इतिहास की सलीब पर लटकते जम्मू-कश्मीर के अन्तिम महाराजा हरि सिंह

 डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

IMAGE31इतिहास ने जितना अन्याय जम्मू-कश्मीर के अंतिम महाराजा हरि सिंह के साथ किया उतना शायद किसी अन्य के साथ न किया हो । जम्मू-कश्मीर को लेकर जितना कुछ लिखा गया है शायद भारत की किसी भी रियासत को लेकर इतना न लिखा गया हो । जब किसी विषय पर ज़रुरत से ज़्यादा लिखा , बोला या कहा जाये , स्‍वाभाविक ही संदेह होता है कि या तो सच्चाई को छिपाने का प्रयास किया जा रहा है , या फिर उसे इतना उलझाने का प्रयास किया जा रहा है कि बाद में सत्य तक पहुँचना ही मुश्किल हो जाये । या फिर अपने अपराध बोध से विचलित होकर इतना ज़ोर से चिल्लाया जाता है कि उस शोर में सत्य दब कर रह जाये । अपराध बोध से मुक्ति का एक और तरीक़ा भी होता है । अपने पक्ष में ही दूसरे लोग खड़े कर लिये जायें ताकि भीड देख कर स्वयं को ही लगने लगे कि मेरा पक्ष और निर्णय ठीक था । यह अपनी अन्तरात्मा को दबाने की कठिन साधना ही कही जा सकती है ।

जम्मू कश्मीर को लेकर जब मैं पंडित जवाहर लाल नेहरु के भाषण , आलेख और स्पष्टीकरण पढ़ता हूँ तो वे मुझे एक साथ , ये सभी साधनाएँ करते दिखाई देते हैं ।जम्मू कश्मीर में जो कुछ हो रहा था , उसके लिये किसी न किसी को अपराधी ठहराना ज़रुरी था , ताकि इतिहास का पेट भरा जा सके । इसके लिये महाराजा हरि सिंह से आसान शिकार और कौन हो सकता था , ख़ास कर उस समय , जब उनका अपना बेटा कर्ण सिंह भी उनका साथ छोड़ कर नेहरु के साथ मिल गया हो । बक़ौल कर्ण सिंह नेहरु की लिखी दो किताबें पढ़ कर ही मेरे अन्दर के दरवाज़े खुल गये थे और मुझे ज्ञान की प्राप्ति हो गई थी । हरि सिंह के अपने ही चिराग़-ए-ख़ानदान कर्ण सिंह ज्ञान प्राप्ति के बाद रीजैंट बन गये और हरि सिंह मुम्बई में निष्कासित जीवन जीने के लिये अभिशप्त हुये । लेकिन कम्बख़्त सच्चाई ऐसी चीज़ है जो इन सभी तांत्रिक साधनाओं के बावजूद पीछा नहीं छोड़ती । हर युग का इतिहास साक्षी है कि जब सत्य का सामना करना बहुत मुश्किल हो जाता है तो उससे बचने के लिये किसी न किसी को सलीब पर लटकाना ज़रुरी हो जाता है । बीसवीं शताब्दी में जब जम्मू कश्मीर को लेकर सक्रिय भूमिका निभाने वाले सभी पात्रों के पाप उन्हीं पर भारी पड़ने लगे तो उनके लिये ज़रुरी हो गया था कि उनके झूठ को ही सत्य का दर्जा दे दिया जाये और उनके पाप को ही पुण्य मान लिया जाये । इसलिये किसी न किसी को सलीब पर लटकाया जाना ज़रुरी हो गया था । जिस महाराजा हरि सिंह के हस्ताक्षर से जम्मू कश्मीर रियासत ने देश की संघीय लोकतांत्रिक सांविधानिक व्यवस्था को स्वीकार किया , बाद में उस्तादों ने उन्हीं को कटघरे में खड़ा कर दिया और ख़ुद न्यायाधीश के आसन पर जा बिराजे । दुर्भाग्य से महाराजा हरि सिंह के बारे में अभी तक जो कहा सुना जा रहा है , वह इन्हीं न्यायाधीशों द्वारा न्याय के तमाम सिद्धान्तों को ताक पर रखते हुये , जारी फ़तवे मात्र हैं । सीनाज़ोरी यह कि उन्हीं फ़तवों को इतिहास मानने का आग्रह किया जा रहा है ।

जम्मू कश्मीर रियासत का विलय देश की नई प्रशासनिक व्यवस्था में अंग्रेजों के चले जाने के लगभग दो महीने बाद 26 अक्तूबर 1947 को हुआ । वह भी तब जब रियासत पर कबायलियों के रुप में पाकिस्तानी सेना ने आक्रमण कर दिया और उसके काफ़ी हिस्से पर कब्जा कर लिया । महाराजा ने तब विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये । बाद में इतिहास में यही प्रचारित किया गया कि महाराजा हरि सिंह भारत में शामिल होने के इच्छुक ही नहीं थे और जम्मू कश्मीर को आजाद देश बनाना चाहते थे । इसे भारतीय इतिहास की त्रासदी ही कहा जायेगा कि महाराजा ने भी कभी जनता के सामने अपना पक्ष रखने की कोशिश नहीं की । शेख अब्दुल्ला ने बाद में अपनी आत्मकथा आतिश-ए-चिनार के माध्यम से महाराजा पर और ज्यादा दोषारोपण किया । महाराजा हरि सिंह के पुत्र डा० कर्ण सिंह अवश्य अपने पिता का पक्ष देश के सामने रख सकते थे लेकिन उससे पंडित जवाहर लाल नेहरु के नाराज होने का ख़तरा था जिससे उनकी भविष्य की राजनीति गड़बड़ा सकती थी । वैसे भी कर्ण सिंह संकट काल में अपने पिता का साथ छोड़कर नेहरु के साथ हो लिये थे क्योंकि उनके पिता हरि सिंह अब भूतकाल थे और नेहरु भविष्य । कर्ण सिंह अपने पिता को सामन्ती परम्परा की खुरचन बताते हैं और स्वयं को लोकतांत्रिक व्यवस्था का अनुयायी । अपने इसी लोकतांत्रिक प्रेम को वे हरि सिंह का साथ छोड़ देने का मुख्य कारण बताते हैं । लेकिन ताज्जुब है उसी सामन्ती परम्परा के प्रसाद के रुप में वे सालों साल सदरे रियासत और राज्यपाल का पद भोगते रहे ।

इसमें अब कोई शक नहीं कि ब्रिटेन सरकार हर हालत में जम्मू कश्मीर रियासत पाकिस्तान को देना चाहती थी । लेकिन उनके दुर्भाग्य से भारत स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ के माध्यम से वे केवल ब्रिटिश भारत का विभाजन कर सकती थी , भारतीय रियासतों का नहीं । महाराजा हरि सिंह पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिये। दबाव डालने के लिय े लार्ड माँऊटबेटन १५ अगस्त से दो मास पहले श्रीनगर भी गये थे । महाराजा पाकिस्तान में शामिल होने लिये तैयार नहीं थे और अंतिम दिन तो उन्होंने दबाव से बचने के लिये माँऊंटबेटन से मिलने से ही इन्कार कर दिया था । महाराजा कहीं रियासत को भारत में न मिला दे,इसको रोकने के लिये ब्रिटेन ने पंद्रह अगस्त तक भारत और पाक की सीमा ही घोषित नहीं की और अस्थाई तौर पर गुरदासपुर ज़िला पाकिस्तान की सीमा में घोषित कर दिया । इस तकनीक के बहाने महाराजा पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिये परोक्ष दबाव ही डाला जा रहा था, लेकिन वे इस दबाव में नहीं आये । उन्होंने कहा किश्तवाड को हिमाचल प्रदेश के चम्बा से जोड़ने वाली सड़क बना ली जायेगी । लेकिन सीमा आयोग की रपट को लार्ड माँऊटबेटन आखिर बहुत देर तक तो दबा नहीं सकते थे । जब सीमा आयोग की रपट आई तो शकरगढ़ तहसील को छोडंकर सारा गुरदासपुर ज़िला भारत में था और इस प्रकार जम्मू कश्मीर रियासत सड़क मार्ग से पंजाब से जुड़ती थी । हरि सिंह एक ओर से निश्चिंत हो गये ।

इस पृष्ठभूमि में इस प्रश्न पर विचार करना आसान होगा कि महाराजा ने रियासत को भारत में शामिल करने में इतनी देर क्यों की ? इस मरहले पर नेहरू और शेख अब्दुल्ला की भूमिका सामने आती है । ब्रिटिशकाल में रियासतों में काँग्रेस ने अपनी शाखायें नहीं खोली थीं जबकि मुस्लिमलीग की शाखा प्राय प्रत्येक रियासत में थी । रियासतों में राजाओं के अत्याचारी शासन के खिलाफ़ लोगों ने प्रजा मंडल के नाम से संगठन बनाये हुये थे जिनका संघर्ष का शानदार इतिहास है । मुस्लिम सांप्रदायिकता की केन्द्रस्थली अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्र शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर में प्रजा मंडल के नाम से नहीं बल्कि मुस्लिम कान्फ्रेंस के नाम से आन्दोलन शुरू किया लेकिन वह राजाशाही के खिलाफ़ न होकर डोगरों के खिलाफ़ था । शेख अब्दुल्ला का नारा राजाशाही का नाश नहीं था बल्कि डोगरो कश्मीर छोड़ो था । मतलब साफ था कि डोगरों का राज कश्मीर से समाप्त होना चाहिये , राज्य के अन्य संभागों में रहता है तो शेख को कोई एतराज नहीं था । वैसे तो अब्दुल्ला चाहते तो मुस्लिम लीग ही बना सकते थे लेकिन मुस्लिम नेतृत्व को लेकर अब्दुल्ला और जिन्ना में जिस कदर टकराव था उसमें यह संभव ही नहीं था । जिन्ना अपने आप को पूरे दक्षिण एशिया के मुस्लमानों का नेता मानने लगे थे । उनकी नज़र में शेख अब्दुल्लाल की हैसियत स्थानीय नेता से ज्यादा नहीं थी, फिर ब्रिटिश सरकार भी जिन्ना के पक्ष में ही थी । उधर अब्दुल्ला भी दोयम दर्जा स्वीकार करने को तैयार नहीं थे । लेकिन शेख अब्दुल्ला को डोगरों के खिलाफ़ अपनी इस लड़ाई में किसी न किसी की सहायता तो चाहिये ही थी ।जिन्ना के कट्टर विरोधी जवाहर लाल नेहरू से ज्यादा उपयोगी भला इस मामले में और कौन हो सकता था ? लेकिन उसके लिये ज़रूरी था कि अब्दुल्ला पंथ निरपेक्ष और समाजवादी प्रगतिवादी शक्ल में नज़र आते ।

इस मौके पर साम्यवादी तत्वों की अब्दुल्ला के साथ संवाद रचना महत्वपूर्ण है ।साम्यवादी नहीं चाहते थे कि रियासत का भारत में विलय हो । रियासत की सीमा रूस और चीन के साथ लगती है और साम्यवादी पार्टी चीन के साथ मिल कर ही उन दिनों भारत में सशस्त्र क्रांति के सपने देख रही थी । उनकी दृष्टि में इस क्रांति की शुरूआत कश्मीर से ही हो सकती थी । इसके लिये ज़रूरी था या तो कश्मीर आजाद रहता या शेख अब्दुल्ला के कब्जे में । तभी साम्यवादियों का क्रांति का सपना पूरा हो सकता था । वैसे भी साम्यवादी उन दिनों पूरे हिन्दोस्तान को वििभन्न राष्ट्रियताओं का जमावडा ही मानते थे और उस नाते कश्मीर की आजादी के सबसे बडे पक्षधर थे । शेख अब्दुल्ला और साम्यवादियों ने इस प्रकार एक दूसरे का प्रयोग अपने अपने हित के लिये करना शुरू किया । शेख अब्दुल्ला को तो इसका तुरन्त लाभ हुया । नेहरू की दृष्टि में अब्दुल्ला समाजवादी बन गये जबकि श्रीनगर की मस्जिद में वे िहन्दुओं के खिलाफ़ पहले की तरह ही जहर उगलते थे ।

पंडित नेहरु को महाराजा से अपना पुराना हिसाब चुकता करना था । कुछ महीने पहले ही कश्मीर की सीमा पर खडे होकर नेहरु ने कश्मीर के राज्यपाल को कहा था ,” तुम्हारा राजा कुछ दिन बाद मेरे पैरों पड कर गिडगिडायेगा ।” शायद महाराजा का कसूर केवल इतना था कि १९३१ में ही उन्होंने लंदन में हुई गोल मेज कान्फ्रेंस में ब्रिटेन की सरकार को कह दिया था कि ,” हम भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में एक साथ हैं ।” उस वक्त वे किसी रियासत के राजा होने के साथ साथ एक आम गौरवशाली हिन्दुस्तानी के दिल की आवाज की अभिव्यक्ति कर रहे थे । हरि सिंह ने तो उसी वक्त अप्रत्यक्ष रुप से बता दिया था कि भारत की सीमाएं जम्मू कश्मीर तक फैली हुई हैं । लेकिन पंडित नेहरु १९४७ में भी इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं थे । वे अडे हुये थे कि जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा तभी माना जायेगा जब महाराजा हरिसिंह सत्ता शेख अब्दुला को सौंप देंगे । ऐसा और किसी भी रियासत में नहीं हुआ था । शेख इतनी बडी रियासत में केवल कश्मीर घाटी में भी कश्मीरी भाषा बोलने वाले केवल सुन्नी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते थे । बिना किसी चुनाव या लोकतांत्रिक पद्धति से शेख को सत्ता सौंप देने का अर्थ लोगों की इच्छा के विपरीत एक नई तानाशाही स्थापित करना ही था । नेहरु तो विलय की बात हरि सिंह की सरकार से करने के लिये भी तैयार नहीं थे । विलय पर निर्णय लेने के लिये वे केवल शेख को सक्षम मानते थे , जबकि वैधानिक व लोकतांत्रिक दोनों दृष्टियों से यह गलत था । महाराजा इस शर्त को मानने के लिये किसी भी तरह तैयार नहीं थे । नेहरु चाहते थे कि हरि सिंह उसके पैरों पर गिर कर गिडगिडायें, लेकिन इतना तो कर्ण सिंह भी मानेंगे कि उस वक्त तक डोगरा राजवंश में अभी यह बीमारी आई नहीं थी । नेहरू का दुराग्रह इस सीमा तक बढ़ा कि उन्होंने अब्दुल्ला की खातिर कश्मीर को भी दाँव पर लगा दिया ।माऊंटबेटन के खासुलखास रहे और उस वक़्त रियासती मंत्रालय के सचिव वी.पी.मेनन के अनुसार , हमारे पास उस समय कश्मीर की ओर ध्यान देने का समय ही नहीं था । दिल्ली के पास महाराजा से बात करने का समय ही नहीं था और नेहरु शेख के सिवा किसी से बात करने को तैयार ही नहीं थे , उस वक़्त पूरी योजना से अफ़वाहें फैलाना शुरु कर दीं कि महाराजा तो जम्मू कश्मीर को आज़ाद देश बनाना चाहते हैं । कहानी होगा कि सरकारी इतिहासकारों ने इन अफ़वाहों को हाथों हाथ लिया और इसे ही इतिहास घोषित करने में अपना तमाम कौशल लगा दिया । जब की असलियत यह थी कि नेहरु के लखत-ए-जिगर शेख अब्दुल्ला ही रियासत को आजाद देश बनाना चाहते थे । खतरा उनको इतना ही था कि आजाद जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान ज्यादा देर आजाद रहने नहीं देगा और उस पर कब्जा कर लेगा । इसलिये अपने स्वपनों के आजाद जम्मू कश्मीर को स्थायी रुप से आजाद रखने के लिये शेख को केवल भारतीय सेना की सुरक्षा चाहिये थी और इसी के लिये वे जवाहर लाल नेहरु की मूंछ के बाल बन कर घूम रहे थे । इतना ही नहीं जब पाकिस्तान ने रियासत पर हमला ही कर दिया और उसका काफ़ी भूभाग जीत लिया तब भी पंडित नेहरू रियासत का विलय भारत में स्वीकारने के लिये तैयार नहीं हुये । उनकी शर्त राष्ट्रीय संकट की इस घडी में भी वही थी कि पहले सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंप दो तभी जम्मू कश्मीर का भारत में विलय स्वीकारा जायेगा और सेना भेजी जायेगी । यही कारण था कि महाराजा को विलय पत्र के साथ अलग से यह भी लिख कर देना पड़ा कि अब्दुल्ला को आपातकालीन प्रशासक बनाया जा रहा है । एक बार हाथ में सत्ता आ जाने के बाद उसने क्या क्या नाच नचाये, यह इतिहास सभी जानते हैं । अब्दुल्ला ने नेहरू के साथ मिल कर महाराजा हरि सिंह को रियासत से ही निष्कासित करवा दिया और मुम्बई में गुमनामी के अन्धेरे में ही उनकी मृत्यु हुई ।

महाराजा हरि सिंह एक साथ तीन तीन मोर्चों पर अकेले लड रहे थे । पहला मोर्चा भारत के गवर्नर जनरल और ब्रिटिश सरकार का था जो उन पर हर तरह से दबाव ही नहीं बल्कि धमका भी रहा था कि रियासत को पाकिस्तान में शामिल करो । दूसरा मोर्चा मुस्लिम कान्फ्रेस और पाकिस्तान सरकार का था जो रियासत को पाकिस्तान में शामिल करवाने के लिये महाराजा को बराबर धमका रही थी और जिन्ना २६ अक्तूबर १९४७ को ईद श्रीनगर में मनाने की तैयारियों में जुटे हुये थे । तीसरा मोर्चा जवाहर लाल नेहरु और उनके साथियों का था जो रियासत के भारत में विलय को तब तक रोके हुये थे , जब तक महाराजा शेख के पक्ष में गद्दी छोड़ नहीं देते । नेहरु ने तो यहाँ तक कहा कि यदि पाकिस्तान श्रीनगर पर भी क़ब्ज़ा कर लेता है तो भी बाद में हम उसको छुड़ा लेंगे , लेकिन जब तक महाराजा शेख की ताजपोशी नहीं कर देते तब तक रियासत का भारत में विलय नहीं हो सकता । इसे त्रासदी ही कहा जायेगा , जब महाराजा अकेले इन तीन तीन मोर्चों पर लड रहे थे तो उनका अपना बेटा , जिसे वे सदा टाईगर कहते थे , उन्हें छोड़ कर नेहरु के मोर्चे में शामिल हो गया ।

महाराजा हरि सिंह ने माँऊटबेटन के प्रयासों को असफल करते हुये रियासत को भारत में मिलाने के लिये जो संघर्ष किया उसे इतिहास में से मिटाने का प्रयास हो रहा है । जून १९४७ में लार्ड माऊंटबेटन का श्रीनगर जाकर हरि सिंह से बात करने को इतिहास में जिस गलत तरीके से लिखा गया है और अभी भी पेश किया जा रहा है , उसे पढ कर दुख होता है । माऊंटबेटन के ब्रिटिश जीवनीकार लिखें यह समझ में आता है , लेकिन भारतीय इतिहासकार भी उसी की जुगाली कर रहे हैं । माऊंटबेटन हरि सिंह के पुराने परिचित थे । वे विभाजन पूर्व हरि सिंह को समझाने के लिये श्रीनगर गये । आध्कारिक इतिहास के अनुसार उन्होंने हरि सिंह को कहा कि १५ अगस्त से पहले पहले आप किसी भी राज्य भारत या पाकिस्तान में शामिल हो जाओ । यदि १५ अगस्त तक किसी भी देश में न शामिल हुये तो तुम्हारे लिये समस्याएं पैदा हो जायेंगीं । ऊपर से देखने पर यह सलाह बहुत ही निर्दोष लगती है । इस पृष्ठभूमि में कोई भी कह सकता है कि रियासत में जो घटनाक्रम हुआ उस का कारण महाराजा का १५ अगस्त तक निर्णय न ले पाना ही नहीं था । लेकिन यह उतना सच है जितना दिखाई देता है । छिपा हुआ सच कहीं ज्यादा कष्टकारी है । माऊंटबेटन भारत सरकार से यह आश्वासन लेकर गये थे कि यदि महाराजा हरि सिंह पाकिस्तान में शामिल होते हैं तो उनको कोई एतराज नहीं होगा । परोक्ष रुप से माऊंटबेटन हरि सिंह को गारंटी दे रहे थे कि पाकिस्तान में शामिल होने के लिये भारत सरकार से डरने की जरुरत नहीं है । इसके साथ माऊंटबेटन ने एक और शर्त लगाई कि किसी देश में भी शामिल होने से पहले प्रजा की राय लेना बहुत जरुरी है । ताज्जुब है माऊंटबेटन यही सलाह अपने दूसरे मित्र हैदराबाद के नबाब को नहीं दे रहे थे , जिसके सेनाएँ भारत की सेना से भिड़ने की तैयारी कर रही थी । माऊंटबेटन के लिये प्रजा कि राय जानने का स्पष्ट अर्थ यही था कि हर हालत में पाकिस्तान में शामिल हो जाओ । एक संकेत और भी कर दिया कि पाकिस्तान की संविधान सभा भी गठित हो जाने दो । माऊंटबेटन स्पष्ट ही रियासत को पाकिस्तान में शामिल करवाने के लिये महाराजा की घेराबन्दी कर रहे थे । जब हरि सिंह ने उस घेराबन्दी को तोड दिया तो माऊंटबेटन ने गुस्से में हरि सिंह के बारे में कहा,”ब्‍लडी बास्टर्ड” । वैसे तो यह गाली ही हरि सिंह की भारत भक्ति का सबसे बडा प्रमाण पत्र है । यदि नेहरु इस ज़िद पर न अडे रहते कि विलय से पूर्व सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंपी जाये , तो रियासत का विलय भारत में १५ अगस्त १९४७ से पहले ही हो जाता और राज्य का इतिहास दूसरी तरह लिखा जाता । बाद में किसी ने ठीक ही टिप्पणी की कि महाराजा हरि सिंह ने तो पूरे का पूरा राज्य दिया था , लेकिन नेहरु ने उतना ही रखा जितना शेख अब्दुल्ला को चाहिये था ,बाक़ी उन्होंने पाकिस्तान के पास ही रहने दिया ।

माऊंटबेटन और उसकी जीवनी लेखकों ने तो कभी इस बात को नहीं छिपाया कि उनकी रुचि रियासत को पाकिस्तान में मिलाने की थी । लेकिन नेहरु और उनके जीवनीकारों ने सदा ही रियासत के मामले में की गई अपनी गल्तियों को महाराजा हरि सिंह के मत्थे मढ़ने के सफल प्रयास किये । इसे हरि सिंह के ह्रदय की विशालता ही कहना होगा कि वे मुम्बई में चुपचाप अपमान के इस विष को पीते रहे लेकिन उन्होंने अन्तिम श्वास तक अपना मुँह नहीं खोला । शेख मुहम्मद अब्दुल्ला की तरह किसी मोहम्मद युसफ टेंग को पास बिठा कर अपनी जीवनी भी नहीं लिखवाई । मुम्बई में टेंगों की कमी तो नहीं थी । लेकिन यदि हरि सिंह किसी टेंग को पास बिठा लेते तो यक़ीनन नेहरु इतिहास के कटघरे में खड़े होते । नेहरु को कटघरे में खड़ा करने की बजाय हरि सिंह ने ख़ुद उस कटघरे में खड़ा होना स्वीकार कर लिया । मुझे लगता है अब समय आ गया है कि महाराजा हरि सिंह को सलीब से उतारकर इतिहास में उन्हें उनका सम्मानजनक स्थान दिया जाये ।

7 COMMENTS

  1. इतिहास की इन छुपी हुई सच्चाईयों को लिपिबद्ध करके देश की नई पीढ़ी के सामने उजागर करने का समय और माहौल भी आ चुका है
    कृपया करके मीडिया के विभिन्न माध्यमों से इसे क्रमिक प्रसारित और प्रचारित किया जाए
    आपके लेखो को पढ़कर महसूस हो रहा है कि देश बहुत ही गहरी साजिशों से गुजर कर इस मुकाम तक पहुंचा है।

  2. सच्चाई से रूबरू करवाने के लिए आपको कोटि-कोटि धन्यवाद

  3. यह टिप्पणी भी साथ पढ़े
    कश्मीर पूरा सच सामने आ जायेगा
    यह कबायली आक्रमण की घटना हुयी।
    पाकिस्तान ने कब्ज़ा किया।
    उस समय मोहनदास करमचंद गांधी जिन्दा थे
    उनका कोई वक्तव्य कोई कथन किसी ने कही पढ़ा ?
    सुना ?
    देखा ?
    तो बताये
    परन्तु उसके बाद भी गांधी पाकिस्तान को करोडो रूपये दिलवाने के लिए अनशन पर बैठे।

    वह सर्वविदित है कि पं॰ नेहरू तथा माउन्टबेटन के परस्पर विशेष सम्बंध थे, जो किसी भी भारतीय कांग्रेसी या मुस्लिम नेता के आपस में न थे। पंडित नेहरू के प्रयासों से ही माउन्टबेटन को स्वतंत्र भारत का पहला गर्वनर जनरल बनाया गया, जबकि जिन्ना ने माउन्टबेटन को पाकिस्तान का पहला गर्वनर जनरल मानने से साफ इन्कार कर दिया, जिसका माउन्टेबटन को जीवन भर अफसोस भी रहा। माउन्टबेटन २४ मार्च १९४७ से ३० जून १९४८ तक भारत में रहे। इन पन्द्रह महीनों में वह न केवल संवैधानिक प्रमुख रहे बल्कि भारत की महत्वपूर्ण नीतियों का निर्णायक भी रहे। पं॰ नेहरू उन्हें सदैव अपना मित्र, मार्गदर्शक तथा महानतम सलाहकार मानते रहे। वह भी पं॰ नेहरू को एक “शानदार”, “सर्वदा विश्वसनीय” “कल्पनाशील” तथा “सैद्धांतिक समाजवादी” मानते रहे।

    कश्मीर के प्रश्न पर भी माउन्टबेटन के विचारों को पं॰ नेहरू ने अत्यधिक महत्व दिया। पं॰ नेहरू के शेख अब्दुल्ला के साथ भी गहरे सम्बंध थे। शेख अब्दुल्ला ने १९३२ में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम.एस.सी किया था। फिर वह श्रीनगर के एक हाईस्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए, परन्तु अनुशासनहीनता के कारण स्कूल से हटा दिये गये। फिर वह कुछ समय तक ब्रिटिश सरकार से तालमेल बिठाने का प्रयत्न करते रहे। आखिर में उन्होंने १९३२ में ही कश्मीर की राजनीति में अपना भाग्य आजमाना चाहा और “मुस्लिम क्फ्रोंंस” स्थापित की, जो केवल मुसलमानों के लिए थी। परन्तु १९३९ में इसके द्वार अन्य पंथों, मजहबों के मानने वालों के लिए भी खोल दिए गए और इसका नाम “नेशनल कान्फ्रेंस” रख दिया तथा इसने पंडित नेहरू के प्रजा मण्डल आन्दोलन से अपने को जोड़ लिया। शेख अब्दुल्ला ने १९४० में नेशनल क्फ्रोंंस के सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में पंडित नेहरू को बुलाया था। शेख अब्दुल्ला से पं॰ नेहरू की अंधी दोस्ती और भी गहरी होती गई। शेख अब्दुल्ला समय-समय पर अपनी शब्दावली बदलते रहे और बाद में भी नेहरू परिवार के साथ शेख अब्दुल्ला के परिवार की यही दोस्ती चलती रही। श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और अब राहुल गांधी की दोस्ती क्रमश: शेख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला तथा वर्तमान में उमर अब्दुल्ला से चल रही है।
    दुर्भाग्य से कश्मीर के महाराजा हरि सिंह (१९२५-१९४७) से न ही शेख अब्दुल्ला के और न ही पंडित नेहरू के सम्बंध अच्छे रह पाए। महाराजा कश्मीर शेख अब्दुल्ला की कुटिल चालों, स्वार्थी और अलगाववादी सोच तथा कश्मीर में हिन्दू-विरोधी रवैये से परिचित थे। वे इससे भी परिचित थे कि “क्विट कश्मीर आन्दोलन” के द्वारा शेख अब्दुल्ला महाराजा को हटाकर, स्वयं शासन संभालने को आतुर है। जबकि पं॰ नेहरू भारत के अंतरिम प्रधानमंत्री बन गए थे, तब एक घटना ने इस कटुता को और बढ़ा दिया था। शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर की एक कांफ्रेस में पंडित नेहरू को आने का निमंत्रण दिया था। इस कांफ्रेंस में मुख्य प्रस्ताव था महाराजा कश्मीर को हटाने का। मजबूर होकर महाराजा ने पं॰ नेहरू से इस कांफ्रेस में न आने को कहा। पर देश भक्त हरी सिंह को सबक सिखाने के लिए नेहरू कश्मीर जाने के लिए निकले परन्तु नेहरू को जम्मू में ही श्रीनगर जाने से पूर्व रोक दिया गया। पं॰ नेहरू ने इसे अपना अपमान समझा तथा वे इसे जीवन भर न भूले। इसका बदला लेने के लिए पाकिस्तानी फ़ौज व कबायली आक्रमण के समय राजा हरी सिंह को सबक सिखाने के उद्देश्य से नेहरु जी ने भारतीय सेना को भेजने में जानबूझ के देरी की, जिससे कश्मीर का दो तिहायी हिस्सा पाकिस्तान कब्ज़ाने में सफल रहा। इस घटना से शेख अब्दुल्ला को दोहरी प्रसन्नता हुई। इससे वह पं॰ नेहरू को प्रसन्न करने तथा महाराजा को कुपित करने में सफल हुआ।
    जिन्ना कश्मीर तथा हैदराबाद पर पाकिस्तान का आधिपत्य चाहते थे। उन्होंने अपने सैन्य सचिव को तीन बार महाराजा कश्मीर से मिलने के लिए भेजा। तत्कालीन कश्मीर के प्रधानमंत्री काक ने भी उनसे मिलाने का वायदा किया था। पर महाराजा ने बार-बार बीमारी का बहाना बनाकर बातचीत को टाल दिया। जिन्ना ने गर्मियों की छुट्टी कश्मीर में बिताने की इजाजत चाही थी। परन्तु महाराजा ने विनम्रतापूर्वक इस आग्रह को टालते हुए कहा था कि वह एक पड़ोसी देश के गर्वनर जनरल को ठहराने की औपचारिकता पूरी नहीं कर पाएंगे। दूसरी ओर शेख अब्दुल्ला गद्दी हथियाने तथा इसे एक मुस्लिम प्रदेश (देश) बनाने को आतुर थे। पं॰ नेहरू भी अपमानित महसूस कर रहे थे। उधर माउंटबेटन भी जून मास में तीन दिन कश्मीर रहे थे। शायद वे कश्मीर का विलय पाकिस्तान में चाहते थे, क्योंकि उन्होंने मेहरचन्द महाजन से कहा था कि “भौगोलिक स्थिति” को देखते हुए कश्मीर के पाकिस्तान का भाग बनना उचित है। इस समस्त प्रसंग में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका श्री गुरुजी (माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर) ने निभाई। वे महाराजा कश्मीर से बातचीत करने १८ अक्टूबर को श्रीनगर पहुंचे। विचार-विमर्श के पश्चात महाराजा कश्मीर अपनी रियासत के भारत में विलय के लिए पूरी तरह पक्ष में हो गए थे।
    यह है नेहरू के कारनामे

    जब षड्यंत्रों से बात नहीं बनी तो पाकिस्तान ने बल प्रयोग द्वारा कश्मीर को हथियाने की कोशिश की तथा २२ अक्टूबर १९४७ को सेना के साथ कबाइलियों ने मुजफ्फराबाद की ओर कूच किया। लेकिन कश्मीर के नए प्रधानमंत्री मेहरचन्द्र महाजन के बार-बार सहायता के अनुरोध पर भी भारत सरकार उदासीन रही। । कश्मीर के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने बिना वर्दी के २५० जवानों के साथ पाकिस्तान की सेना को रोकने की कोशिश की तथा वे सभी वीरगति को प्राप्त हुए। आखिर २४ अक्टूबर को माउन्टबेटन ने “सुरक्षा कमेटी” की बैठक की परन्तु बैठक में महाराजा को किसी भी प्रकार की सहायता नहींदेने का निर्णय किया गया। २६ अक्टूबर को पुन: कमेटी की बैठक हुई। अध्यक्ष माउन्टबेटन अब भी महाराजा के हस्ताक्षर सहित विलय प्राप्त न होने तक किसी सहायता के पक्ष में नहीं थे। आखिरकार २६ अक्टूबर को सरदार पटेल ने अपने सचिव वी.पी. मेनन को महाराजा के हस्ताक्षर युक्त विलय दस्तावेज लाने को कहा। सरदार पटेल स्वयं वापसी में वी.पी. मेनन से मिलने हवाई अड्डे पहुंचे। विलय पत्र मिलने के बाद २७ अक्टूबर को हवाई जहाज द्वारा श्रीनगर में भारतीय सेना भेजी गई।

    ‘दूसरे, जब भारत की विजय-वाहिनी सेनाएं कबाइलियों को खदेड़ रही थीं। सात नवम्बर को बारहमूला कबाइलियों से खाली करा लिया गया था परन्तु पं॰ नेहरू ने शेख अब्दुल्ला तथा माउंट बेटन की सलाह पर तुरन्त युद्ध विराम कर दिया। परिणामस्वरूप कश्मीर का एक तिहाई भाग जिसमें मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलागित आदि क्षेत्र आते हैं, पाकिस्तान के पास रह गए, जो आज भी “पाक अधिकृत कश्मीर” के नाम से पुकारे जाते हैं।

    तीसरे, माउन्टबेटन की सलाह पर पं॰ नेहरू एक जनवरी, १९४८ को कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में ले गए।
    पं॰ नेहरू ने तब की जबकि देश के अनेक नेताआें के विरोध के बाद भी, शेख अब्दुल्ला की सलाह पर भारतीय संविधान में धारा ३७० जुड़ गई। न्यायाधीश डी.डी. बसु ने इस धारा को असंवैधानिक तथा राजनीति से प्रेरित बतलाया। डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर ने इसका विरोध किया तथा स्वयं इस धारा को जोड़ने से मना कर दिया। इस पर प्रधानमंत्री पं॰ नेहरू ने रियासत राज्यमंत्री गोपाल स्वामी आयंगर द्वारा १७ अक्टूबर १९४९ को यह प्रस्ताव रखवाया। इसमें कश्मीर के लिए अलग संविधान को स्वीकृति दी गई जिसमें भारत का कोई भी कानून यहां की विधानसभा द्वारा पारित होने तक लागू नहीं होगा। दूसरे शब्दों में दो संविधान, दो प्रधान तथा दो निशान को मान्यता दी गई। कश्मीर जाने के लिए परमिट की अनिवार्यता की गई। शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्री बने। वस्तुत: इस धारा के जोड़ने से बढ़कर दूसरी कोई भयंकर गलती हो नहीं सकती थी।

    शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का “प्रधानमंत्री” बनाकर की। उसी काल में देश के महान राजनेता डॉ॰ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दो विधान, दो प्रधान, दो निशान के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन किया। वे परमिट व्यवस्था को तोड़कर श्रीनगर गए जहां जेल में उनकी हत्या कर दी गई। । शेख अब्दुल्ला को कारागार में डाल दिया गया लेकिन पं॰ नेहरू ने अपनी मृत्यु से पूर्व अप्रैल, १९६४ में उन्हें पुन: रिहा कर दिया।

    और नेहरू के बाद
    शेख परिवार पर कोई टिप्पणी नहीं करता हू
    परन्तु बाद में शेख उसके परिवार को नेहरू राजवंश का समर्थन मिला।
    कांग्रेस इसके नेता यह मानते रहे की पाकिस्तान को खुश रखने से भारतीय मुसलमान राजी रहेगा
    सो कांग्रेस इसके नेता पाकिस्तान परस्त रहे
    सो शेख की बाते मानना भी इसका नमूना था
    1965 के युद्ध के समय भारतीय सेना ने बहुत बड़ा भूभाग पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का जीता था
    परन्तु उसे वापस देकर उसे पाकिस्तान के आधिपत्य का स्वीकार किया गया।
    ताशकंद समझोता हुआ
    सारी जीती भूमि वापस दी गयी
    परन्तु कच्छ का सर क्रीक द्वीप की जितनी जमीन में पाकिस्तान घुसा था उसे वापस नहीं किया
    और वह विवादास्पद बन गया।
    1971 का युद्ध लगभग एक लाख युद्ध बंदी
    6000 वर्ग मिल इलाका भारत के कब्जे में था
    1972 शिमला समझोता
    यह सारा दिया परन्तु पश्चिमी पंजाब और जम्मू के पास छम्ब में पाकिस्तान ने कब्जे किया 200 वर्गमील इलाका वापस नहीं किया
    हम बोले तक नहीं
    शिमला समझोते की धारा 4 के द्वारा पाकिस्तान को कश्मीर वार्ता में एक पक्ष स्वीकार किया
    जबकि पहले यह नहीं था
    उसके बाद अभी तक कांग्रेस के नेता पाकिस्तान समर्थक वक्तव्य देते रहते है

  4. यह मेरी टिप्पणी है जो कुलदीप चंद जी के आलेख पर लिख रहा हू
    देश के दुर्भाग्य से विशेषकर इस देश के सनातन समाज के हत भाग्य से जवाहर लाल नेहरू नामक व्यक्ति देश का प्रधान मंत्री बना।
    जो कश्मीर के विषय में वही सोचता था जो शेख अब्दुल्ला ,साम्यवादी और माउंट बेटन सोचते थे।
    उसे मतलब जवाहर लाल नेहरू को भारत की अखंडता एकता से कोई लगाव नहीं था
    लेना देना नहीं था।
    माउंट बेटन की योजना नेहरू की सहमति से कश्मीर पाकिस्तान को दिया जावे यह तय थी
    इसमें बाधा के रूप में महाराजा हरी सिंह खड़े थे कारण वे देश भक्त थे
    शेख अब्दुल्ला को कोई अपना दुश्मन संख्या एक नजर आता था
    तो वह महाराजा हरी सिंह थे
    और जो शेख का दुश्मन वह नेहरू का भी दुश्मन होगा
    और जिसे नेहरू पसंद नहीं करे
    उसे माउंट बेटन तो पसंद कर ही नहीं सकता था
    अब नेहरू की भारत भक्ति पर सवाल खड़े करते कुछ तथ्य है
    शेख अब्दुल्ला जो नेहरू का प्रिय था
    उसका प्रतिनिधि मंडल 5 अक्टुम्बर 1947 को जिन्ना से मिलने लाहोर गया परन्तु जिन्ना ने शेख को कोई आश्वासन नहीं दिया
    उल्टा टरका दिया की कश्मीर मेरा है और मेरा ही होगा।
    इसके बाद जिन्ना ने नेहरू के अपरोक्ष सहयोग तथा माउंट बेटन की मौन वास्तविक सहमति के आधार पर कश्मीर हड़पने की योजना बनाई।
    10 अक्टूंबर 1947 तक पाकिस्तान कश्मीर में कुछ करेगा
    यह कई लोगो को पता लग गया था
    20 अक्टूंबर 1947 की रात पाकिस्तानी सेना जिसे कबायली नाम दिया गया
    किशन गंगा का पुल पार कर भारत की सीमा में घुस आई।
    यह आक्रमण ऐटबाबाद के रस्ते हुआ था

    उड़ी में कर्नल नारायण सिंह को उसके मुसलमान संतरी ने गोली मार दी थी
    उड़ी में ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह ने इस कबायली सेना को पुरे 24 घंटे अटका दिया।
    उसका बलिदान हुआ पर आज जो कश्मीर बचा है
    उसमे इस व्यक्ति का योगदान नहीं भुलाया जा सकता है

    23 अक्टूंबर को संघ आरएसएस के श्रीनगर के लगभग 1000 से अधिक स्वयं सेवक बलराज मधोक ,हरीश भनोट
    (7 सितम्बर 1964 को चंडीगढ़ के हरीश भनोत जी के यहाँ जब एक बच्ची का जन्म हुआ था तो किसी ने भी नहीं सोचा था कि भारत का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान इस बच्ची को मिलेगा। बचपन से ही इस बच्ची को वायुयान में बैठने और आकाश में उड़ने की प्रबल इच्छा थी। नीरजा ने अपनी वो इच्छा एयर लाइन्स पैन एम ज्वाइन करके पूरी की। 16 जनवरी 1986 को नीरजा को आकाश छूने वाली इच्छा को वास्तव में पंख लग गये थे। नीरजा पैन एम एयरलाईन में बतौर एयर होस्टेस का काम करने लगी।

    5 सितम्बर 1986 की वो घड़ी आ गयी थी जहाँ नीरजा के जीवन की असली परीक्षा की बारी थी। पैन एम 73 विमान करांची, पाकिस्तान के हवाई अड्डे पर अपने पायलेट का इंतजार कर रहा था। विमान में लगभग 400 यात्री बैठे हुये थे। अचानक 4 आतंकवादियों ने पूरे विमान को गन प्वांइट पर ले लिया। उन्होंने पाकिस्तानी सरकार पर दबाव बनाया कि वो जल्द से जल्द विमान में पायलट को भेजे। किन्तु पाकिस्तानी सरकार ने मना कर दिया। तब आतंकियों ने नीरजा और उसकी सहयोगियों को बुलाया कि वो सभी यात्रियों के पासपोर्ट एकत्रित करें ताकि वो किसी अमेरिकन नागरिक को मारकर पाकिस्तान पर दबाव बना सके। नीरजा ने सभी यात्रियों के पासपोर्ट एकत्रित किए और विमान में बैठे 5 अमेरिकी यात्रियों के पासपोर्ट छुपाकर बाकी सभी आतंकियों को सौंप दिये। उसके बाद आतंकियों ने एक ब्रिटिश को विमान के गेट पर लाकर पाकिस्तान सरकार को धमकी दी कि यदि पायलट नहीं भेजा तो वह उसको मार देंगे। किन्तु नीरजा ने उस आतंकी से बात करके उस ब्रिटिश नागरिक को भी बचा लिया।

    धीरे-धीरे 16 घंटे बीत गए। पाकिस्तान सरकार और आतंकियों के बीच बात का कोई नतीजा नहीं निकला। अचानक नीरजा को ध्यान आया कि वायुयान का ईंधन किसी भी समय समाप्त हो सकता है और उसके बाद अंधेरा हो जायेगा। जल्दी उसने अपनी सहपरिचायिकाओं को यात्रियों को खाना बांटने के लिए कहा और साथ ही विमान के आपातकालीन द्वारों के बारे में समझाने वाला कार्ड भी देने को कहा। नीरजा को पता लग चुका था कि आतंकवादी सभी यात्रियों को मारने की सोच चुके हैं। उसने सर्वप्रथम खाने के पैकेट आतंकियों को ही दिए क्योंकि उसका सोचना था कि भूख से पेट भरने के बाद शायद वो शांत दिमाग से बात करें। इसी बीच सभी यात्रियों ने आपातकालीन द्वारों की पहचान कर ली। नीरजा ने जैसा सोचा था वही हुआ। प्लेन का फ्यूल समाप्त हो गया और चारों ओर अंधेरा छा गया। नीरजा तो इसी समय का इंतजार कर रही थी। तुरन्त उसने विमान के सारे आपातकालीन द्वार खोल दिये। योजना के अनुरूप ही यात्री तुरन्त उन द्वारों से नीचे कूदने लगे। वहीं आतंकियों ने भी अंधेरे में फायरिंग शुरू कर दी। किन्तु नीरजा ने अपने साहस से लगभग सभी यात्रियों को बचा लिया था। कुछ घायल अवश्य हो गये थे किन्तु ठीक थे अब विमान से भागने की बारी नीरजा की थी, किन्तु तभी उसे बच्चों के रोने की आवाज़ सुनाई दी। दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना के कमांडो भी विमान में आ चुके थे। उन्होंने तीन आतंकियों को मार गिराया। इधर नीरजा उन तीन बच्चों को खोज चुकी थी और उन्हें लेकर विमान के आपातकालीन द्वार की ओर बढ़ने लगी कि अचानक बचा हुआ चैथा आतंकवादी उसके सामने आ खड़ा हुआ। नीरजा ने बच्चों को आपातकालीन द्वार की ओर धकेल दिया और स्वयं उस आतंकी से भिड़ गई। कहां वो दुर्दांत आतंकवादी और कहाँ वो 23 वर्ष की पतली-दुबली लड़की। आतंकी ने कई गोलियां उसके सीने में उतार डाली। नीरजा ने अपना बलिदान दे दिया। उस चौथे आतंकी को भी पाकिस्तानी कमांडों ने मार गिराया किन्तु वो नीरजा को न बचा सके। नीरजा भी अगर चाहती तो वो आपातकालीन द्वार से सबसे पहले भाग सकती थी। किन्तु वो भारत माता की सच्ची बेटी थी। उसने सबसे पहले सारा विमान खाली कराया और स्वयं को उन दुर्दांत राक्षसों के हाथों सौंप दिया।)

    मंगल सेन जो बाद में हरियाणा में पंजाब में जनसंघ के नेता मंत्री रहे।
    इन सबने तय किया की श्रीनगर की रक्षा की जाएगी
    24 अक्टूंबर को विजया दशमी थी
    महाराजा हरी सिंह का दरबार भी लगा
    सेना की टुकड़ी का निरिक्षण भी हुआ

    परन्तु रात में बिजली बंद हो गई
    कारण यह रहा की कबायली उड़ी जीतकर आगे बढे तो उन्होंने महुरा का जल विधुत केंद्र नष्ट कर दिया
    सो आपूर्ति ठप्प हो गयी
    और 24 को कबायली बारामूला पहुंच गए
    25 अक्टूंबर को जवाहरलाल नेहरू के सचिव मेनन ने हरी सिंह को श्रीनगर से दबाव देकर जम्मू भेज दिया।
    25 अक्टूंबर को श्री नगर में सन्नाटा पसरा पड़ा था
    यही हाल; 26 अक्टूंबर तक रहा परन्तु उस दिन भारतीय सेना आएगी
    यह घोषणा होने से कुछ राहत थी
    27 अक्टूंबर को भारतीय सेना पहुंची
    उसने मोर्चा संभाला और जब कबायली सेना को पीछे खदेड़ रही थी की अकस्मात
    7 नवंबर को युद्ध विराम होगया।

    दूसरा पक्ष
    24 अक्टूंबर को कबायली सेना जिसमे पाकिस्तानी सेना और कबायली मतलब भाड़े केलोग थे
    वे बारामुला पहुंच गए रात को वही सो गए रात को कूच नहीं किया यह योजना के विरुद्ध काम था
    परन्तु 25 को श्रीनगर कूच की बजाय कबायली बारामूला को लूटने में लग गये
    उनको कश्मीरी महिलाओ का सौंदर्य बड़ा अच्छा लगा और पहले हिन्दू और उसके बाद धनी मुसलमान लूटने शुरू हुए
    तथा उनको कोई रोक नहीं पाया तथा यह लूटपाट दिन भर चली।
    इसका विरोध किया गया
    यह विरोध मकबूल मास्टर ने किया।
    उसको कबायली लोगो गोली से उड़ा दिया
    भारत माता का यह सच्चा सपूत बलिदान हो गया।
    सो 25 अक्टूंबर की योजना बिगड़ गयी।
    अब पाकिस्तानी सेना ने अपने दो भाग किये
    एक भाग को जिसमे सैनिक ज्यादा थे वह आगे बढ़ा परन्तु प्रतिरोध डोगरो की तरफ से सिख्खो की तरफ से होने लगा सो गति धीमी पड़ गयी तथा 26 को श्रीनगर नहीं पहुंच पाये।
    25 अक्टूंबर को महाराजा ने विलय प्रस्ताव भेज दिया था
    परन्तु वह विलय प्रस्ताव बिना किसी कारण के 26 अक्टूंबर तक नहीं माना गया।
    माना कब गया जब शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का प्रमुख माना गया
    तब 26 को दोपहर प्रस्ताव स्वीकार किया।
    उसी दिन रात में नेहरू भाषण आकाशवाणी या उस समय के आल इंडिया रेडियो ने प्रसारित किया
    उसका सार यह है
    महाराजा का विलय प्रस्ताव मिला है
    उसे स्वीकार किया जाता है
    परन्तु
    हम कश्मीरी जनता की इच्छा के विरुद्ध उसे भारत के साथ रहने को मजबूर नहीं करेंगे
    यह विलय अस्थायी रहेगा
    रियासत का शासन शेख अब्दुल्ला को सोपा जायेगा।
    हम कश्मीर का निर्णय जनमत संग्रह से करेंगे।
    यह जवाहर लाल नेहरू का वक्तव्य है
    इस से उसकी मानसिकता समझी सकती है

    तीसरी बात
    नेहरू ने 26 तक किसका इन्तजार किया ?
    कुछ लोग यह है की प्रस्ताव तो 23 अक्टूंबर को भेजा जा चुका था
    परन्तु नेहरू का सचिव उस प्रस्ताव को लेकर वापस आया और कहा की जब तक शेख को शासन नहीं देओगे
    तब एक विलय प्रस्ताव नहीं माना जायेगा

    मतलब यदि पकिस्तानी 26 को योजनानुसार ईद मना लेते तो फिर यह कहा जाता की कश्मीरी जनता की इच्छा के अनुसार यह पाकिस्तान का अंग माना जाता है परन्तु ऐसा हुआ नहीं ,जिन्ना ने शेख को घास नहीं डाली और वह शेख को पसंद नहीं करता था कारण शेख ने मुस्लिम लीग नहीं बनाकर मुस्लिम कांफ्रेंस बनायीं थी वह शेख को लालची मानता था ,

  5. इतिहास और महाराजा हरि सिंह का सही परिचय देने के लिए कोटिसः धन्यबाद । सही इतिहास का हमारी पाठ्य पुस्तकों मे न होना भी मैकाले शिक्षा पद्धति का षड्यंत्र ही है जिससे सब अनजान है और लकीर के फकीर बने है ।

  6. धूर्तों और चाटुकारों ने भारत का पूरा इतिहास ही, उल्टा लिख दिया, १८० डिग्री का विक्षोभ . चोरों, उठाईगीरों, मौकापरस्तों ने इतिहास के साथ जो छेड़ छाड़ की है उसका खामियाजा देश भुगत रहा है. नतीजा असत्य सत्य पर भारी पड़ता जा रहा है.

    आपका बारम्बार धन्यवाद इतिहास का और महाराजा हरी सिंह का सत्य परिचय देने के लिए.

    सादर

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