अल्पसंख्यक अधिकारों की आड़ में व्यापार!

-आर. एल. फ्रांसिस

केन्‍द्र सरकार का पूरा तंत्र भारतीय चर्च को खुश करने में लगा हुआ है चाहे उसके ऐसे फैसलों से ईसाई समुदाय को दुख: उठाना पड़े। हाल ही में ‘राष्‍ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग’ (एनसीएमईआई) ने चर्च के शैक्षणिक संस्थानों को लाभ पहुचानें के लिए निर्णय सुनाया है कि अल्पसंख्यक की मान्यता देने या छीनने में अल्पसंख्यक छात्रों की संख्या कोई आधार नहीं होगी। चाहे वह कितने ही गैर अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों को दाखिला दे तो भी उनका अल्पसंख्यक का दर्जा और उस आधार पर मिलने वाली सभी छूटे बरकरार रहेंगी। यह निर्णय आयोग ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाये गए एक पूर्व निर्णय के विपरीत दिया है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को दाखिलों में अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों का एक निश्चित सीमा तक ख्याल रखना होगा।

केन्‍द्र सरकार ने अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों की सहूलियत के लिए नवम्बर 2004 में ‘राष्‍ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग’ (एनसीएमईआई)का गठन पूर्व नयायधीश एम.एस.ए.सिद्दकी की अध्यक्षता में किया था। अल्पसंख्यक समुदायों को संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अपनी इच्छा से अपने शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उसे चलाने की छूट दी गई है। इसी के तहत मुसलिम, सिख एवं ईसाई बड़ी संख्या में अपने संस्थान चला रहे है।

संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत दिये गए इन खास अधिकारों का मकसद अपने समुदाय के बच्चों को अपनी भाशा ,लिपी, संस्कृति और धार्मिक शिक्षा को बढ़ावा देना था लेकिन भारतीय चर्च/ ईसाई मिशनरियों ने देश की स्वतंत्रता के बाद इस अधिकार का बेजा इस्तेमाल किया है। उन्होंने इसे अपने विस्तार का जरिया बना लिया है। सरकार और प्रशासन में बैठे नेताओं और अफसरो को खुश करने और उन्हें अपनी मुठ्ठी में रखने के लिए उनके बच्चों को पांच सितारा कान्वेंट स्कूलों में दाखिला देने के एवज में बहुत कुछ हासिल किया है। इस मनमानी के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में भी कई मामले आए। कोर्ट ने कहा था कि अल्पसंख्यक संस्थानों को दाखिलों में अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों का एक निष्चित सीमा तक ख्याल रखना होगा। उन्हें गैर अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों के दाखिलों की आजादी होगी, लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय की अनदेखी नहीं की जा सकती। ऐसा होने पर उनका अल्पसंख्यक दर्जा छिन सकता है। कोर्ट ने यह भी कहा था कि राज्य सरकारे चाहे तो ऐसे संस्थानों में अल्पसंख्यक बच्चों के लिए सीटों का प्रतिशत तय कर सकती है।

मुस्लिम और सिख समुदाय को अपने सस्थानों में दाखिला न मिलने की शिकायतें सुनने में कम ही आती है। समास्या चर्च से जुड़े संस्थानों के साथ है। देश भर में चर्च ने शैक्षणिक संस्थानों का एक जाल बिछा दिया है या ऐसा कहे कि देश की कुल आबादी का ढाई प्रतिशत ईसाई समुदाय का देश की 22 प्रतिशत शैक्षणिक संस्थाओं पर एकाधिकार है परन्तु इसके बावजूद शहरी क्षेत्रों में 15 प्रतिशत एवं ग्रामीण क्षेत्रों में 40 प्रतिशत ईसाई बच्चे निरक्षर है। चर्च द्वारा संचालित कान्वेंट स्कूलों में गरीब ईसाई बच्चों को दाखिला ही नहीं दिया जाता। ‘पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट’ द्वारा देश की राजधानी दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में एक दलित ईसाई नेता ने कहा था ”ईसाई शैक्षणिक संस्थानों का इस्तेमाल दलित ईसाइयों को छोड़कर पैसे वालो के लिए होता है, दिल्ली जैसे महानगरों में भी चर्च स्कूलों के अंदर ईसाई बच्चों की भागीदारी न के बराबर है, संविधान में मिले खास अधिकारों का लाभ धन कमाने और चर्च के विस्तार के लिए किया जा रहा है।” अगर चर्च ने अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाई होती तो अजादी के 63 वर्शो बाद भी उसे अपने अनुयायियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने एवं रंगनाथ मिश्र आयोग की रिर्पोट को लागू करने की दुहाई नहीं देनी पड़ती।

‘राष्‍ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग’ (एनसीएमईआई) के पास ऐसी कई शिकायते आ रही थी इनकों देखते हुए आयोग के अध्यक्ष पूर्व नयायधीश एम.एस.ए.सिद्दिकी के हवाले से (रविवार 7 मार्च 2010 को कोलकाता से प्रकाशित ‘दा टेलीग्राफ’) में एक समाचार प्रकाशित हुआ कि ‘भारतीय चर्च द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों को कम से कम 30 प्रतिशत बच्चे ईसाई होने चाहिए और जिन संस्थानों में इतने बच्चे नहीं होगे वह अपना अल्पसंख्यक का दर्जा खो देंगे।’ सुप्रीम कोर्ट ने 2005 के अपने एक फैसले में यह कहा था कि अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों का लाभ उनके समुदायों को हर हलात में मिलना चाहिए जिनके विकास के नाम पर यह स्थापित किये गए है। आयोग के अध्यक्ष पूर्व नयायधीश एम.एस.ए.सिद्दिकी ने कहा कि मुस्लिम एवं सिख समुदाय के शैक्षणिक संस्थान अपने समुदाय के बच्चों को ज्यादा से ज्यादा लाभ दे रहे है यहा समास्या केवल चर्च द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों के साथ है इसलिए ‘राष्‍ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग’ यह प्रस्ताव पास करता है कि जो ‘ईसाई शैक्षणिक संस्थान’ अपने समुदाय के बच्चों को 30 प्रतिशत भागीदारी नहीं देगा वह ‘अल्पसंख्यक का दर्जा’ खो देगा।

‘राष्‍ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग’ (एनसीएमईआई) के इस निर्णय के विरुद्व भारतीय चर्च नेताओं ने मोर्चा खोल दिया। ”कैथोलिक बिशप कांफ्रेस ऑफ इंडिया” के ‘शिक्षा एवं संस्कृति आयोग’ ने प्रधानमंत्री और शिक्षा मंत्री के पास आयोग द्वारा चर्च शिक्षण संस्थानों में ईसाई बच्चों की दाखिला सीमा तय करने पर एतराज जताया। बिशप कांफ्रेस ने प्रधानमंत्री से कहा कि संविधान के अनुच्छेद 30(1) में उन्हें अपने शैक्षणिक संस्थान चलाने का अधिकार है और संविधान में अल्पसंख्यक दर्जा पाने का कोई प्रतिशत तय नहीं किया गया है हमारी संख्या भी कम है इसलिए हम (बिशप कांफ्रेस) इस निर्णय की निंदा करते है। उसी समय से आयोग अपने इस आदेश को बदलने की तरकीब ढूंढ रहा था जो उसे ‘उड़ीसा सरकार और एक चर्च स्कूल’ के बीच उठे विवाद का फैसला सुनाते समय मिल गया। उड़ीसा सरकार ने उक्त चर्च स्कूल पर आरोप लगाया था कि उसके वहा ईसाई बच्चों का प्रतिशत बहुत कम है इसलिए स्कूल का अल्पसंख्यक का दर्जा समाप्त कर दिया जाना चाहिए।

मानवाअधिकार कार्यकर्ता श्री जोजफ गॉथिया मानते है कि अल्पसंयकों को शैक्षणिक संस्थान चलाने का सैविधानिक अधिकार कुछ जुमेदारियों के साथ दिया गया था तांकि ऐसे संस्थानों के जरिए अपने समुदाय के पिछड़े एवं गरीब सदस्यों को अन्य वर्गो की बराबरी के साथ विकास के मोके उपल्बध करवा सके। इन अधिकारों का दुरुपयोग न हो इसलिए कुछ जायज प्रतिबंध लगाना गैर-सैविधानिक नहीं होगा। जैसा कि इन स्कूलो-संस्थानों में उनके समाज के बच्चों को दाखिला न देने पर कानूनी कार्यवाही का प्रावधान करना। गॉथिया प्रष्न करते है कि संविधान में दिये अधिकारों के अर्तगत ‘भारतीय चर्च’ यह संस्थान किस के लिए चलाना चाहता है?

‘राष्‍ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग’ (एनसीएमईआई) द्वारा सुनाए गए फैसले, और”कैथोलिक बिशप कांफ्रेस ऑफ इंडिया” के ‘शिक्षा एवं संस्कृति आयोग’ द्वारा प्रधानमंत्री के सामने यह तर्क देना कि संविधान में प्रतिशत तय नहीं किया गया है क्या अब इसे यह गंरटी मान लिया जाए कि आप अल्पसंख्यक है, आप अल्पसंख्यक अधिकारों के तहत अपनी मनमर्जी से कानून को ठेंगा देखते हुए अपने शैक्षणिक संस्थान देश के कोने-कोने में खोले और जितना चाहें उतना धन कमाए। देश की राजधानी दिल्ली और इसके आस-पास चर्च सैकड़ों कान्वेंट स्कूल चला रहा है संत कलोम्बस, जीजस एण्ड मेरी, मेतर देई, संत थोमस जैसे सैकड़ों स्कूल अल्पसंख्यक दर्जे के तहत चलाए जा रहे है। क्या कभी सरकार ने यह जानने की कोशिश की कि वहां उनके समुदाय का प्रतिशत कितना है।

यहा एक उदाहरण देना ही काफी होगा राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्ली क्षेत्र में कैथोलिक चर्च द्वारा संचालित संत थोमस स्कूल में 1500 बच्चे पढ़ते है उनमें ईसाई बच्चे 50 से भी कम है इसी तरह देशकी राजधानी दिल्ली के पास खतौली में कोई कैथोलिक परिवार ही नहीं है लेकिन कान्वेंट चल रहा है। अब प्रश्‍न खड़ा होता है कि ‘जहा स्कूल में बच्चे ईसाई नहीं है, अध्यापक ईसाई नहीं है’ तो आप किस ‘धर्म, भाशा’ और संस्कृति के संरक्षण के लिए अल्पसंख्यक अधिकारों का इस्तेमाल कर रहे है? भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों के अधिकार घोशित करते समय अगर कोई कमी रह गई है जिसका की स्वार्थी वर्ग अपने विस्तार के लिए लभ उठा रहे है तो उसे अवश्‍य बदला जाना चाहिए। संविधान का मकसद अल्पसंख्यकों का विकास करना था न कि उनके नाम पर व्यपारिक शैक्षणिक संस्थान चलाने की छूट देना।

3 COMMENTS

  1. बहुत सुन्दर, बधाई. आज देश को आप सरीखे, सच को कहने वाले साहसी और बुद्धिमान नेताओं की ज़रूरत है. पुनः साधुवाद.

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