-मनमोहन कुमार आर्य-
सत्यार्थ प्रकाश के 13वें समुल्लास का अध्ययन करते हुए हमारे मन में कई बार विचार आया कि लगभग दो हजार वर्ष पहले यरूशलम व उसके आसपास तथा योरूप आदि के लोगों का जीवन व दिनचर्या किस प्रकार की रही होगी। इसका कारण बाइबिल में जो विचार दिये गये हैं, उससे लगता है कि वह उस काल के सभ्य या असभ्य लोगों के ज्ञान, उनकी मानसिकता व सामयिक परिस्थितियों को व्यक्त करती हैं। एक विचार तो यह आया कि क्या तब मनुष्य वस्त्रधारण करते थे, यदि करते थे तो उन वस्त्रों को कौन व कहां किस प्रकार से बनाता था। क्या इन देशों में रूई होती थी या नहीं, उसका सूत कातना, उस सूत के किए चरखों की आवश्यकता रही होगा। चरखे के बनाने का ज्ञान उन्हें कब व कैसे प्राप्त हुआ होगा? फिर यदि सूत है तो उससे वस्त्र बनाना कोई सरल कार्य नहीं है। यह तो निश्चित है कि वह किसी न किसी प्रकार के वस्त्रों का प्रयोग करते थे। इसका अर्थ है कि या तो वहां वस्त्र बनता होगा या फिर वह किसी अन्य देश व देशों से प्राप्त करते होंगे। इससे यह भी पता चलता है कि उस समय में व्यापार हुआ करता था। हम पुस्तकों में पढ़ते हैं कि भारत की धर्म, संस्कृति व सभ्यता दुनिया में सबसे प्राचीन है। भारत से ही धर्म व संस्कृति एवं सभ्यता पहले मिस्र में गई और यहां से आगे बढ़ती हुई यूनान व रोम पहुंची। अब यदि हमारे देश भारत या आर्यावर्त से ज्ञान-विज्ञान वहां गया तो हमारे मनुष्य भी इन देशों में अवश्य ही जाते-आते रहे होंगे और इन देशों में बस गये या बसे हुए लोग भारत आते रहे होंगे। अभी हम वस्त्र या वेशभूषा की बात कर रहे थे, परन्तु अब अनुमान से यह ज्ञात होता है कि न केवल वस्त्र ही भारत से वहां जाते थे, अपितु अन्य खाने-पीने व सभी प्रकार का सामान जिसमें धातुओं से बने बर्तन, कागज, स्याही, लेखनी, भवन निर्माण कला या विधि, रोगों की चिकित्सा का ज्ञान, नाना प्रकार के भोजन बनाने की विधि व उपासना पद्धति भी वहां अवश्य ही गई होगी। कालान्तर में, महाभारत काल के बाद आरम्भ मध्यकाल में, भारत में ही अव्यवस्था हो जाने के बाद हमारे देश के लोगों का वहां जाना कम या समाप्त हो गया और वहां के लोगों को आगे सहायता व शिक्षा, ज्ञान व अन्य पदार्थ व सामग्री न मिलने के कारण वहां के लोगों ने उपलब्ध साधनों से ही अपना जीवनयापन किया। जिस प्रकार वर्षा ऋतु के बाद जंगलों में या खेतों में निराई, गुड़ाई, खाद, पानी व अन्य व्यवस्थायें समुचित रूप से न की जायें व तो वहां झाड़-झंकार उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार महाभारत काल के बाद हमारे देश में भी यही हुआ और दुनिया के अन्य देशों में भी हुआ। सौभाग्य से कोलम्बस व वास्को डि गामा के अमेरिका व भारत में पदार्पण से धीरे-धीरे दुनिया के देशों में सम्पर्क बढ़ना आरम्भ हुआ और फिर एक देश की कुछ बातें दूसरे देशों में व उन-उन देशों की अच्छी व बुरी बातों का हमारे देश में प्रवेश होता रहा और जो हमारा देश व अन्य देश हैं, वह परस्पर एक दूसरे के प्रभाव से निर्मित आचार-विचार व रहन-सहन व संस्कृति सभ्यता के मिश्रण होने से कुछ-कुछ बातों में एक दूसरे के अनुरूप बने।
हम यहां यह बताना चाहते हैं कि सृष्टि की आदि में परमात्मा से भारत के लोगों को चार वेदों का ज्ञान प्राप्त हुआ था। इस ज्ञान का भारत के सभी लोगों में प्रचार था और हमारे प्राचीन व प्राचीनतम गुरुकुलों में इन्हीं चार वेदों का अध्ययन विद्यार्थियों व ब्रह्मचारियों को कराया जाता था। पीढ़ी दर पीढ़ी यह परम्परा सृष्टि के आदिकाल से महाभारत काल तक अनविच्छिन्न अथवा अबाधित रूप से चलती रही। इस प्रकार से भारत में चार वेद व वैदिक साहित्य का प्रचार रहा। स्वाभाविक है कि भारत के निकट व दूरवर्ती स्थानों में जहां-जहां अज्ञान व भारत से कम ज्ञान रहा होगा, वहां के लोग भारत से ज्ञान प्राप्त करते रहे होंगे। भारत के लोगों का धार्मिक, अहिंसक, परोपकारी, वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से युक्त होना आदि कारणों से भारतवासियों में अन्य देशों के लोगों को ज्ञान दिया होगा व उन-उन देशों के लोगों ने अपने पड़ोसियों को ज्ञान दिया होगा। इस स्वाभाविक परम्परा के बढ़ने से सारा विश्व वैदिक ज्ञान, धर्म व संस्कृति से पूर्ण हो गया था, या हुआ होगा ऐसा अनुमान स्वभाविक रूप से होता है। कुछ हजार वर्ष पूर्व वृहत्तर भारत के तक्षशिला व नालन्दा आदि अनेक पुस्तकालय इन साहित्यों से भरे पड़े थे। विदेशी विधर्मियों ने ईसा की 8वीं शताब्दी में भारत पर आक्रमण आरम्भ किये जो लगातार बढ़ते गये और धर्म व संस्कृतिविहीन आक्रमणकारियों ने भारत के छोटे व बड़े पुस्तकालयों को आग लगाकर नष्ट कर दिया। महीनों तक ज्ञान-विज्ञान से भरपूर वह साहित्य जलता व सुलगता रहा। ऐसा भी वर्णन पढ़ने को मिलता है कि विधर्मी आक्रमणकारी शासकों ने उस बहुमूल्य साहित्य के कागजों व पृष्ठों से अपने हरम का पानी गरम किया। ऐसे अनिष्ट कार्यो से धर्म, ज्ञान, विज्ञान, संस्कृति व सभ्यता के गूढ़ रहस्यों से युक्त अमूल्य साहित्य अग्नि के द्वारा नष्ट किया गया। यहां विदेशी आक्रमण, युद्ध, जय, पराजय, धर्म-अधर्म आदि हमारे लेख के विषय के अन्तर्गत नहीं है। इतना ही कहना उचित है कि वह उन्नीसवीं शताब्दी में प्राचीन धर्म व संस्कृति की पुरानी पुस्तकों व कुछ इनी-गिनी पुस्तकों व उनके विद्वानों से वैदिक ज्ञान को पढ़कर व जान-समझकर स्वामी दयानन्द ने विलुप्त वैदिक ज्ञान-विज्ञान को काफी हद तक पुनर्जीवित कर दिया जिससे उनके समय से अब तक व आगे के लिए प्राचीनतम् भारत को जानना आसान हो गया। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत से ही मिलता-जुलता दुनियां के सभी देशों का हाल रहा होगा, क्योंकि दुनिया में बसे हुए सभी लोग भारत से ही समय-समय पर वहां जाकर बसते रहे अथवा यहां से चारों दिशाओं में बढ़कर उन्होंने अपनी बस्तियां बनाई, वहां कुछ वर्षों तक रहकर उनमें से कुछ अन्य चारों दिशाओं में फैलते रहे और फिर इसी क्रम के जारी रहने से सारी दुनिया में आर्यावर्त से आरम्भ होकर शेष विश्व में मनुष्यों का आविर्भाव होता रहा। सत्य के अन्वेषी व प्राचीन इतिहास के अपूर्व विद्वान महर्षि दयानन्द के समग्र साहित्य को पढ़कर इसी प्रकार का चित्र प्रत्येक अध्येता के मानस में प्रकट होता है। वेद एवं वैदिक साहित्य के अपने समय के अपूर्व विद्वान, वेदज्ञ महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने चतुर्वेद भाष्य की भूमिका ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका नामक ग्रन्थ के रूप में लिखी। इस ग्रन्थ को पढ़कर यूरोप के प्रमुख विद्वान प्रो. मैक्समूलर ने उनके अनेक निष्कर्षों को स्वीकार किया है। हम समझते हैं कि स्वामी दयानन्द व प्रो. मैक्समूलर के विचारों की एकता व समानता से दुनिया में मनुष्यों के बसने पर कोई विवाद नहीं है। यहां पश्चिमी विद्वान मैक्समूलर का वचन उद्धृत करते हैं- ‘यह निश्चित हो चुका कि हम सब पूर्व से ही आये हैं। इतना ही नहीं, हमारे जीवन की जितनी भी प्रमुख और महत्वपूर्ण बातें हैं, सबकी सब हमें पूर्व से ही मिली हैं। ऐसी स्थिति में जब हम पूर्व की ओर जायंगे, तभी हमें यह सोचना चाहिए कि पुरानी स्मृतियों को संजोये, हम अपने पुराने घर की ओर जा रहे हैं।’ अंग्रेजी में अपनी पुस्तक India : What Can it Teach us?” (Page 29) ‘We all come from the East—all that we value most has come to us from the East, and by going to the East, every-body ought to feel that he is going to his ‘old home’ full of memories, if only we can read them.
भारत से बाहर के देशों में हम देखते हैं कि ४,००० से ४,५०० वर्ष पहले वहां धर्म ग्रन्थों के रूप में जन्द अवेस्ता का उदय हुआ। इससे पूर्व के किसी धर्म ग्रन्थ की चर्चा विद्वानों मे नहीं की जाती है। जन्द अवेस्ता के बाद, आज से लगभग २,००० वर्ष पूर्व, बाइबिल व उसके प’चात, लगभग १,४५० वर्ष पूर्व, कुरआन पुस्तकें अस्तित्व में आयीं जो मजहबी पुस्तकें हैं। जन्दा अवेस्ता से पहले भारत से इतर किसी भी देश में किसी अन्य पुस्तक का अस्तित्व में न आना या उसका विवरण प्राप्त न होना भारतवासियों की इस बात को सत्य सिद्ध करता है कि महाभारत काल तक भारत से ही ज्ञान विज्ञान वहां गया था व जाता रहा था। महाभारत के बाद से रूकावटें आयीं। भारत में भी पतन हुआ तथा अतिदूर होने के कारण वहां भी ज्ञान का पराभव व पतन हुआ। विवेक व चिन्तन के आधार पर हम यह अनुमान भी लगाते हैं कि भारत के निकटवर्ती देशों में अवश्य पश्चिम के देशों से अधिक वैदिक व आर्ष ज्ञान के अनुरूप व कुछ भिन्न धर्म, संस्कृति व सभ्यता का अस्तित्व, प्रभाव, प्रयोग व प्रचलन रहा है। हम यह भी अनुमान करते थे कि किसी न किसी रूप में परस्पर व्यापार भी विद्यमान रहा है। ऐसे भूभागों व देशों में व्यापार किया ही जा सकता है जो परस्पर भूमि मार्गो से जुड़े थे व समीपवर्ती थे। यदि व्यापार नहीं होता था दैनिक जीवन की बहुत सी वस्तुओं के एक स्थान पर उत्पन्न न होने के कारण वहां उन वस्तुओं का अभाव होता और इससे जीवनयापन दुष्कर होता।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उपदेश मंजरी के पांचवें प्रवचन में बताया है कि प्राचीन काल में सृष्टि उत्पन्न होने के कुछ काल बाद ही आर्यो ने वायुयान बना लिया था। वह वायुयान से पृथिवी के अन्य स्थानों व प्रदेशों को ढूंढ़ते व उनका अवलोकन करते थे और जो स्थान उन्हें अच्छा लगता था वहां अपनी बस्तियां बसा लेते थे। इससे यह अनुमान कर सकते हैं कि प्राचीन काल में आर्य लोग ही देश देशान्तर में इस प्रकार से बसते गये। जो नये-नये बसते थे, वह संस्कृतज्ञ थे। उनकी सन्तानें हुईं। कुछ पीढ़ियां ज्ञान व भाषा की दृष्टि से योग्य थी। परन्तु कालान्तर मे वह अपने पूर्वजों के ज्ञान व विद्या को स्थिर न रख सकीं। इस प्रकार का उत्थान पतन राष्ट्रों में भी होता है और समाज व परिवारों में भी होता है। यहां इतना कहना आवश्यक है कि वैदिक धर्म, संस्कृति व सभ्यता १.९६ अरब पुरानी है। इस लम्बे समय में अनेकों बार उत्थान व पतन हुआ होगा। भौगोलिक परिवर्तन भी अनेक प्रकार के अनेक बार हुए होंगे। ऐसा भी रहा होगा कि किसी समय अति प्राचीन काल में आर्यावर्त में आज के यूरोप आदि उन्नत देशों से भी अधिक ज्ञान-विज्ञान भारत में रहा होगा। कई बार वह उन्नत होकर फिर पराभव को प्राप्त हुआ। इस प्रकार चलते-चलते आज की स्थिति आयी है। और हम लोगों को उस उन्नति काल का किंचित भी ज्ञान नहीं है। इस आधार पर दोनों ही बाते हैं कि न तो हम यह कह सकते हैं कि कभी भारत में उन्नति नहीं रही और बिना प्रमाणों के यह भी नहीं कह सकते कि प्राचीन भारत किस सीमा तक उन्नत व विकसित था। लेकिन कभी उन्नति हुई ही नहीं, यह कहना व मानना भी असम्भव है।
एक अन्य समस्या पर भी विचार करते हैं। बताया जाता है कि वैदिक धर्म व संस्कृति १,९६,०८,५३,११४ वर्ष पुरानी है। यदि भारत की धर्म व संस्कृति १.९६ अरब वर्ष पुरानी है तो दुनियां के अन्य देशों की धर्म व संस्कृतियां भी १.९६ अरब से कुछ कम वर्ष पुरानी होनी चाहिये। मान लेते हैं कि यह १.५ अरब वर्ष पुरानी हैं। भारत में यवन आये और उन्होंने यहां हमारे वेद व वैदिक साहित्य को, जो तक्षशिला व नालन्दा आदि के पुस्तकालयों में था, जला कर नष्ट कर डाला। इससे जुड़ा इतिहास दे’ावासियों को पता है। ऐसी घटनायें पहले मुस्लिम देशों में हुईं होंगी और बाद में यह लोग जिन-जिन देशों में गये होगें, वहां-वहां के उपलब्ध साहित्य, जिसमें वैदिक साहित्य भी रहा होगा, नष्ट कर दिया गया होगा। जिन देशों में मुस्लिम व यवन नहीं पहुंच सके या उन्हें सफलता नहीं मिली, वहां का साहित्य सुरक्षित क्यों नहीं रहा, यह प्र’न विचारणीय है। ऐसे देशों में वह स्थान आते हैं जहां ईसाई व अन्य लोग व जातियां बसती थी। ऐसे देशों के इतिहास में महाभारतकालीन व इससे पूर्व का साहित्य उपलब्ध नहीं होता। ऐसे भी उदाहरण नहीं हैं कि वहां प्राकृतिक आपदा की कोई बड़ी घटना हुई हो जिसमें वहां का समस्त साहित्य नष्ट हुआ हो। अत: वहां कुछ प्राचीन साहित्य मिलना चाहिये था। इससे तो यही लगता है कि आर्य लोग अमेरिका व तत्समीपस्थ स्थानों पर महाभारत काल के बाद जाकर बसे। ऐसा सम्भव नहीं लगता जिसका कारण यह है कि १.९६ अरब वर्षों की अवधि में आर्य लोग केवल भारत व आसपास के स्थानों वा क्षेत्रों में ही बसे रहे व आगे, खाली प्रदेशों में जाकर नहीं बसे, ऐसा होना इसलिए भी सम्भव नहीं है कि महाभारत आदि ग्रन्थों में भारत के राजाओं का अमेरिका व अन्य दूरस्थ द्वीपों में आना-जाना कहा गया है। इससे तो यही कहा जा सकता है उन स्थानों के लोग अन्य-अन्य कारणों से अपना धार्मिक व सांस्कृतिक साहित्य सुरक्षित नहीं रख सके। यद्यपि समुद्रपारीय अन्य देशों में भी वेद से सम्बन्धित साहित्य उपलब्ध होना चाहिये था। हमारे विद्वान इस विषय में चिन्तन कर अपने अनुमान व प्रमाण सूचित कर सकते हैं।
संसार में समय समय पर अनेक चमत्कार हुए हैं। हम यहां एक नये चमत्कार की चर्चा करना चाहते हैं। यह चमत्कार भाषा की उत्पत्ति का चमत्कार है। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने जो मनुष्य बनाये वह भाषा से अनभिज्ञ थे। भाषा से अनभिज्ञ व्यक्ति ज्ञान शून्य होता है। ई’वर ने भाषा को जानने व बोलने के साधन के रूप में कान, बुद्धि व मुंह हमें दिया है। मन का भी इसमें सहयोग मिलता है। कानों से सुनकर मन द्वारा बुद्धि से सुनी बात या विचारों को समझा जाता है। उसके उत्तर में या स्वतन्त्र रूप से जब बोलते हैं तो मस्तिष्क से सोचकर बुद्धि द्वारा उसकी युक्तियुक्ता को विचार कर मन को प्रेरित कर मुंह से बोला जाता है। भाषा को समझने, जानने व बोलने के साधन ईश्वर ने बनाये हैं व सभी मनुष्यों को दिये हैं। सृष्टि व मनुष्यों की उत्पत्ति कर ई’वर ने भाषा के बोलने व समझने के सभी साधन तो हमें दिये परन्तु भाषा एवं ज्ञान मनुष्य के उत्पन्न हो जाने के बाद दिया गया है। यह ऐसा ही है जैसे की कम्प्यूटर बन जाने के बाद ही सभी साफ्टवेयर उसमें बाद में अपलोड करते हैं। ईश्वर भी मनुष्यों को उत्पन्न कर सबसे पहले चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को चार वेदों यथा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान इन ऋषियों की आत्माओं के भीतर अपने जीवस्थ स्वरूप, जो कि निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वान्तरयामी है, देता है अथवा स्थापित करता है। ईश्वर हमारी आत्मा के भीतर हर क्षण उपस्थित रहता है। इसका प्रमाण गलत काम करने पर भय आशंका व लज्जा का होना, ईश्वर की प्रेरणा व उसके द्वारा पैदा की जाने वाली अनुभूति से सम्भव होता है। वर्तमान में इसी प्रकार से अच्छा काम करने पर ई’वर हमें आनन्द, सुख, सुकून, प्रसन्नता, प्रफुल्लता, शांति की अनुभूति कराता है। सर्वशक्तिमान होने के कारण ईश्वर के लिए इस प्रकार से भाषा व वेदों का ज्ञान देना कोई कठिन नहीं है। यह सम्भव कोटि में आता है। सृष्टि के आरम्भ में सभी मनुष्य वेदों का अर्थ जानते थे। कठिनाई आने पर ऋषि इसका ज्ञान करा देते थे। बाद में स्मृति ह्रास होने पर हमारे ऋषियों ने सहायता के लिए व्याकरण के ग्रन्थ बना दिये जिससे वेदार्थ को जाना जा सकता था व अब भी जानते हैं। महर्षि पाणिनी की अष्टाध्यायी, महर्षि पंतजलि का अष्टाध्यायी महाभाष्य, महर्षि यास्क का निरूक्त व निघण्टु आदि ग्रन्थ संसार के सबसे बड़े आश्चर्य है। शब्द की उत्पत्ति, उसका घात्वर्थ, शब्द का निर्वचन आदि संसार के अन्य आश्चर्यों से कोई कम नहीं है। भारत के लोग धन्य हैं जिन्होंने इन ग्रन्थों को देखा, पढ़ा व समझा है। जिनको यह सौभाग्य नहीं मिला वह उसके लाभ से वंचित हैं। ऐसे लोग जो स्वार्थवश वैदिक संस्कृत भाषा को पढ़ना नहीं चाहते व विरोध करते हैं, वह अभागे लोग हैं व उनका यह जीवन अधिकांशत: व्यर्थ सिद्ध होता है। हम यहां इतना और कहेंगे कि यदि ईश्वर भाषा का ज्ञान न देता तो मनुष्य कितना भी प्रयास करने पर कभी भी भाषा उत्पन्न नहीं कर सकते थे। भाषा के लिए अक्षर व वर्णो का ज्ञान होना चाहिये। उसका ज्ञान शब्दों व वाक्य व उनके अर्थो से होता है और यह अक्षरों से ही बनते हैं। अत: भाषा का मूल आधार अक्षर हैं जो मनुष्य कदापि नहीं बना व निर्धारित कर सकते हैं। यह भी ध्यातव्य है कि वैदिक भाषा ईश्वरकृत हैं तथा इसके अतिरिक्त सभी अन्य भाषायें मनुष्यकृत अर्थात मनुष्यों के द्वारा बनी हैं जो क्रमश: वैदिक भाषा के उत्तरोत्तर विकार व अपभ्रंस से प्रचलन में आयीं हैं। अनेक भाषाओं से शब्द लेकर भी किसी एक प्रचलित भाषा को समृद्ध किया जा सकता है।
संसार में उपलब्ध सभी मत, मजहब व धर्म सम्बन्धी पुस्तकों व ग्रन्थों का अध्ययन कर यह ज्ञात होता है कि सारे ब्रह्माण्ड का रचयिता एक ही निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तरयामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान ई’वर है। सभी मनुष्य, स्त्री-पुरूष व प्राणी जगत को भी उस एक ही ई’वर ने बनाया है। ईश्वर, परमात्मा, अल्लाह व खुदा आदि सभी एक ईश्वर के नाम हैं जो परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं। संसार के सभी मनुष्यों का धर्म भी एक ही सिद्ध होता है जो कि मुख्यत: सत्य बोलना, सत्य कार्यो को करना, सत्याचार, निराकार ईश्वर की सगुण व निर्गुण उपासना, मूर्तिपूजा आदि न करना, अग्निहोत्र यज्ञ, परोपकार, अंहिसा, न्याय, दया, सेवा, दूसरों की सहायता आदि हैं। धर्म व सत्य का प्रमाण वेदों से ही होता है। वेद स्वत: प्रमाण हैं और जो ईश्वरीय ज्ञान वेदों के अनुकूल है, वह परत: प्रमाण है। संसार में जितने भी महापुरूष व महात्मा आदि हुए हैं वह सब अच्छे गुणों के कारण सबके पूजनीय हैं और उनमें जो-जो कुछ, कम व अधिक अवगुणों से युक्त यदि हों, तो वह त्याज्य हैं। यह आवश्यक नहीं है कि संसार में उत्पन्न सभी महापुरूष व महात्मा शतप्रतिशत सत्य गुणों से युक्त ही रहे हों। जीवात्मा वा मनुष्य के अल्पज्ञ होने से किसी भी भी महापुरूष में अल्प‘गुण व अवगुण भी हो सकते हैं। ईश्वर का अवतार कदापि नहीं होता न हो सकता है। आज तक ईश्वर ने कभी अवतार नहीं लिया। जिन्हें अवतार कहा व माना जाता है वह अपने समय के युगपुरूष, महापुरूष व महात्मा थे। ईश्वर सर्वशक्तिमान है। अत: उसे अपने किसी भी कार्य में किसी दूत, अवतार, फरिश्ते, विशेष पुत्र व सन्देशवाहक आदि की आवश्यकता नहीं होती। यदि कोई ऐसा मानता है तो वह व्यक्ति अपने समय का सदगुणवान व सामान्य मनुष्यों से कुछ थोड़ा अधिक ज्ञानी, शक्तिवान व समाजसेवक के रूप में हो सकते हैं।
हमने इस लेख में स्वतन्त्र रूप से अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। हमने वही लिखा है जो कि हमें वैदिक साहित्य के अध्ययन से जाना है या फिर चिन्तन व विचार करने पर अनुमान लगता है। हम आर्य समाज के विद्वानों से अनुग्रह करते हैं कि वह इस विषय में अपने विचारों को आर्य जनता के सामने प्रस्तुत करें जिससे सबको लाभ मिल सके।