महत्वपूर्ण लेख

विदेशी कूटनीति और दिल्ली का चुनाव


डॉ. मधुसूदन

(एक) अत्त्यावश्यक विषय

“आंतर्राष्ट्रीय कूटनीति”  भारत में कैसे  प्रभाव डालती है, यह समझाने के हेतु से यह आलेख लिखा गया है।विषय को धीरे धीरे आत्मसात करें, मात्र ऊपर ऊपर से देखे नहीं, ध्यान दे कर पढें। ये  अनुरोध है; विशेषतः अनभिज्ञ पाठक के लिए।

ऐसे इस नवीन विषय पर लिख रहा हूँ। भारत के हितैषियों को इस विषय का ज्ञान आवश्यक है। इसके सिद्धान्तों को समझने पर, आप को आंतर्राष्ट्रीय कूटनीति कैसे दूसरे देशों पर अपना प्रभाव जमाती है, इसका कुछ अनुमान हो सकेगा। और संभवतः  इन नियमों के प्रकाश में आप अनेक प्रश्नों के उत्तर ढूंढने में सहायता प्राप्त कर सकेंगे।

(दो)आ आ पा की विजय के पीछे की शक्तियाँ:
मूलतः संसार की प्रबल सत्ताएँ भारत के जनतंत्र  को अप्रत्यक्ष रीति से प्रभावित करना चाहती है। इन प्रबल सत्ताओं के साथ समान लक्ष्य के कारण, आतंकवादी, मिशनरी, और कालाधन वाले, भी जाने अनजाने साथ आ जाते  हैं। इन में से प्रत्येक अपनी दुकान बंद होने के डरसे चिंतित है।
आतंकवादियों पर जम्मु कश्मिर में सक्षम कार्यवाही,
स्पष्ट रूपसे घटा हुआ कन्वर्जन,
काले धन पर की जा रही कार्यवाहियाँ,
और भारत की ९ महीनो में ही, अतिशीघ्रता से, उभरती महाशक्ति की छवि
इन के कारण ये सारे घोर चिंता में हैं।

इस लिए,  ये भारत-विरोधी घटक, भारत के जनतंत्र को अस्थिर बनाना चाहते हैं। स्थिर विकासवादी राष्ट्रीय शासन से इन सारों की दुकान बंद हो सकती है। ये भारत को दुर्बल, अस्थिर देखना चाहते है।
दुर्भाग्य है; आ आ पा की विजय इन्हीं शक्तियों की विजय है।

(तीन) आंतर्राष्ट्रीय कूटनीति, के नियम
आंतर्राष्ट्रीय कूटनीति, जिन  नियमों के अनुसार चलती है, उन नियमों को खोजनेवाला “हान्स मॉर्गनथाउ” *Politics Among Nations* नामक पाठ्य पुस्तक का लेखक है।
इस के  नियम (नीति-निरपेक्ष)होते हैं। ये नियम तटस्थ (Objective Laws)दृष्टि से ही समझे जा सकते हैं।  इसमें, मानवता विश्वबंधुत्व,  न्याय-प्रियता इत्यादि को महत्व नहीं है। इन नियमों का मूल “राष्ट्रों के हितों में मनुष्य का स्वार्थी स्वभाव” माना जाता है।
लेखक (मैं)भी इस से पूर्णतः सहमत है। आंतर्राष्ट्रीय कूट नीति के  नियम राष्ट्रों के स्वार्थों से ही संचालित होते हैं।

(चार) ये  नियम शक्ति आँकलन पर निर्भर।
पर इस विषय के नियम स्थूल होते हैं। यह भौतिकी या गणित के नियम नहीं है, अभियांत्रिकी के भी नहीं है।
इन नियमों  का सच्चाई से संबध है, पर उस से भी अधिक संबंध विश्व नेताओं के  (Perception) दिखती अनुभूति या आँकलन पर (उनके घटकों के अनुमान) पर होता है। जैसा देश के नेताओं को लगता, या प्रतीत होता है, उस की प्रतीति से ही, उनकी कार्यवाही प्रभावित होती है।

 निम्न प्रश्नों के उत्तर सोचने में भी सहायता होगी।
इस विषय को जानने पर, आप को निम्न प्रश्नों के दिए गए उत्तर समझने में, कुछ सहायता अवश्य होगी।

उदाहरणार्थ:
(१)कुछ आतंकवाद को भी प्रोत्साहित करनेवाले (पाकिस्तान) देशों को सहायता क्यों दी जाती है?
उत्तर: उन देशों से संबंध टिकाकर कुछ काम करवाना होता है। संबंध काट कर ऐसा करवाया नहीं जा सकता।
जब तक कुछ न कुछ करवाना होता है, तो, संबंध बनाए रखे जाते हैं। आर्थिक  सहायता भी प्रदान की जाती है।
(२)अस्थिरता फैलाने में हित
बडे देशों में अस्थिरता फैलाने में,प्रतिस्पर्धी बडे देशों का हित माना जाता है। अस्थिरता शासकों को अस्वस्थ कर देश की प्रगति में बाधा बनती है। ऐसी अस्थिरता में जो सहायक होंगी, उन संस्थाओं को  NGO द्वारा बडी बडी सहायताएँ, मॅगसे अवार्ड इत्यादि दिया जाता है।विशेष हिसाब देखा नहीं जाता। नोबेल प्राइस भी बहुत बार, ऐसे किसी राष्ट्र को दुर्बल बनाने के उद्देश्य से काम करने वालों को दिया जाता है।
इसी दिशा से, सोचने पर आप निम्न प्रश्नों पर भी सोच पाएंगे। (मैं ने दिए नहीं है।)

(पाँच) प्रश्न मालिका
प्रश्न (१) पाकिस्तान को अमरिका क्यों सहायता देता है?
(२) U S S R के १३ टुकडे क्यों प्रोत्साहित किए गए?
(३) अंग्रेज़ भारत का विभाजन क्यों कर गया?
(४) कश्मिर का भी समाधान क्यों कर रूका है?
(५) चीन भारत की सीमापर क्यों हलचल करता रहता है?
(६) चीन तिब्बत को क्यों हडप गया?
(७) भारत में मिशनरी क्यों भेजे जाते हैं?
(८) भारत में कुछ संस्थाओं को N G O की सहायता किस कारण दी जाती है?
(९) मॅगसे अवार्ड के पीछे क्या हेतु हो सकता है?
(१०) नोबेल प्राइस भी कैसे चुना जाता है?
(११)खाडी के देश भारत विरोधी  (गुप्त) सहायता क्यों करते हैं?

(छः)संसार की महाशक्तियाँ बडे देश ही होते हैं।

ऐसे बडे देश हैं रूस, अमरिका, चीन, भारत। ये सारी संभाव्य (अपेक्षित) माहशक्तियाँ हैं।
भोला भारत अपने आप को विश्वबंधुतावादी मानता है; पर दूसरी महाशक्तियाँ ऐसा नहीं मानती। वे इसे भारत का नाटक मानती है।  कारण है, उनकी अपनी संघर्षवादी मानसिकता।
संसार में हमारे सिवा, और कोई विचारधारा समन्वयवादी नहीं है।
न चीन, न रूस, न अमरिका; पर हमारे मस्तिष्क में ये घुसता नहीं है।{ ये अपवादात्मक  आध्यात्मिकताओं वाले व्यक्तियों की बात नहीं है।} हम भोलेपन में, अपनी ही मानसिकता उनपर आरोपित कर देखते हैं।
वे भी उनकी अपनी संघर्षवादी (आरोपित) मानसिकता के दर्पण में, भारत को देखते हैं। इस लिए,संसार के बडे देश भी, दूसरे बडे देशों से, (उपरसे) मित्रता दिखाते हुए भी अंदर से शत्रु होते हैं। इसे विरोधी वकीलों का हस्तमिलन भी माना जा सकता है।
जैसे कोई बडा व्यापारी उसी वस्तु के दूसरे बडे व्यापारी का शत्रु ही होने की भारी संभावना होगी।
वैसे बडे देश आपस में मित्रता का नाटक करते हुए भी, अंदर से अपने राष्ट्र-स्वार्थ की पूर्ति ही चाहेंगे।

(सात) बडे देशों को क्या चाहिए?
अपने उत्पादों के लिए बाजार चाहिए। अपनी पूंजी का लाभदायक निवेश करने का अवसर चाहिए। आज पूंजीवादी देशों में निवेश लाभदायक नहीं रहा है।
पूंजीवादी देशो में, श्रम का  मूल्य भी भारत और चीन की अपेक्षा बहुगुना है। यह सीधा व्यापार है।

(आँठ)बडे देश बँटने में रूचि क्यों होती है?
चीन, अमरिका, फ़्रांस, ऑस्ट्रेलिया, जापान, इत्यादि देशों की जो कार्यवाही और निर्णय होते हैं; उनके पीछे की मानसिकता भी समझने में सहायता होगी।
जैसे ही देश बट के  छोटे हो जाते हैं, तो दुर्बल हो जाते हैं।
बडे देश क्षेत्र में, जनसंख्या में, कृषि में,  उत्पादों में, खनिजों में, पेट्रोलियम में, कोयला में, बुद्धिधन में, ऊर्जा  स्रोतो में, संगणक ज्ञान में, और संभाव्य विनाशक शक्ति में, (इत्यादि और भी काफी घटकों) की मात्रा के आधार पर बडे माने जाते हैं।

आंतरराष्ट्रीय कूट नीति की ’मॉर्गन थाउ’ लिखित पाठ्य पुस्तक, कहती है, कि, धूर्त साम्राज्यवादी सत्ताएं (१) सैन्य बल से (२) आर्थिक प्रभुत्व जमाकर, (३) और सांस्कृतिक-मानसिक-प्रभाव जमाकर दूसरे देशों पर अपनी सत्ता चलाती है।
१ ला सैन्य-बल, शीघ्र परिणामी होता है, पर सत्ता समाप्त होनेपर उसका निश्चित और शीघ्र अंत भी होता है,
२ रा आर्थिक प्रभुत्व भी धन-हीन स्थिति में क्षीण हो जाता है,
पर ३ रा मानसिक-सांस्कृतिक प्रभाव मनःपटल पर अंकित हो जाने के कारण, शीघ्रता से मिट नहीं पाता; अनेक शताब्दियों तक, और कभी कभी तो सदा के लिए यह प्रभाव अमिट रूपसे बना रहता है।
दूसरे राष्ट्र पर सैन्य शक्ति का उपयोग कर दास बनाना आज के युगमें (U N O के प्रभाव से) सभ्य नहीं समझा जाता।
पर दूसरे देशों पर मानसिक प्रभाव पैदा करना अब भी चलता है, पर, छद्म रीति से चलता है।
यह होता है, परदेशों पर गुप्त रूपसे प्रभाव फैलाकर।

(नौ) मॉर्गन थाउ कहता है।

मॉर्गन थाउ आगे कहता है, कि, ऐसे नियमों को,  हमारी रूचि-अरूचि (पसंद-नापसंद )से लेना देना नहीं होता। ऐसे वास्तववादी सिद्धान्त तटस्थता से अवलोकित किए जा सकते हैं। इन सिद्धान्तों को आदर्शवादी, आध्यात्मिकता की दृष्टिसे मॉर्गनथाऊ देखता नहीं है। वह चेतावनी भी देता है, कि, ऐसी आदर्श -आध्यात्मिकता से लिये हुये निर्णय आपको कूटनैतिक विफलता दे सकते हैं। ऐसी विफलताएँ भी आप भारत का ६७ वर्षों का इतिहास अवलोकन करनेपर गिना पाएँगे। 

सूचना: मैं इस विषय का विशेषज्ञ नहीं हूँ। पर सामान्य बोध (Common sense) के आधार पर इसे समझा जा सकता है। आज का आलेख पढनेपर आप को International Politics की प्राथमिक समझ हो सकेगी। मैं ने विषय का कुछ अध्ययन किया हुआ है।