी विदेशी निवेश 100 फीसदी कर दिया है। इससे हथियार उत्पादन में लगे लघु व मझोले उद्योग प्रभावित हो सकते हैं।
अभी तक एफडीआई से जुड़ी एक महत्वपूर्ण शर्त यह थी कि स्थानीय उद्योगों से विदेशी कंपनियां अपने उत्पादन के निर्माण के लिए 30 फीसदी कल-पुर्जे भारतीय उद्योगों से खरीदेंगी। अब इस शर्त को हटा दिया गया है। दरअसल अमेरिकी मोबाइल कंपनी एप्पल ने भारत सरकार को अर्जी दी थी कि 30 फीसदी खरीद की इस बाध्यकारी शर्त को खत्म किया जाए। कंपनी का कहना था कि उसके उत्पाद अति उच्च तकनीक आधारित हैं। इस गुणवत्ता के कल-पुर्जे भारत में बनना संभव नहीं हैं, इसलिए उसे 100 प्रतिशत अमेरिका में ही बने मोबाइलों को बेचने की छूट दी जाए। अब नए नियमों के तहत एप्पल का आवेदन स्वतः मंजूर हो जाएगा। कमोबेश यही फैसला दवा-निर्माण के क्षेत्र में लिया गया है। अब इनके कंपनी खोलने के आवेदन स्वमेव मंजूर हो जाएंगे। जो विदेशी कंपनियां भारतीय कंपनियों को खरीदना चाहेंगी, वे सरकारी अनुमति लेकर 100 फीसदी निवेश कर सकेंगी। ई-काॅमर्स में भी 100 प्रतिशत निवेश की छूट दी गई है। ई-काॅमर्स उत्पादकता से जुड़ा व्यापार नहीं है। यह केवल ई-आदेश के जरिए वस्तु की आपूर्ति करता है। इसलिए इस व्यापार से खुदरा व्यापार को हानि पहुंचने के सर्वे निरंतर आ रहे हैं। जाहिर है, निवेश की जिस मंशा से सरकार ने उद्योग और रोजगार को बढ़ावा देने के नजरिए से जो युगांतरकारी फैसले लिए हैं, वे यदि सरकारी मंशा पर खरे उतरते हैं तो कारोबार और रोजगार के क्षेत्र में बड़ा कायापलट कालांतर में हो सकता है। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर कहा भी है कि भारत विदेशी पूंजी निवेश के हिसाब से दुनिया में सबसे खुली अर्थव्यवस्था वाला देश हो गया है।
हालांकि विदेशी पूंजी निवेश को ललचाने की दृष्टि से मोदी सरकार की यह कोई पहली कोशिश नहीं है। पिछले दो साल के भीतर आर्थिक सुधारों को बढ़ावा देने के नजरिए से एफडीआई से संबंधित नीतियों में निरंतर ढील दी जा रही है, बावजूद एफडीआई में उल्लेखनीय बढ़त नहीं दिखाई दी है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण औद्योगिक उत्पादन में आ रही कमी है। जबकि रक्षा, निर्माण, बीमा, पेंशन, प्रसारण, चाय, काॅफी, रबर, एकल ब्रांड खुदरा, विनिर्माण, उड्डयन, उपग्रह प्रक्षेपण आदि कई क्षेत्रों में एफडीआई को प्रोत्साहन व सरंक्षण देने के उपाय हुए हैं। लेकिन न तो अपेक्षित एफडीआई आई और न ही नए रोजगार सृजित हुए। हालांकि 2015-16 में पिछले वित्त वर्ष की तुलना में एफडीआई 27.45 फीसदी बढ़कर 42 अरब डाॅलर हो गया है। जबकि 2014-15 में इसी अवधि में यह राशी 32.96 अरब डाॅलर थी। इस समय आर्थिक सुधारों की जरूरत इसलिए भी थी, क्योंकि यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने के लिए जनमत संग्रह की प्रक्रिया चल रही है। व्रिटेन अलग हो जाता है तो वह अपने बैंकों में जमा पूंजी पर ब्याज दरें बढ़ाने के लिए स्वतंत्र होगा। अमेरिकी बैंकों में भी ब्याज दरें बढ़ने की अटकलें चल रही है। ऐसा होता है तो भारत में देशी-विदेशी कंपनियों की जो जमा पूंजी है, वह बड़ी मात्रा में देश से बाहर जा सकती है। ऐसी आशंकाओं के चलते निवेश में छूटें जरूरी थीं।
बावजूद इन उपायों से देश में कितने और किस स्तर के रोजगार पैदा होंगे तथा बुनियादी ढंाचें में कितना सुधार होगा, यह अभी संशय है। दसअसल अति उच्च प्रौद्योगिकी वाली कंपनियों में उत्पादन की अधिकतम प्रक्रिया स्वचालित मशीन एवं तकनीक आधारित होती है। इस कारण इन उद्योगों में चंद तकनीकी दक्षों की जरूरत तो होती है, लेकिन अकुशल मजदूरों की जरूरत लगभग रह ही नहीं जाती है। ऐसे में एफडीआई के नए नीतिगत निर्णय में तकनीक साझा करने की छूट और स्थानीय उत्पादकों से 30 फीसदी खरीद की छूट को खत्म करने के उपाय ऐसा न हो कि भविष्य में स्थापित उद्योगों को चैपट करने के सबब के रूप में पेश आएं। ऐसा होता है तो बेरोजगारी और बढ़ेगी ?
दरअसल पूंजी निवेश का नीतिगत फैसला लेने भर से काम चलने वाला नहीं है, कई छूटों के बावजूद यह मुमकिन नहीं है कि प्रशासनिक-तंत्र को पूजे बिना, सब-कुछ आसान हो जाएगा ? मसलन सरकार को अपने ही तंत्र को इतना ईमानदार, चुस्त और पारदर्शी बनाना होगा कि वह निवेश में रोड़े न अटकाए। आज पीपीपी के तहत अमल में लाईं जा रही अनेक परियोजनाएं केवल इसलिए आधी-आधूरी पड़ी हुई हैं, क्योंकि उन्हें कहीं वन विभाग की स्वीकृति नहीं मिली है तो कहीं वित्तीय व तकनीकी स्वीकृतियां नहीं मिली हैं। इस लिहाज से प्रशासनिक सुधारों में व्यापक फेर-बदल की जरूरत है। इस नाते केंद्र सरकार ने अपने दो साल के कार्यकाल में कोई पहल नहीं की है। जबकि नई नीतियों को अमल में लाने का दायित्व प्रशासन की ही है। हालांकि इस समय दुनिया में आर्थिक मंदी, फैलता आतंकवाद और भारत में पसरा नक्सलवाद ऐसे कारण हैं, जो देशी-विदेशी निवेश में बड़ी बाधा हैं। इन्हीं कारणों के चलते कंपनियां नए उद्योग स्थापना के लिए ज्यादा उत्साहित नहीं हैं।
इस लिहाज से जरूरी तो यह है कि हम अपनी घरेलू पूंजी की ताकत को समझें और स्थानीय उद्योग व उद्योगपतियों को नए उद्योग-धंधे खोलने के लिए प्रोत्साहित करें। यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि विदेशी कंपनियां हमारे यहां निवेश करके कोई खैरात नहीं बांटती। बल्कि व्यापार का लाभांश अपने मुख्यालय भेजने लगती हैं। यह लाभांश विदेशी मुद्रा, मसलन अमेरिकी डाॅलर में भेजा जाता है। डाॅलर और रुपए के मूल्य में अंतर का घाटा हमेशा भारतीय रुपए को उठाना पड़ता है। साफ है, विदेशी कंपनियां या निवेशक भारत के हितों की बजाय अपने हितों का ज्यादा ख्याल रखते हैं। अमेरिका, चीन, जापान, फ्रांस, जर्मनी, संयुक्त अरब अमीरत सऊदी अरब, कतर और सिंगापुर देशों से हम पूंजी भले ही हासिल कर लें, लेकिन इन उपायों के चलते स्वाबलंबी व आत्मनिर्भर बने नहीं रह सकते ? जबकि बड़ी आबादी के परिप्रेक्ष्य में जरूरी है कि हम हर क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ें ?

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