(संदर्भःपूरब-पच्छिम फिल्म)
आदित्य कुमार गिरि
भारतीय हिन्दी फिल्मों का विश्लेषण करने पर जो एक बात सामने आती है वह यह है कि इसका पूरा चरित्र स्त्री विरोधी है।यह अपने फलक पर स्त्री विरोधी मानसिकता को स्थापित किये हुए है।स्त्री की जो छवि वह प्रस्तुत करता है वह कहीं से भी एक लोकतांत्रिक समाज के लिए मान्य नहीं हो सकता।स्त्री को उसने एक माल,सामान की तरह पेश किया है।वह केवल एक वस्तु है।जिसका भोग किया जा सकता है।जिसका इस्तेमाल किया जा सकता है।वह निर्जीव है उसे सोचने का, स्वतंत्रता से जीने का कोई अधिकार नहीं है।
असल में भारतीय समाज कभी भी स्त्री को लेकर लोकतांत्रिक नहीं रहा है।यह समाज स्त्री को एक नागरिक एक मनुष्य के रुप में नहीं देखता।सबसे बड़ा आपत्ति का जो बिंदु है वह यह है कि वह स्त्री की स्वतंत्र सत्ता को नकारता है।वह उसे हर स्तर पर किसी न किसी पुरुष से जोड़कर देखता है।मानो वह पुरुष के बिना अपनी कोई सत्ता ही नहीं रखती।
कायदे से उसे लोकतांत्रिक समाज के एक नागरिक के रुप में देखा जाना चाहिए।और खासकर आज जब परवर्ती पूंजीवाद रोज-रोज स्त्री की गुलामी की नई-नई ईबादतें लिख रहा है।जहां तक सवाल फिल्मों का है इन्हें माध्यम के रुप में इस्तेमाल किया जा सकता है।फिल्में समाज को बदलने का जरिया हो सकती हैं।आज मीडिया का हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में हस्तक्षेप बढ़ गया है।इसके माध्यम से लोगों की सोच को उन्नत किया जा सकता है। वह हमारे हर तरह की क्रियाओं को प्रभावित कर रहा है।तो क्यों न माना जाए कि इन फिल्मों का निर्माण भी खास मकसद से हो रहा है।
भारतीय फिल्मों में स्त्री पुरुष से ब्याह करने,उसके साथ गाना गाने,चुम्मा चाटी करने के अलावे कोई भूमिका नहीं निभाती।इन सबके बीच उसकी जो छवि बनती है,निकल कर आती है वह एक टिपिकल मध्यकालीन सामंती स्त्री की होती है।जिसका पूरा रुटिन पति प्रेमी,पिता,बेटों और परिवार की सेवा करने होता है।वह दिनरात इसी में लगी रहती है।जो स्त्री इस भूमिका के बाहर आती है उसे वैंप के रुप में दिखाया जाता है।याने वह गुंडी है।वह समाज के लिए आदर्श नहीं हो सकती।
मनोज कुमार की फिल्म ‘पूरब-पच्छिम’ को उदाहरण के रुप में लिया जा सकता है।इस फिल्म को देखकर माथा भन्ना जाएगा।यह कितनी आपत्तिजनक फिल्म है इसकी पहली नजर में ही पहचान हो जाती है।।यह फिल्म पूरी तरह से स्त्रीविरोधी है।इसमें भारतीय स्त्री के नाम पर जिस स्त्री को आदर्श के रुप में पेश किया गया है वह मध्यकालीन है।वह स्त्री पुरुष की दासी है।गुलाम है।कुलमिलाकर नौकरानी है।इसके साथ ही योरोप की स्त्रियों की ऐसी छवि प्रस्तुत की गई है मानो योरोप की स्त्रियाँ कॉल गर्ल होती हैं और पुरुषों को देखते ही टूट पड़ती हैं।कुलमिलाकर उन्हें चरित्रहीन और भारत की उस स्त्री को आदर्श के रुप में प्रस्तुत किया गया है जो हर तरह से पुरुष की गुलाम है।जिसका अपना कुछ नहीं है।उसका समूचा अस्तित्व केवल अपने पति से जुड़ा हुआ है।वह केवल ‘पुरुष’ की ‘पत्नी’ है।”
वह किसी भी सूरत में अपने पति के आज्ञा की अवमानना नहीं करना चाहती।पति तमाम तरह की बुरी आदतों का षिकार है।वह शराब पीता है।जुआ खेलता है।सीगरेट पीता है।पर स्त्री गमन करता हहै।पर उसकी पत्नी उसे देवता मानती है।वह परमेश्वर की तरह उसके पैर पूजती है।पति को हर तरह से दोष होते हुए भी वह ऐसे गिड़गिड़ती है,मानो उसी ने कोई गलती की हो।पाप किया हो।कायदे से इस तरह की फिल्मों का विरोध किया जाना चाहिए।
पति पर स्त्री के लिए अपनी पत्नी को छोड़ देता है।पत्नी उसकी प्रतिक्षा करती है।वह बीस बीस सालों तक अपने पति की प्रतिक्षा करती है।पूरे फिल्म में भारतीय संस्कृति के नाम पर इस तरह की मूर्खताओं का प्रचार किया जा रहा है।यह नेहरु युग की फिल्म है।उस समय देश साम्राज्यवाद के चंगुल से निकला था।पूरे देश के सामने एक नए भारत के निर्माण का कार्य था।अपने तरीके से पूरा देश इस कार्य में लगा भी था।ऐसे समय में स्त्री के लिए इस तरह का दृष्टिकोण दिखाया जाना असल में एक साजिश है।इसे ऐसे ही देखना चाहिए।मसलब भारत में सबकुछ बदल रहा है।अगर नहीं बदल रहा है तो केवल स्त्री की दशा।याने तुम्हहें फिर से गुलाम रहना है।पति को देवता मानना है।उसकी पूजा करनी है।वह तुम्हारा कर्ता धर्ता है।तुम उसके बिना अधूरी हो।कुछ नहीं हो।नष्ट कर देने वाली चीज़ हो।तुम भी खुद को पति के अस्तित्व के बाहर मत देखो।तुम कुलच्छनी कही जाओगी।तुम चरित्रहीन कही जाओगी।तुम्हारे पास विकल्प नहीं है।या तो तुम पाश्चात्य जिन्दगी अपनाओ जहां स्त्री कॉल गर्ल है।वह वेश्याओं की तरह जिन्दगी जीती है।शराब पीती है।सीगरेट पीती है।और यह सब तुम्हारे लिए पाप है।तुम देवी हो।तुम्हें देव की देवी बनकर रहना चाहिए।तुम देव से अलग हुई कि दैत्य तुम्हें खा जाएँगे।तुम्हार भोग कर लेंगे।तुम एक पत्नी हो।पत्नी का धर्म पति की सेवा है।
इसे भारतीय स्त्री के मानस पर कब्जा करने की साजिश की तरह देखना चाहिए।यह सोचने वाली बात है कि भारतीय समाज एक नई दुनिया में प्रवेश कर रहा है।जहां समूचा ढ़ाँचा बदला जा रहा है।पर स्त्री के लिए जिन मूल्यों को आदर्श रुप में पेश किया जा रहा है।वह न केवल गैर लोकतांत्रिक है बल्कि यह अमानवीय भी है,दकियानूसी भी।कायदे से इसका विरोध किया जाना चाहिए।