तराइन का दूसरा युद्घ और चौहान, जयचंद व गौरी का अंत

-राकेश कुमार आर्य-   history
तराइन का युद्धक्षेत्र पुन: दो सेनाओं की भयंकर भिड़ंत का साक्षी बन रहा था। भारत के भविष्य और भाग्य के लिए यह युद्ध बहुत ही महत्वपूर्ण होने जा रहा था। भारत अपने महान पराक्रमी सम्राट के नेतृत्व में धर्मयुद्ध कर रहा था, जबकि विदेशी आततायी सेना अपने सुल्तान के नेतृत्व में भारत की अस्मिता को लूटने के लिए युद्ध कर रही थी। युद्ध प्रारंभ हो गया। ‘भगवा ध्वज’ की आन के लिए राजपूतों ने विदेशी आक्रांता और उसकी सेना को गाजर, मूली की भांति काटना आरंभ कर दिया। ‘भगवा ध्वज’ जितना हवा में फहराता था उतना ही अपने हिंदू वीरों की बाजुएं शत्रुओं के लिए फड़क उठती थीं और उनकी तलवारें निरंतर शत्रु का काल बनती जा रही थीं। सायंकाल तक के युद्ध में ही स्थिति स्पष्ट होने लगी, विदेशी सेना युद्ध क्षेत्र से भागने को विवश हो गयी। उसे अपनी पराजय के पुराने अनुभव स्मरण हो आये और पराजय के भावों ने उसे घेर लिया। इसलिए शत्रु सेना मैदान छोड़ देने में ही अपना हित देख रही थी। लाशों के लगे ढेर में
मुस्लिम सेना के सैनिकों की अधिक संख्या देखकर शेष शत्रु सेना का मनोबल टूट गया और उसे लगा कि हिंदू इस बार भी खदेड़, खदेड़ कर मारेंगे। मौहम्मद
गोरी को भी गोविंदराय की वीरता के पुराने अनुभव ने आकर घेर लिया था।
इसलिए वह भी मैदान छोड़ऩे न छोड़ऩे के द्वंद में फंस गया था। ‘जयचंद’ जैसे देशद्रोही जमकर उसका साथ दे रहे थे, जिन्हें देखकर उसे संतोष होता था, परंतु हिंदू सेना के पराक्रमी प्रहार को देखकर उसका हृदय कांपता था। एक ध्यान देने योग्य बात मुस्लिम और विदेशी शत्रु इतिहास लेखकों ने भारत में राष्ट्रवाद की भावना को मारने तथा हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक हिंदू शब्द का या हिंदू सेना का जहां प्रयोग बार बार होना चाहिए था, वहां वैसा किया नहीं है। इसलिए इन्होंने पृथ्वीराज चौहान की सेना को राष्ट्रीय सेना या हिंदू सेना न कहकर ‘राजपूत सेना’ कहा है। इससे उन्हें दो लाभ हुए-एक तो भारत में राष्ट्रवाद की भावना को मारने में सहायता मिली। (यह अलग बात है कि वह मरी नहीं) दूसरे हिंदुओं में जातिवाद को प्रोत्साहन मिला। हिंदू एक ऐसा शब्द था जो हममें जातीय अभिमान भरता था। इसलिए उसे हमारे लिए सामूहिक रूप से प्रयुक्त न कर, हमारे लिए खंडित मानसिकता को दर्शाने वाले शब्दों यथा राजपूत सेना, मराठा सेना, सिक्ख सेना आदि का प्रयोग किया गया। निरंतर इसी झूठ को दोहराते रहने से कुछ सीमा तक हम पर इस झूठ का प्रभाव भी पड़ा। अस्तु।
मौहम्मद गोरी ने चली नई चाल मौहम्मद गोरी ने जब देखा कि वह एक बार पुन: अपमान जनक पराजय का सामना करने जा रहा है तो उसने एक नई चाल चली। उसने हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान को ऊंची आवाज में संबोधित कर उससे युद्ध बंद करने की प्रार्थना की। गोरी ने पृथ्वीराज चौहान से कहा कि इस बार हमें तुम्हारा भाई (जयचंद) यहां युद्ध के लिए ले आया है, अन्यथा मैं तो कभी हिंदुस्तान नहीं आता। अब मेरी आप से विनती है कि आप मुझे ससम्मान अपने देश जाने दें। बस, मैं इतना अवसर आपसे चाहता हूं कि मैंने अपने देश एक व्यक्ति को चिट्ठी लेकर भेजा है, वह उस चिट्ठी का उत्तर लिखा लाए तो मैं यहां से चला जाऊंगा। हम बार-बार कहते आये हैं कि भारत ने इन बर्बर विदेशी आक्रांताओं की युद्धशैली की घृणित और धोखे से भरी नीतियों को कभी समझा नहीं, क्योंकि भारत की युद्धनीति में ऐसे धोखों को कायरता माना जाता रहा है। शत्रु यदि प्राणदान मांग रहा है तो उसे प्राणदान देना क्षत्रिय धर्म माना गया है। हमने चूक
ये की कि शत्रु दुष्टता के साथ भी जब धोखे की चालें चल रहा था तो हमने उस समय भी उसकी बातों पर विश्वास किया और उसकी चालों में अपने देश का अहित
कर बैठे, अन्यथा ना तो हमारा पराक्रम हारा और ना ही हमारा उत्साह ठंडा पड़ा। शत्रु के प्रति दिखाई जाने वाली इसी अनावश्यक उदारता के हमारे परंपरागत गुण को ही वीर सावरकर ने ‘सदगुण-विकृति’ कहकर अभिहित किया है।

फलस्वरूप पृथ्वीराज चौहान गोरी की बातों के जाल में फंस गया। हिंदू सम्राट ने अपनी सेना को युद्धबंदी की आज्ञा दे दी। युद्धबंद होते ही गोरी की सेना को संभलने का अवसर मिल गया। जबकि चौहान की राष्ट्रीय सेना अपने शिविरों में जाकर शांति के साथ सो गयी। गोरी ऐसे ही अवसर की खोज में था कि जब हिंदू सेना शांति के साथ सो रही हो तो उसी समय उस पर आक्रमण कर दिया जाए।
पी.एन.ओक लिखते हैं:-”ठीक आधी रात को जबकि हिंदू सेना बड़ी शांति से सो रही थी गोरी ने चुपचाप और एकाएक उस पर धावा बोल दिया। छल और कपट के
मायाजाल में फंसे सोते वीर हिंदू सैनिकों को गोरी के कसाई दल ने हलाल कर दिया। इसी धोखे धड़ी के युद्ध में ही पृथ्वीराज चौहान ने भी वीरगति प्राप्त की।”
भारत माता के कई योद्घा काम आये तराइन के इस युद्ध में मां भारती के कई वीरपुत्र काम आये। इनमें एक थे चित्तौड़ के राणावंश के वीर शिरोमणि राणा समरसिंह और दूसरा वीर शिरोमणि था गोविंद राय। जिसने तराइन के पहले युद्ध में पृथ्वीराज चौहान के परमशत्रु मौहम्मद गोरी को घायल किया था। राणा समरसिंह पृथ्वीराज चौहान के बहनोई भी थे और उन्होंने हर संकट में पृथ्वीराज चौहान का साथ बड़ी निष्ठा के साथ दिया था। राजनीति में यद्यपि संबंध अधिक महत्वपूर्ण नहीं होते परंतु हिंदू राजनीति में संबंधों का कितना महत्व होता है इसका पता हमें पृथ्वीराज चौहान और उनके बहनोई के संबंधों को देखकर ही चलता है। हर संकट में पृथ्वीराज ने समरसिंह को स्मरण किया या उसके हर संकट का समरसिंह ने ध्यान रखा, यह पता ही नहीं चलता। तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की पतली स्थिति को समरसिंह भली भांति जानते थे, परंतु देश-धर्म के सम्मान को बचाने के लिए वह इस युद्ध में भी उसके साथ आ मिले और शत्रु के साथ जमकर संघर्ष किया। परंतु युद्ध में वह स्वयं, उनका पुत्र कल्याण और उनकी तेरह हजार हिंदू सेना शहीद होकर मां भारती के श्री चरणों में शहीद
हो गयी। इसी प्रकार गोविंदराय को उसके हाथी ने ही ऊपर से पटक दिया और वह वीर भी अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान देकर इस असार-संसार से चला गया।
इस प्रकार तराइन का युद्ध क्षेत्र हमारी पराजय का नहीं, अपितु हमारे वीर स्वतंत्रता सैनानियों के उत्कृष्ट बलिदानों का स्मारक है। जिसे यही सम्मान मिलना भी चाहिए।
गायों के प्रति पृथ्वीराज चौहान की गहन आस्था बनी पराजय का कारण कपटी विदेशी आक्रांता ने हिंदू सम्राट और उसकी साहसी सेना को पराजित करने का एक और ढंग खोज निकाला। उसे यह भलीभांति ज्ञात था कि भारतीय लोगों की गाय के प्रति असीम श्रद्धा और गहन आस्था होती है और विषम से विषम परिस्थिति में भी एक हिंदू किसी गाय का वध करना पाप समझता है। पृथ्वीराज चौहान तराइन के दूसरे युद्ध में घायल हो गये थे। तब उन्हें उनके सैनिक घायलावस्था में लेकर चल दिये, तो मुसलमानों ने भारत के शेर को समाप्त करने का यह उत्तम अवसर समझा। कहा जाता है कि सिरसा के पास दोनों सेनाओं की मुठभेड़ हो गयी। यहां पर भी जब गोरी ने अपनी पराजय होते देखी, तो कुछ ही दूरी पर घास चर रही कुछ गायों को अपनी सहायता का अचूक शस्त्र समझकर वह उनकी ओर भागा।
गोरी के पीछे पृथ्वीराज चौहान ने अपना घोड़ा दौड़ा दिया। तब गोरी और उसके सैनिकों ने अपने प्राण बचाने के लिए पृथ्वीराज चौहान की सेना की ओर गायों
को कर दिया और स्वयं उनके पीछे हो गये। उसने अपने सैनिकों को आज्ञा दी कि सभी इन गायों को काटने के लिए अपनी-अपनी तलवारें इनकी गर्दनों पर तान
लें। सभी सैनिकों ने ऐसा ही किया। तब गोरी ने भारत के हिंदू सम्राट से इन गायों की हत्या रोकने के लिए आत्मसमर्पण की शर्त रखी। कहा जाता है कि पृथ्वीराज चौहान गायों की संभावित प्राण हानि से कांप उठा। उसका हृदय द्रवित हो गया और गायों के प्रति असीम करूणा व आस्था का भाव प्रदर्शित करते हुए वह घायलावस्था में अपने घोड़े से उतरा, एक हाथ में तलवार लिए धरती पर झुका तथा एक भारत की पवित्र मिट्टी को माथे से लगाकर गौमाताओं को प्रणाम करते हुए उनकी रक्षा के लिए विदेशी शत्रु के समक्ष अपनी तलवार सौंप दी। वास्तव में यह तलवार पृथ्वीराज चौहान की तलवार नहीं थी, अपितु यह तलवार
भारत के गौरव और स्वाभिमान की तलवार थी। कुछ लोगों ने गोरी के इस कपट को निष्फल करने के लिए पृथ्वीराज चौहान से यहां अपेक्षा की है कि वह उस समय आपद-धर्म का निर्वाह करते हुए कुछ गायों का भी वध कर डालता तो कुछ भी अपराध नहीं होता, उसे आत्मसमर्पण करने में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए थी।
परंतु जैसे भी हुआ, जो भी हुआ वह भारत का दुर्भाग्य ही था। यह सच है कि मैदान में भारत को इस समय हराना गोरी के लिए असंभव था, पृथ्वीराज चौहान
भी यदि छल और कपट को अपनाकर शत्रु को शत्रु की भाषा में ही उत्तर देते तो निश्चय ही परिणाम कुछ और ही आते और देश का इतिहास भी तब कुछ और ही होता।

अंतिम दृश्य का एक अन्य चित्रण
दामोदरलाल गर्ग ने अपनी पुस्तक ”भारत का अंतिम हिंदू सम्राट: पृथ्वीराज
चौहान” में पृथ्वीराज के जीवन के अंतिम क्षणों का रोमांचकारी चित्रण इस प्रकार किया है:-(सिरसा गढ़ के इस युद्ध के समय) चौहान नरेश का मनोबल यथावत था। शीघ्रता से हाथी को त्यागकर घोड़े पर सवार होकर सिरसागढ़ को अपनी सुरक्षा का कवच बनाने की दृष्टि से शत्रु के घेरे को तोड़ते हुए निकल भागा। शत्रु पक्ष के एक दल ने चौहान का पीछा किया। चौहान ने सिरसा के निकट पहुंचकर पीछा करते हुए दल का सामना किया, जहां अंतिम गति प्राप्त होने से पूर्व अनेकानेक शत्रुओं को भी यमलोक का रास्ता दिखा दिया। अंत में राजपूताने का शेर, (भारत की) स्वतंत्रता का पुरोधा, सूर्य कुल का भूषण, शाकंभरीश्वर महाराजा पृथ्वीराज चौहान का सूर्य अस्त हो गया और वह वीरांगना स्त्री (श्यामली) भी साथ ही शहीद हो गयी। सूर्य अस्त हो चुका है। चौहान चिरनिद्रा में लीन हो धरती की कठोर शैया पर लेटे हैं। विशाल नेत्र बंद हैं, और चेहर आकाश की ओर है। इसके पास ही शत्रु सैनिकों के अनेकानेक शव क्षत विक्षत से बिखरे पड़े हैं। उनके कई अश्वों की लाशें भी दिखाई पड़ रही हैं।
चौहान नरेश के शरीर पर करीब 24 से ज्यादा घावों से रक्त प्रवाहित हो रहा है। श्यामली के शरीर पर उससे भी अधिक घाव हैं। यह चौहान नरेश के चरणों
में सिर रखकर ऐसे पड़ी है, मानो स्वाभाविक रीति से सो रही हो। इसके घावों से बहा रक्त चौहान के रक्त में मिलकर एक हो चुका है। जो जीवन में कभी संभव नहीं हुआ वह मृत्यु ने आज कर दिखलाया।

चौहान की मृत्यु का रहस्य
हमारे अनेकानेक वीरों की शहादत पर सदियों से रहस्य का पर्दा पड़ा हुआ है। विदेशी लेखकों ने कई बार ईष्र्यावश तो कई बार जान-बूझकर इस रहस्य को और भी
अधिक गहराने का कार्य किया है। दुख की बात ये है कि हमारे देशी लेखकों ने भी इन रहस्यों से पर्दा उठाना उचित नहीं समझा।
तराइन का दूसरा युद्ध….
पृथ्वीराज चौहान के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। उनकी मृत्यु पर आज तक रहस्य बना हुआ है। कथा इस संबंध में यही है कि पृथ्वीराज चौहान को तराइन के युद्ध में कैद कर लिया गया और गोरी उसे गजनी ले गया। जहां चौहान के दरबारी कवि चंदबरदाई ने किसी प्रकार अपने स्वामी से जेल में ही संपर्क स्थापित किया और शब्दभेदी बाण चलाने की चौहान की प्रतिभा का प्रदर्शन गोरी के राजदरबार में कराया। जिसमें अंधे कर दिये सम्राट ने चंद्रबरदाई के संकेत पर व गोरी की आवाज पर तीर चलाया तो गोरी का अंत करते हुए वह तीर मौहम्मद गोरी के सीने से पार निकल गया। तब गोरी के सैनिकों द्वारा अपनी हत्या होने से पहले ही इन दोनों वीरों ने अपने अपने जीवन का अंत एक दूसरे की गर्दन उतारकर कर लिया।
दूसरा, तथ्य इस संबंध में ये है कि पृथ्वीराज चौहान के जीवन का अंत तराइन के युद्ध क्षेत्र में ही हो गया था। दामोदरलाल गर्ग कुछ नवीन तथ्यों के आधार पर सिद्घ करते हैं कि पृथ्वीराज चौहान ने सिरसा के पास हुए युद्ध में शत्रु के हाथों न मरकर आत्महत्या कर ली थी। गोरी का काजी रहा मिनहाजुस सिराज भी कुछ ऐसा ही संकेत देता है और वह कहता है कि पृथ्वीराज चौहान का अंत सिरसा के युद्ध में ही हो गया था। अब  नवीन साक्षियों और प्रमाणों के आधार पर यही धारणा बलवती होती जा रही है कि पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु तराई के दूसरे युद्ध में सिरसा के पास ही हो गयी थी।

यह भी तो विचारणीय है
यदि पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु गोरी के राजभवन में हुई और गोरी का अंत भी चौहान के हाथों हुआ तो कुछ नये प्रश्न आ उपस्थित होते हैं। यथा इस बात के
स्पष्ट प्रमाण है कि गोरी ने अपने देश के प्रति कृतघ्नता करने वाले जयचंद को तराइन के युद्ध से दो वर्ष पश्चात परास्त किया और उसका वध करके उसकी जीवनलीला समाप्त कर दी। यह घटना 1194 ई. की है। जब गोरी इस घटना तक जीवित रहा तो उसके 1192 ई. में ही मरने का प्रश्न ही नहीं होता। पंजाब ने लिया था प्रतिशोध भारत के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान को तथा ‘देशद्रोही’ जयचंद को परास्त करने के पश्चात मुहम्मद गोरी का दुस्साहस बढ़ गया। अब उसे यह निश्चय हो गया था कि भारत में उसका सामना करने वाली कोई शक्ति नहीं रह गयी। अत: उसने एक के पश्चात एक भारत पर कई आक्रमण किये। उसके द्वारा विजित कुछ क्षेत्रों की देखभाल उसका एक कुतुबुद्दीन नामक दास कर रहा था, उसने भी पृथ्वीराज चौहान के बिना अनाथ  हुए भारत में कई स्थानों पर अपने आतंक और अत्याचार से लोगों को उत्पीड़ित किया। परंतु उसे राजस्थान के अजमेर में राजस्थान के मेदों और चौहानों ने अपनी स्वतंत्रता की रक्षा
करते हुए परास्त कर मुंह की खाने के लिए विवश कर दिया था। 1204 ई. में अंधखुद के संग्राम में ख्वारिज्म के शासकों  ने स्वयं गोरी को परास्त कर पृथ्वीराज चौहान को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।
उधर वीरभूमि पंजाब ने पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के पश्चात से ही विदेशियों के विरूद्ध विद्रोही दृष्टिकोण दिखाना आरंभ कर दिया। पंजाब के युवाओं का और देशभक्तों का रक्त अपने सम्राट के वध का प्रतिशोध लेने के लिए उबल रहा था। यह पावन भूमि विदेशी आततायी द्वारा किये गये भारत माता के अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए व्याकुल हो उठी थी। इसलिए इस भूमि के साहसी और देशभक्त वीरों ने कुतुबुद्दीन के विरूद्ध विद्रोही दृष्टिकोण अपनाना आरंभ कर दिया। लाहौर के पास किसी स्थान पर उस समय गोरी भी था। गोरी हिंदुस्तान में व्याप्त अशांति और बेचैनी को समझ नहीं पा रहा था, कि इस अशांति और बेचैनी का कारण क्या है? जबकि भारत का प्रत्येक बच्चा अपने सम्राट के तेज से भर रहा था। यह भारत की प्राचीन परंपरा रही है कि किसी भी महापुरूष के पद्चिन्हों पर चलने वाले उस महापुरूष के चले जाने के पश्चात अधिक उत्पन्न होते हैं। क्योंकि महान विरासत का सम्मान करना भारत का सामाजिक संस्कार रहा है। इसलिए भारत का यौवन गोरी के प्रति शांत नहीं था। अंतत: यह गौरव पंजाब की पावन धरती को ही मिला, जिसने भारत की अस्मिता के प्रतीक पृथ्वीराज चौहान के हत्यारे मुहम्मद गोरी का वध कर भारत के अपमान का प्रतिशोध लिया। (‘मदर इण्डिया’ नवंबर 1966) के अनुसार 1206 के मार्च माह में लाहौर और उसके आस-पास शमशान जैसी शांति पसराकर गोरी और कुतुबुद्दीन ऐबक ने लाहौर से गजनी चलने की तैयारी की। मार्च में उसने दमयक में पड़ाव डाला। तब 15 मार्च 1206 को वीर हिंदुओं का एक छोटा सा दल तलवार से वज्रपात करता हुआ मुहम्मद गोरी के शिविर तक आ पहुंचा और एक ही झटके में गोरी का सिर कटकर भूमि पर लुढ़कता हुआ दूर तक चला गया। इस प्रकार एक शत्रु का अंत कर दिया गया। परंतु इस विवरण को भारत के प्रचलित इतिहास से विलुप्त कर दिया गया है। क्योंकि इस प्रकार के उल्लेख से हिंदुओं की वीरता प्रदर्शित होती है। सन 1206 में ही मुहम्मद गोरी के मारे जाने का एक स्पष्ट प्रमाण ये भी है कि उसकी मृत्यु के इसी वर्ष में कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में गुलाम वंश की स्थापना की। यदि गोरी 1192 ई में ही मर जाता तो ऐबक 14 वर्ष तक अर्थात 1206 ई. तक अपने स्वामी मौहम्मद गोरी की ‘खड़ाऊओं’ से उसके द्वारा भारत के विजित क्षेत्रों पर शासन कभी नहीं करता। निश्चित रूप से ऐबक  अपने आपको 1192 ई. में ही  भारत का सुल्तान घोषित करता और यहां पर स्वतंत्र शासक के रूप में शासन करना आरंभ कर देता।

यदि पृथ्वीराज चौहान जैसे अपने चरितनायक के जीवन से हम बहुपत्नीकता और उसके ‘अहंकारी स्वभाव’ को निकाल दें तो उस जैसा आदर्श वीर राजा उस समय तो दुर्लभ ही था। कदाचित यही कारण रहा कि उसे ही हमने ‘अंतिम हिंदू सम्राट’ कहना स्वीकार कर लिया और यह भी कि उसकी मृत्यु के उपरांत भारत अपनी राजनीतिक एकता को स्थापित नहीं रख पाया। उसका पतन हुआ और पतन के मार्ग पर चलते हुए भारत में यहां के कुछ क्षेत्रों पर विदेशी आक्रांताओं को अपना राज्य स्थापित करने का अवसर उपलब्ध हो गया।

7 COMMENTS

  1. दुर्भाग्य की बात है की हमारे यहां ईतिहास मेँ रस रूची रखने वाले और शोध कार्य मेँ रूची रखने वाले बहोत ही.कम लोग है । शायद ईसी लीऐ हमारे देश के ईतिहास की बहुत सारी सही जानकारीयाँ पा दी गई है, या फेरबदल कर दी गई है ।

    • Aaj kl ke log ko phone se fursat mile tab to vo itihas padh payenge lekin dukh ki baat ye hai ki un log ke pass to khud ko janane ko vakt bhi nahi hai buss facebook whatsapp ke sivaye kuch bhi nahi hai asi khokhali jindagi je rahe vo log itihas ke bare me jaankari dene ke liye thanks

  2. आप सत्य कह रहे हैं राकेश जी, मैकाले के मानस पुत्रों ने हमारे पूरे के पूरे इतिहास को ही तोड़ मरोड़ कर विकृत कर दिया है. जब मैं आपके द्वारा प्रस्तुत लेख को पढता हूँ और फिर अन्य सम्बंधित लेखों को देखता हूँ (नेट पर उपस्थित) तो समझ में आता है कि हम क्या थे और हमें क्या पढ़ाया और बताया जाता है.

    निसंदेह आपकी कठिन साधना और देश के प्रति अनुराग नमन करने योग्य है. धन्यवाद आपका और धन्यभाग हमारे कि कम से कम सत्य को जानने और समझने का मौका तो मिला आपके लेख द्वारा.

    अभिनन्दन, सादर नमन

  3. जिसे अब सद्गुण विकृति कहा जा रहा है, कदाचित वो हमारे चरित्र कि मजबूती थी, हमारा नैतिक बल था. इसी का नतीजा था का हम हारे जरूर लेकिन पराभूत नहीं हुए. आघात पर आघात सहते रहे लेकिन विचलित नहीं हुए, पुनः पुनः तलवारों पे सान चढ़ा मैदानों में शत्रु की गर्दनें नापते रहे. कभी चैन से किसी भी आक्रांता को राज्य नहीं करने दिया. जहाँ इस्लाम ने सम्पूर्ण अरब को अपने आधीन कर लिया परन्तु हम भारत वासियों ने एकमत न होते हुए भी हमलावरों को छठी का दूध याद दिलाते रहे.

    रघुकुल रीति सदा चली आई | प्राण जाए पर वचन न जाई||

    सिक्के के दो ही पहलू होते हैं, मध्य का मार्ग हमारे (हमारे का अर्थ सम्पूर्ण भारतीयता के लिए है) लिए असम्भव है. वचन और मर्यादाओं के पालन में भविष्य का फल सदैव उपेक्षित रहा है. चाहे भीष्म का शस्त्र त्याग हो या दशरथ द्वारा राम को वन गमन का आदेश, दोनों ही हमारे लिए सर्वोच्च आदर्श. और शायद इसी से प्रेरित चौहान ने नियम विपरीत कोई कृत्य नहीं किया. आज के मूल्याङ्कन अुनसार हम कह सकते हैं की कुछ गायों का वध उचित था देश को बचाने के लिए परन्तु वो समय और परिस्थितियां और थीं. शेष विश्व दुराचारी था लेकिन भारत उस समय भी सदाचारी था. छल कपट धूर्त्त आचरण हमारी सभ्यता के अंग नहीं थे.

    और शायद यही बात रही होगी जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में १५ में से १३ वोट पाने के बाद भी सरदार वल्लभ भाई पटेल ने गद्दी का तिरस्कार कर दिया अन्यथा वो गांधी जी को भी किनारे कर सकते थे जैसा की नेहरू ने कर रखा था, परन्तु नहीं… धोखा और फरेब हमारे खून में ही नहीं है, और सच कहूँ तो ये वरदान स्वरुप हमारी सभ्यता का अंग है. और इसी कारण आज भी चाहे कितने भी शत्रु हमारे चारों तरफ इकट्ठे हों हमारी सभ्यता संस्कृति पर कितने भी कलुषित प्रहार हो रहे हों फिर भी हम जीवित हैं और जीवित ही रहेंगे.

    वीर शिरोमणि राष्ट्र रक्षक पृथ्वीराज चौहान का समुचित मूल्याङ्कन और जीवन माला सम्मुख लाने के लिए आपका ह्रदय से आभार, अभिनन्दन….धन्यवाद

    सादर

    • आदरणीय शिवेंद्र जी, बीच मे प्रवक्ता को देख नही पाया इसलिए आपकी प्रतिक्रिया का उत्तर देने मे विलंभ हो गया,जिसके लिए क्षमा चाहता हूँ।भारतीय इतिहास के साथ जो छल प्रपंच किए गए हैं वह बहुत ही निकृष्ट सोच के परिणाम हैं और इस दिशा मे बहुत बड़े स्तर पर कार्य करने की आवयशकता हैं।मेरा प्रयास इस दिशा मे किए जाने वाले कार्य की ओर संकेत मात्र हैं ।प्रचलित इतिहास मित्को से भरा पड़ा हैं।मिथ्या और ब्राहमक तथ्यो की इसमे भ्रमर हैं इतिहास को दिल्ली की दासी बनाकर प्रस्तुत किया गया ।इसलिए शेष भारत के राज्यो ,साम्राज्यों को उपेक्षित किया गया हैं और उनके स्वतन्त्रता के प्रयासो को दिल्ली के विरुद्ध एक विद्रोह के रूप मे स्थापित किया गया है। जिससे अपने स्वतन्त्रता सेनानियो को लंबे काल से विद्रोही या देशद्रोही तक देखने की प्रवृति हमारे भीतर बैठ गयी।ऐसे मिथ्या और भ्रमक इतिहास को पलटकर लिखने की आवयशकता हैं पृथ्वीराज चौहान जैसे राष्ट्र नायको के साथ हम न्याय नही कर पाये हैं।
      आपके द्वारा उत्साह वर्धक टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद

    • शिवेंद्र जी ,नमस्कार
      इस समय देश में सज्जन शक्ति को संगठित करने की आवश्यकता है और इससे भी अधिक बड़ी आवश्यकता बौद्धिक शक्ति के संगठन की है अधिकांश लोग बौद्धिक अहंकार के कारण भी अंधकार में भटक रहे हैं जबकि आवश्यकता देश के लिए अहंकार शून्य बौद्धिक सम्पदा से सम्पन्न लोगों की है।
      प्रेम बनाएँ रखें ।
      आभार सहित।

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