प्रवक्ता के पांच साल पूरे हो रहे हैं, यह जान कर बेहद खुशी हुई.
मुझे अच्छे से याद है, अनुज पंकज झा ने ‘प्रवक्ता’ के बारे में बताया था. जब मैंने इस पोर्टल को देखा तो संतोष हुआ कि इस भटके हुए दौर में कोई तो ऐसा मंच है, जो देश और समाज को केंद्र में रख कर प्रकाशन का कार्य कर रहा है. इन दिनों तथाकथित नए मीडिया का चरित्र यही बन गया है कि जो बेहतर है, उसे नष्ट करो. मूल्य हाशिये पर जाएँ तो जाएँ। अश्लीलता और हिंसा को ले कर एक फूहड़ स्वीकृति बनाने की घटिया कोशिशें भी मैंने देखी।
इन सब निकृष्ट सोचों से परे हट कर ‘प्रवक्ता’ को शुचिता के साथ काम करते देखा, तो लगा यही वो वेब पत्रिका हो सकती है, जिससे मेरे जैसा लेखक जुड़ सकता हूँ, और फिर जो सिलसिला बना, वो निरंतर चला आ रहा है. मैंने भी इस पत्रिका से पांच साल जुड़ कर खुद को धन्य मानता हूँ. मेरे हर विचार को पत्रिका ने भरपूर मान दिया। और यह स्वाभाविक ही था, क्योंकि हम दोनों के ख्यालात मिलते-जुलते ही थे. मैं अपने को किसी दल विशेष से जोड़ कर नहीं देखता लेकिन जब मैं राष्ट्र के सवाल पर लिखता हूँ, गौ- विमर्श करता हूँ , तो केवल ”प्रवक्ता’ ही वो साईट है, जहां मैं ससम्मान जगह पा सकता हूँ. फिर भले ही लोग मुझे हिंदूवादी कह दे, . मैं जो हूँ, वो हूँ. मेरी रचनाएं बता देती हैं कि मैं क्या हूँ. मेरे गीत,मेरे व्यंग्य आदि बता देते हैं कि मेरे लेखन की दिशा क्या है.
‘प्रवक्ता’ में मेरी सौ से ज्यादा रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी है. अधिकांश रचनाओं में नैतिक मूल्यों के उन्नयन की चिंता है। आज इस तरह के चिंतन को मध्य युगीन मानसिकता समझ लिया जाता है. आज का मीडिया यह देखता है कि कौन कितना बड़ा लम्पट है, वही नायक बन सकता है. खलनायक को नायक बनाये जाने के वीभत्स-समय में अपने महापुरुषों के पुनर्पाठ पर ‘प्रवक्ता’ ने सावधानीपूर्वक ध्यान केन्द्रित किया, यह बड़ी बात है. इसलिए यह पत्रिका मुझे आकर्षित करती रही. इसलिए मैं कहीं गया भी नहीं, क्योंकि अनेक वेब पत्रिकाओं की सोच ने मुझे दुखी ही किया। आज अनेक पोर्टल क्या कर रहे हैं? कोई नक्सली हिंसा को महिमामंडित कर रहा है, कोई समलैंगिकता को प्रोत्साहित कर रहा है . कुल मिला कर निकृष्टता को प्रगतिशीलता का पर्याय बनाने पर आमादा पोर्टलों के भीड़ में ‘प्रवक्ता’ का अपने मूल्यों के साथ खड़ा रहना एक सांस्कृतिक घटना भी मानता हूँ. राष्ट्र की अस्मिता पर ध्यान दे कर रचनाओं का प्रकाशन बड़ी बात है.. हो सकता है इसके लिए ‘प्रवक्ता’ की आलोचनाएँ भी होती रही हैं, फिर भी ‘प्रवक्ता’ ने अपनी रह नहीं छोडी , वह आज तक अपने पथ पर चल रहा है, चलता ही रहेगा।
आज पत्रकारिता संक्रमण काल से गुजर रही है. यह विखंडनवादी समय है . पत्रकारिता बनाम मीडिया की भाषा बदल गयी है. अंग्रेज़ी से उसका भद्दा मोह शर्मसार कर देता है। अंगरेजी का व्यामोह सिर्फ इसलिए की ऐसा करके ‘मीडिया’ खुद को ‘माडर्न’ साबित करना चाहता है। और इस चक्कर में वह पाठकों को भी ”आधुनिक’ बनाने पर तुला है, अनेक खबरची पोर्टलों को देख कर कई बार यह लगने लगता है कि कोई ‘पोर्न साइट’ देख रहे हैं, यहां परोसे जाने वाली खबरे, अश्लील चित्र आदि देख कर लगता ही नहीं कि ये इस राष्ट्र के पोर्टल है. लगता है पश्चिम के उन देशो के पोर्टल है, जहां अश्लीलता को सामाजिक स्वीकृति मिल चुकी है. अरे भाई, ये हिन्दुस्तान है, इस देश का अपना स्वर्णिम इतिहास रहा है, यह विश्व गुरू है. लेकिन अब यहाँ ”गुरुघंटाल मीडिया” पनपता जा रहा है. ऐसे विद्रूप मीडिया-समय में ‘प्रवक्ता’ के सात्विक और मूल्य आधारित पत्रकारिता की ललक देख कर खुशी होती है. और इस पथभ्रष्ट-काल में भी पथ को दुरुस्त करने में लगे लोगों को देख कर आश्वस्त भी होता हूँ की पतन के साथ-साथ उत्थान की यात्रा भी जारी है. ‘प्रवक्ता’ इसी तरह सकारात्मक पत्रकारिता करके भारत की गरिमा को बनाए रखने के अभियान में रत रहे , यही कामना करता हूँ।
गद्य लेखन के साथ समय- समय पर कविता के माध्यम से भी अपनी बात करता रहा हूँ , इसलिए अपनी यहाँ समापन करते हुए ‘प्रवक्ता’ के लिए चार पंक्तियाँ दे रहा हूँ –
सत्य के संधान को लेकर चला है ये ‘प्रवक्ता’
और अंगारों में चल कर के बढ़ा है ये ‘प्रवक्ता’
मूल्य जीवन के बने यह लक्ष्य ही हरदम रहा
इसलिए संघर्ष में प्रतिपल पला है ये ‘प्रवक्ता’