
19 जनवरी 1941 को नासिक के सार्वजनिक वाचनालय के शताब्दी समारोह की अध्यक्षता कर रहे सावरकरजी ने अपने भाषण में कहा था-‘‘यहां की सारी पुस्तकें पढ़ो। केवल एक ओर की पुस्तकें पढक़र किसी को गडबड़ी में अपने मत निश्चित नही करने चाहिए। सभी पक्षों की पुस्तकें पढ़ें। सभी के दृष्टिकोण जान लें। उस पर मनन करें, और तत्पश्चात ही स्वयं को जो उचित प्रतीत हो, जो जंचे, वही ग्रहण करके उसका अनुसरण करें। ज्ञानी पाठक ही किसी मत का सच्चा परिस्कार कर सकता है। वाचनालयों में ज्ञान सभायें आयोजित की जाएं। उनमें विविध विषयों पर जानकारों के भाषण रखे जाएं, तो बहुत ही उचित होगा। उससे एक-एक विषय का सम्यक ज्ञान पाने में बड़ी सुविधा होगी।’’
सावरकरजी की यह विशेषता रही कि उन्होंने प्रत्येक क्षेत्र का गहरा और गंभीर ज्ञानार्जित किया है। उसके पश्चात ही किसी विषय पर उन्होंने लिखा या कही भाषण दिया। यही कारण रहा कि उन्हें अपने लिखे या कहे में आगे चलकर कभी संशोधन करना नही पड़ा। उन्होंने इतिहास को गंभीरता से पढ़ा और देखा कि आर्य (हिंदू) जाति प्राचीनकाल से ही अत्यंत वीर रही है, और विश्व को मानवतावाद से लेकर राष्ट्रवाद तक की सारी धारणाएं इसी ने प्रदान की हैं। परंतु यदि यहां विदेशी आये और उन्होंने इस वीर आर्य-हिंदू जाति को यत्र तत्र गुलाम बनाने में सफलता प्राप्त की तो उसका कारण था कि आर्य-हिंदू जाति ‘सदगुण विकृति’ से ग्रस्त हो गयी थी। शत्रु को परास्त होने पर छोड़ देना, नि:शस्त्र शत्रु पर प्रहार न करना, सूर्यास्त के पश्चात युद्घ न करना असावधान शत्रु पर घात लगाकर प्रहार न करना, शत्रु द्वारा पराजय स्वीकार कर लेने पर उस पर वार न करना इत्यादि हमारे ऐसे सदगुण थे जिन्होंने हमें शत्रु के सामने परास्त कराया। क्योंकि शत्रु के यहां ऐसा कोई भी सदगुण नही था, उनके यहां येनकेन प्रकारेण विजय प्राप्त करना ही अंतिम लक्ष्य होता था। देश-काल और परिस्थिति के अनुसार भारत की आर्यजाति को अपने आप में परिवर्तन करना चाहिए था। इसलिए वीर सावरकरजी ने इतिहास के इस गंभीर दोष को समझकर अपने समकालीन हिंदू समाज को जाग्रत करने का प्रयास किया। देश जागरण के लिए वीर सावरकरजी का यह एक ऐसा उपाय था-जिसमें सारा भारत जागता चला जा रहा था, या सारे भारत को जगाने की जिसमें क्षमता थी।
अपनी योजना को सिरे चढ़ाने के लिए सावरकरजी ने ‘हिंदी, हिंदू हिन्दुस्तान’ का उदघोष किया था। अपने इस उद्घोष के माध्यम से उन्होंने हिंदू समाज के सभी वर्गों को साथ ले लिया था। उनका दृष्टिकोण व्यापक था इसलिए उनके उद्घोष का अर्थ भी व्यापक था। उनके समकालीन हिंदू समाज में तीन प्रकार की विचारधाराएं कार्य कर रही थीं। एक थी आर्यसमाजी विचारधारा। यह विचारधारा भारत में आर्यभाषा (संस्कृत हिंदी) आर्य (हिंदू) आर्यावत्र्त (हिंदुस्तान) की बात करती थी। यह सावरकरजी ही थे जिन्होंने इस विचारधारा की इस मान्यता को अपना समर्थन दिया और संस्कृतनिष्ठ हिंदी की बात कहकर अपने ‘हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान’ के साथ वेदों की बात करने वाले आर्य समाज का उचित और प्रशंसनीय समन्वय स्थापित कर लिया। जब नवाब हैदराबाद ने आर्यसमाज को हैदराबाद में प्रवेश करने से निषिद्घ किया तो सावरकरजी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आर्य महासम्मेलन (कर्नाटक) के मंच से 1938 में यह घोषणा की थी कि आर्य समाज अपने आपको अकेला न समझे हमारा पूर्ण समर्थन उनके साथ है, और यही हुआ भी। आर्यसमाज ने पौराणिकों के मंदिरों की लड़ाई लड़ी तो सावरकरजी ने आर्यसमाज के ‘सत्यार्थप्रकाश’ की लड़ाई लड़ी। क्या उत्तम समन्वय था-थोड़ी सी देर में सावरकरजी का ‘हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान’ आर्य समाज के आर्यभाषा, आर्य, आर्यावत्र्त के साथ इस प्रकार एकाकार हो गया जैसे दो पात्रों का जल एक साथ मिलकर एकरस हो जाता है।
सन 1944 में सिंध के मंत्रिमंडल ने ‘सत्यार्थप्रकाश’ के 14वें समुल्लास को हटाने की घोषणा की। इस घोषणा के होते ही आर्य समाज उबल पड़ा। 20 फरवरी 1944 को दिल्ली में एक विशाल आर्य सम्मेलन का आयोजन किया गया। भारत के वायसराय को हजारों तार भेजकर सिंध मंत्रिमंडल के इस अन्याय को समाप्त कराने की मांग की गयी। केन्द्रीय असेम्बली में भाई परमानंद जी ने सिंध मंत्रिमंडल के इस निर्णय की भत्र्सना करते हुए कहा-‘‘सिंध में मंत्रिमंडल ने आर्यसमाज की धार्मिक पुस्तक ‘सत्यार्थप्रकाश’ के 14वें समुल्लास पर प्रतिबंध लगाकर समस्त हिंदू जाति को ही चुनौती दी है। यदि पहचान लिया जाए कि चौदहवें समुल्लास को इस्लाम धर्म के खण्डन के कारण प्रतिबंधित कर दिया जाए तो कुरान का प्रत्येक शब्द ही हिंदुओं के विपरीत पड़ता है। समस्त कुरान को जब्त क्यों न कर लिया जाए।’’
वीर सावरकरजी ने भी एक सभा में घोषणा की-‘‘जब तक सिंध में ‘सत्यार्थप्रकाश’ पर प्रतिबंध लगा है, तब तक कांग्रेस शासित प्रदेशों में कुरान पर प्रतिबंध लगाने की प्रबल मांग की जानी चाहिए।’’ सावरकरजी ने भारत वायसराय के लिए तार भेजकर कहा था-‘‘सिंध सरकार द्वारा सत्यार्थप्रकाश पर प्रतिबंध लगाये जाने से साम्प्रदायिक वैमनस्य उत्पन्न हो गया। यदि ‘सत्यार्थप्रकाश’ से प्रतिबंध न हटाया गया तो हिंदू कुरान पर प्रतिबंध लगाने का आंदोलन प्रारंभ कर देंगे। अत: मैं केन्द्रीय सरकार से अनुरोध करता हूं कि वह ‘सत्यार्थप्रकाश’ पर लगे प्रतिबंध को अविलंब रद्द कर दें।’’
आर्यसमाज को अपने साथ लेकर चलने में सावरकरजी सफल रहे। आर्यभाषा, आर्य, आर्यावत्र्त से वह सहमत थे और आर्य समाज को उनके ‘हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान’ से कोई विरोध नही था। अब आते हैं एक दूसरी विचारधारा पर। यह विचारधारा उस समय के कवियों, लेखकों व साहित्यकारों की थी। इसका आदर्श था-भारती, भारतीय, भारत। वह हिंदी को ‘भारती’ कह रहे थे-जो मां भारती के रूप में हमारी राष्ट्रीयता की बोधक भी थी। भारतीय वह हिंदू को कह रहे थे और भारत वह हिंदुस्तान को कह रहे थे। इस विचारधारा को भी सावरकर जी ने आत्मसात किया और इसके साथ ही ऐसा सुरीला तान छेड़ा कि यह भी उनके ‘हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान’ के उद्घोष के साथ पूर्णत: एकरस हो गयीं। तीसरी विचारधारा उनके जैसे अपने क्रांतिकारियों की थी-जो ‘हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान’ के लिए उस समय कार्य कर रही थी।
तत्कालीन साहित्य का यदि विश्लेषण किया जाए तो सारा भारत देशभक्ति के जिस आत्मोत्सर्गी गीत में झूम रहा था, उसे उत्तेजित करने का कार्य ये तीनों प्रकार के संगठन या विचारधाराएं ही कर रही थीं। इनका एक ही लक्ष्य था-एक ही गीत था-एक ही संगीत था और एक ही चाल थी। वेद का संगठन सूक्त सारे राष्ट्र में चरितार्थ हो रहा था। हम संगठन सूक्त को असफल करने की गतिविधियों में यदि उस समय कोई संलिप्त था तो यह थी कांग्रेस और उसके नायक गांधीजी और नेहरूजी। कांग्रेस और उसके नेता उन दिनों उन लोगों के साथ एकता की बात कर रहे थे-जिन्होंने ‘हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान’ के साथ चलने से मना कर दिया था और न केवल मना कर दिया था अपितु इन्हें वह किसी भी स्थिति में स्वीकार करने को भी तैयार नही थे। भारत के ये तीनों प्रतीक उनके लिए पहले दिन से निशाने पर रहे थे। जिन्हें वह मिटाकर राज्य करने का लक्ष्य बनाकर चले-संयोगावशात सावरकर ने उन पर पहले सहमति बनाने की शर्त लगाकर बहुत बड़ी देशभक्ति का परिचय दिया था। जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। पर चलिए उनकी अस्वीकृति पर तो कोई आश्चर्य हमें नही होना चाहिए। आश्चर्य तो कांग्रेस पर और उसके नेताओं पर होता है, जिन्होंने ‘हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान’ को भी नकारा आर्यभाषा, आर्य-आर्यावत्र्त को भी नकारा। फिर कौन सा चिंतन उन्हें स्वीकार था?
उन्हें स्वीकार था भारत को बाबर और अकबर का देश बना देना और अपनी ‘सदगुण विकृतियों’ से कोई शिक्षा न लेकर अपने आपको शत्रु के सामने असहायावस्था में डाल देना। इसलिए कांग्रेस और उसके नेताओं ने एक ही झटके में हिंदी के स्थान पर ‘हिन्दुस्तानी’ हिंदू के स्थान पर ‘सैकुलर सिटीजन ऑफ इंडिया’ (या हिन्दू मुस्लिम-सिख-ईसाई) हिन्दुस्तान के स्थान पर इंडिया को प्राथमिकता दी। भारत जब स्वतंत्र हुआ तो वीर सावरकरजी का ‘हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान’ आदि उपरोक्त तीनों समीकरण इसके मानचित्र से लुप्त थे। स्मरण रहे कि ये वही तीनों समीकरण थे जिनसे उस समय का सारा भारत प्राण ऊर्जा ग्रहण करता था सारा भारत जिनके नाम से मचलता था। अब भारत का नया समीकरण दिया गया-हिंग्लिश (हिंदी-अंग्रेजी का गुड़ गोबर) इंडियन, इंडिया का। आज के भारत की सारी समस्याओं की जड़ यही चिंतन रहा है जो हम पर स्वतंत्रता के पश्चात थोप दिया गया है। आज इस चिंतन के नीचे दबा भारतीय राष्ट्र है। इसलिए यहां देशद्रोही नारे लगते हैं। ‘हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान’ की बात करने वालों को साम्प्रदायिक और ‘गद्दार’ कहा जाता है, उनसे मुक्ति की बात कही जाती है, और राहुल गांधी उस मुक्ति का समर्थन करते हैं, क्यों? कारण यही है कि उनकी पार्टी ने ‘हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान’ या आर्यभाषा, आर्य-आर्यावत्र्त या भारती, भारतीय, भारत से मुक्ति पाने के लिए ही संघर्ष किया था। हम भारतीयों को षडय़ंत्र की गहराई को और उसके उद्देश्य को समझना होगा। कुछ लोगों का मानना है कि हम गड़े मुर्दे उखाडक़र अनावश्यक ही समय नष्ट कर रहे हैं। हमारा उनसे अनुरोध है कि इतिहास को यदि सही परिप्रेक्ष्य में नही लिया गया और नही समझा गया तो भारत नही रहेगा। अत: यह स्पष्ट होना ही चाहिए कि हमारे देशभक्तों का क्रांतिकारी आंदोलन किस उद्देश्य से प्रेरित होकर लड़ा गया था और किस प्रकार उसका अपहरण हो गया? साथ ही यह भी कि उस अपहृत आंदोलन के आज परिणाम क्या आए हैं? इतिहास में झांकने का अर्थ है-नींव को देख लेना कि मूल संस्कार में विकृति कहां से आयी? आज उसी मूल संस्कार को सही करने का समय आ गया है।
प्रार्थना जब तक भक्त के रोम-रोम को छूती न निकले तब तक वह भगवान को प्रभावित नही करती, आंदोलन जब तक व्यक्ति-व्यक्ति की वाणी से ना निकले तब तक वह राष्ट्र को प्राभावित नही करता। इसलिए प्रत्येक प्रकार की टूटन और बिखराव को समेटकर पूरे राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधने की आवश्यकता है, जिसे सावरकर का चिंतन ही कर सकता है, गांधी-नेहरू के समझौतावादी चिंतन ने तो हममें बिखराव उत्पन्न कर दिया है। राष्ट्रद्रोहात्मक समझौतावाद भी एक सदगुण विकृति है, जिसे जितनी शीघ्रता से समाप्त कर दिया जाएगा उतना ही उचित होगा।